गीता प्रबंध -अरविन्द पृ. 211

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गीता-प्रबंध
21.प्रकृति का नियतिवाद

वह वास्तविक कर्ता है जो प्रकृति से भिन्न और माया की यांत्रिकता से भिन्न है? ऐसा मालूम तो हेाता है , क्योंकि मनुष्य में सचेतन बुद्धि है और इस बुद्धि में साक्षी पुरूष का प्रकाश भरपूर है और ऐसा प्रतीत होता है कि यह पुरूष उस बुद्धि के द्वारा देखता, समझता, स्वीकार या अस्वीकार करता , अनुमति देता या निषेध करता है; और ऐसा लगता है कि आखिर मनुष्य - कोटि में आकर पुरूष अपनी प्रकृति का प्रभु बनना आरंभ कर देता है। मनुष्य शेर , आग या आंधी - तूफान के जैसा नहीं हैं वह खून करके यह सफाई नहीं दे सकता कि , ‘‘ मैं अपनी प्रकृति के अनुसार कर्म कर रहा हूं,” और वह ऐसा कर भी नहीं सकता, क्योंकि उसका स्वभाव और स्वधर्म वह नहीं है जो शेर, आग या आंधी - तूफान का है। उसमें सचेतन बुद्धि है और उसे सब कार्मो के लिये सचेतन बुद्धि की सलाह लेनी होगी। यदि वह ऐसा नहीं करता और अपने आवेशों और प्राणावेगों के अनुसार अंधा होकर कर्म करता है तो उसका धर्म ‘सु – अनुष्ठित’ नहीं है, उसका आचरण उसके मनुष्यत्व के अनुकूल नहीं , बल्कि पशु जैसा है। यही सही है कि रजोगुण अथवा तमोगुण उसकी बुद्धि को अपने कब्जे में कर लेता है और उससे, उसके द्वारा होने वाले प्रत्येक कर्म के करने या किसी भी कम के न करने का समर्थन कर लेता है; परंतु यहां भी, कर्म करने के पहले या पीछे, बुद्धि से समर्थन कराना या कम - से -कम उससे पूछ लेना पड़ता है।
इसके अतिरिक्त मनुष्य के अंदर सत्वगुण जागृत है और यह केवल बुद्धि और बुद्धिमत्तापूर्ण संकल्प के रूप में ही काम नहीं करता , बल्कि प्रकाश, सत्यज्ञान और उस ज्ञान के अनुसार सत्य-कर्म के अन्वेषण के रूप में, तथा दूसरों के जीवन और दावों को सहानुभूतिपूर्ण रीति से अनुभव करने और, अपने निजी स्वभाव के उच्चतर धर्म को (जिसकी सृष्टि या सत्वगुण ही करता है) जानने व मानकर चलने के प्रयास के रूप में तथा पुण्य , ज्ञान और सहानुभूति जिस महत्तर शांति और सुख को लाते हैं उसके बोध के रूप में भी, काम करता है। मनुष्य थोड़ा - बहुत यह जानता ही है कि उसे अपनी राजसिक और तामसिक प्रकृति पर अपनी सात्विक प्रकृति के द्वारा शासन करना है, और यही उसकी सामान्य मनुष्यता की सिद्धि का मार्ग है।परंतु क्या प्रधानतः सात्विक स्वभाव की अवस्था स्वाधीनता है और क्या मनुष्य की ऐसी इच्छा स्वाधीन इच्छा है? गीता इस बात को उस चैतन्य की दृष्टि से अस्वीकार करती है, क्योंकि सच्ची स्वाधीनता तो उच्चतर चैतन्य में ही है। बुद्धि , अब भी, प्रकृति का ही उपकरण है और इसका जो कर्म होता है, वह चाहे अत्यंत सात्विक हो, पर होता है प्रकृति के द्वारा ही और पुरूष भी माया के द्वारा ही यंत्रारूढ़वत् चलित होता है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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