गीता प्रबंध -अरविन्द पृ. 121

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गीता-प्रबंध
13.यज्ञ के अधीश्वर

पारस्परिक आदान - प्रदान जीवन का नियम है जिसके बिना वह एक क्षण के लिये भी नहीं टिक सकता और यह तथ्य संसार पर उस भगवान् के सर्जनशील संकल्प की छाप है जिसने संसार को अपनी सत्ता में अभिव्यक्त किया है। और यह इस बात का प्रमाण है कि यज्ञ के साथ , यज्ञ को सदा के लिये प्रजाओं का साथी बनाकर प्रजापति ने सृष्टि की थी। यज्ञ का यह विश्वव्यापक विधान इस बात का सुस्पष्ट चिन्ह है कि यह संसार ईश्वर का है और ईश्वर का ही इस पर अधिकार है। जीवन उसी का राज्य और अर्चना - मंदिर है , किसी स्वतंत्र अहंकार की आत्मतुष्टि का साधन - क्षेत्र नहीं। अहंकार की पुष्टि हम लोगों के स्थूल और असंस्कृत जीवन का आरंभमात्र है, जीवन का परम हेतु तो भगवान् की प्राप्ति , अनंत देवेश की पूजा और खोज है, इसका साधन निरंतर बढ़ते रहने वाला वह यज्ञ है जिसकी परिपूर्णता पूर्ण आत्मान पर प्रतिष्ठित पूर्ण आत्मदान में होती है । जीवन में जो अनुभव प्राप्त होते हैं उनका हेतु अंत में भगवान् की और ले जाना ही है। परंतु व्यक्तिभूत जीव का जीवन अज्ञान के साथ शुरू होता है और बहुत काल तक अज्ञान में ही रहता है । अपने – आप पर ही दृष्टि रहने के कारण वह भगवान् को नहीं , बल्कि अहंकार को ही जीवन का मूल कारण और एकमात्र अर्थ समझता है।
वह अपने कर्मो का कर्ता अपने - आपको ही जानता है और यह नहीं देख पाता कि जगत् के सारे कर्म जिनमें उसके अपने आंतर और बाह्म सब कर्म ही शामिल हैं, एक ही विश्व - प्रकृति द्वारा होने वाले कर्म हैं, और कुछ भी नहीं । वह अपने - आपको ही सब कर्मो का भोक्ता समझता है और यह कल्पना करता है कि सब कुछ उसके भोग के लिये है और इसलिये यही चाहता है कि प्रकृति उसकी व्यष्टिगत इच्छाओं को माने और तृप्त करे; उसे यह नहीं सूझता कि उसकी इच्छाओं को तृप्त करने से प्रकति का कुछ भी वास्ता नहीं है उसकी इच्छाओं को जानने की उसे परवा भी नहीं ,प्रकृति एक उच्चतर संकल्प की आज्ञा का पालन करती है और उस देव को तृप्त उसकी अपनी नहीं, बल्कि प्रकृति की है और प्रकृति इन सब चीजों का प्रतिक्षण उन भगवान् को यज्ञ - रूप से अर्पण किया करती है जिनके हेतु को सिद्ध करने के लिये वह इन सब चीजों को अज्ञात, अप्रकट साधनमात्र बनाया करती है। इस अज्ञान के कारण ही, जिसकी मुहर - छाप अहंकार है, जीव यज्ञ के विधान की उपेक्षा करता है और संसार में सब कुछ अपने लिये ही बटौरना चाहता है और केवल उतना ही देता है जितना प्रकृति अपनी भीतरी और बाहरी दबाव से दिलवाती है। यथार्थ में वह उससे अधिक कुछ नहीं ले सकता , जितना प्रकृति उसे लेने देती है, जितना प्रकृति में स्थित ईश्वरी शक्तियां उसकी कामना पूरी करने के लिेय देती हैं।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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