गीता प्रबंध -अरविन्द पृ. 192

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गीता-प्रबंध
20.समत्व और ज्ञान

गीता का यह वचन है कि , इसी अभिप्राय को व्यक्त करता है कि - जिसकी आत्मा सब भूतों की आत्मा हो गयी है वह कर्म करता है पर अपने कर्मो में लिप्त नहीं होता, उनमें फंसता नहीं, वह उनसे आत्मा को बंधन में डालने वाली प्रतिक्रिया ग्रहण नहीं करता। इस लिये तो गीता ने कहा है कि कर्मो के भौतिक संन्यास की अपेक्षा कर्मयोग है श्रेष्ठ है, कारण जहां संन्यास देहधारियों के लिये कठिन है - क्योंकि जब तक देह है तब तक उन्हें कर्म करना ही पड़ेगा- वहां कर्मयोग अभिष्ठसिद्धि के लिये सर्वथा प्रर्याप्त है और यह जीव को ब्रह्म के पास शीघ्रता और सरलता से ले जाता है। पहले कहा जा चुका है कि कर्मयोग, सम्पूर्ण कर्म का भगवान् को अर्पण करना है, जिसकी परिसमाप्ति ब्रह्य के प्रति कर्मो के ऐसे अर्पण में होती है जो आंतरिक होता है बाह्म नहीं, जो आध्यात्मिक होता है , भौतिक नहीं। कर्मो का जब इस प्रकार ब्रह्य में आधान हो जाता है तब उपरकण में से कर्ता का भाव जाता रहता है; वह कर्म करता हुआ भी कुछ नहीं करता; क्योंकि उसने केवल कर्मफलों का ही अर्पण नहीं किया है, बल्कि स्वयं कर्म और उसकी प्रक्रिया भी भगवान् को दे दी है। तब, भगवान् उसके कर्मो के भर को अपने ऊपर ले लेते हैं; भगवान् स्वयं कर्ता , कर्म और फल बन जाते हैं।
गीता जिस ज्ञान की बात कहती है वह मन की बौद्धिक क्रिया नहीं है, गीता का ज्ञान है सत्यस्वरूप दिव्य सूर्य के प्रकाश के उद्भासन के द्वारा सत्ता की उच्चतम अवस्था में संवर्द्धन है। यह सत्य , यह सूर्य वही है और हमारे अज्ञान - अंधकार के भीतर छिपा हुआ है जिसके बारे में ऋग्वेद कहता है, अक्षर ब्रह्म इस द्वन्द्वमय विक्षुब्ध निम्न प्रकृति के ऊपर आत्मा के व्योम में विराजमान है, निम्न प्रकृति के पास पाप - पुण्य उसे स्पर्श नहीं करते , वह हमारे धर्म - अधर्म की भावना को स्वीकार नहीं करता, इनके सुख और दुःख उसे स्पर्श नहीं करते , वह हमारी सफलता की खुशी और विफलता के शोक के प्रति उदासीन रहता है, वह सबका स्वामी है, प्रभु है, विभु है, स्थिर , समर्थ और शुद्ध है, सबके प्रति सम है। वह प्रकृति का मूल है, हमारे कर्मो का प्रत्यक्ष कर्ता नहीं बल्कि प्रकृति और उसके कर्मो का साक्षी है, वह हमपर कर्ता होने का भ्रम आरोपित नहीं करता, क्योंकि यह भ्रम तो निम्न प्रकृति के अज्ञान का परिणाम है। परंतु हम इस मुक्ति , प्रभुता और विशुद्धता को नहीं देख पाते; क्योंकि हम प्राकृतिक अज्ञान के कारण विमूढ़ हुए रहते हैं और यह अज्ञान हमारे अंदर कूटस्थ ब्रह्म के सनातन आत्मज्ञान को हमसे छिपाये रहता है। पर जो इस ज्ञान का लगातार अनुसंधान करते हैं उन्हें इसकी प्राप्ति होती है और यह ज्ञान उनके प्राकृतिक अज्ञान को दूर कर देता है; यह बहुत काल से छिपे हुए सूर्य की तरह उद्भाषित होता है और हमारी दृष्टि के सामने उस परम आत्मसत्ता को प्रकाशित कर देता है जो इस निम्न जीवन के द्वन्द्व के परे है,


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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