गीता प्रबंध -अरविन्द पृ. 131

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गीता-प्रबंध
14.दिव्य कर्म का सिद्धांत

गीता जैसा भरतीय दर्शनशास्त्र व्यक्ति के विकास को, उसकी उच्चतम आवश्यकता को, अपनी विशालतम आध्यात्मिक स्वतंत्रता, माहनता , गौरव और प्रभुत्व का विकास कर उन्हें उपयोग में लाने के दावे को और आध्यात्मिक अर्थ में जिसको दृष्टा और स्वराट् कहा जाता है वैसे प्रकाशमान दृष्टा और स्वराट् - पद में विकसित होने के लक्ष्य को सबसे पहला स्थान दिये बिना नहीं रह सकता और यही प्राचीन वैदिक ऋषियों की आदर्श मानवजाति के संबध में पहला महान् अधिकारपत्र था। व्यक्ति के लिये वैदिक ऋषियों का यही लक्ष्य था कि वह जो कुछ है उसके आगे बढे, अपने वैयक्तिक उद्देश्यों को किसी सुसंगठित मनुष्य - समाज के उद्देश्य में खोकर नहीं, बल्कि ईश्वर की चेतना में अपने - आपको फेलाके , ऊचां करके और बढ़ाके । गीता यहां जिस नियम का विधान कर रही है वह नियम मानव- श्रेष्ट के लिये, अतिमानव के लिये , दिव्यकृत मानव सत्ता के लिये है। गीता का अतिमानव या मानवश्रेष्ठ एकांगी नहीं है, बेढंगा नहीं है, यह अतिमानवता नीत्शे की अतिमानवता नहीं है, यह अतिमानवता यूनानी ओलिमपस्[१] अपोलों[२] या डायोनीसियस[३] जैसी अथवा देवदूत और दैत्य के जैसी अतिमानवता नहीं है। गीता का अतिमानव वह मनुष्य है जिसका सारा व्यक्त्तिव एक मेवाद्धितीय परात्पर विश्वव्यापी भगवान् को सत्ता, प्रकृति और चेतना पर उत्सर्ग हो गया है और जिसने अपने क्षुद्र भाव को खोकर अपनी महत्तर आत्मा को , अपने दिव्य स्वरूप को पा लिया है। निम्नतर अपूर्ण प्रकृति से, त्रैगुण्यमयी माया से अपने - आपको ऊपर उठाना और भागवत् सत्ता, चेतना और प्रकृति के साथ[४] एक हो जाना , यही योग का लक्ष्य है ।
परंतु जब यह लक्ष्य प्राप्त हो जाता है, जब मनुष्य ब्राह्मी स्थिति में पहुंच जाता है और अपने - आपको तथा जगत् को मिथ्या अहंकर की दृष्टि से नहीं देखता ,बल्कि प्राणिमात्र को आत्मा में , ईश्वर में देखता है और आत्मा को, ईश्वर को प्राणिमात्र में देखता है तब उसका कर्म कैसा होगा क्योंकि कर्म तो फिर भी रहेगा ही जो उसके ब्राह्मी स्थिति के ज्ञान से उद्भूत होता है, और फिर उसके कर्मो से विश्वगत या व्यक्तिगत हेतु क्या होगा? यही अर्जुन का प्रश्न५ है, किंतु अर्जुन ने जिस दृष्टिबिन्दु से प्रश्न किया था उससे अलग ही दृष्टिबिंदु से उत्तर दिया गया । अब बौद्धिक , नैतिक, भावावेगमय स्तर की कोई वैयक्त्कि कामना उसके कर्म का हेतु नहीं हो सकती, क्योंकि वह तो छोड़ी जा चुकी ,- नैतिक हेतु भी छोड़ा जा चुका , क्योंकि मुक्त पुरूष पाप - पुण्य के भेद से ऊपर उठकर, उस महिमान्वित पवित्रता में रहता है जो शुभ और अशुभ के परे है। निष्काम कर्म के द्वारा पूर्ण आत्म - विकास करने के लिये आध्यात्मिक आवाहान भी अब उसके कर्म का हेतु नहीं हो सकता, क्योंकि इस आवाहान का तो उत्तर मिल चुका, उसका आत्म –विकास सिद्ध और पूर्ण हो चुका।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. एक यूनानी पर्वत जो हिमालय की तरह देवताओं की वासभूमि की तरह देवताओं की वासभूमि माना जाता है।
  2. प्राचीन यूनानी पुराणों में वर्णित एक देवता जो काव्य, संगीत, आयुर्वेद , धनुर्वेद और शकुन - शास्त्र का अधिष्ठाता माना गया है।
  3. यूनानी सुरा - देवता । - अनु0।
  4. सायुज्य, सालोक्य और सादृश्य या साधम्र्य । भगवान् के स्परूप और कर्म के साथ एक होना साधम्र्य है।

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