गीता प्रबंध -अरविन्द पृ. 220

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गीता-प्रबंध
22.त्रैगुणातीत्य

यह पुरूष एक है और अनेक भी; यही वह प्राणसत्त्ता है जिसमें से सारा जीवन बनता है और यही सब प्राणी भी हैं; यही विश्व सत्ता है और यही ‘सर्वभूतानि’ है, क्योंकि ये सब - ‘एक’ ही हैं; ये सब असंख्य पुरूष अपने मूल स्वरूप में एकमेव अद्वितीय पुरूष ही हैं। परंतु प्रकृति में अहंभाव का यह यंत्र प्रकृति के कर्म का ही एक अंग है, वह मन को इस बात के लिये प्रवृत्त करता है कि वह पुरूष की चेतना को तात्कालिक परिच्छिन्न भूतभाव के साथ, देश -काल - मर्यादित किसी विशिष्ट क्षेत्र में प्रकृति की सक्रिय चेतना के साथ , प्रकृति के पूर्व -कर्म - समूह के क्षण - क्षण होने वाले एक फल के साथ, तदाकार कर ले। एक तरह से यह संभव है। कि इन समस्त जीवों की एकता को स्वयं प्रकृति में ही अनुभव किया जा सके और विश्वप्रकृति के अखिल कर्म के अंदर वयक्त विराट पुरूष को जाना जा सके, कि प्रकृति पुरूष को अभिव्यक्त करती है और पुरूष ही प्रकृति बनता है। परतु यह अनुभव करना और जानना विराट् भूतभाव को ही जानता है , जो मिथ्या असत् भाव नहीं है, किंतु केवल इसी ज्ञान से हमें आत्मा की सच्चा ज्ञान नहीं मिलता; क्योंकि हमारी वास्तविक आत्मा सदा ही इससे कुछ अधिक है और इसके परे है।
कारण , प्रकृति में व्यक्त और उसके कर्म में बद्ध पुरूष के परे पुरूष की एक और स्थिति है, जो केवल एक स्थितिशील अवस्था है, वहां कर्म बिलकुल नहीं है; वह पुरूष की नीरव - निश्चल , सर्वगत, स्वतःस्थित, अचल, अक्षर आत्मसत्ता है, भूतभाव नहीं । क्षरभाव में पुरूष प्रकृति के कर्म में फंसा है, इसलिये यह काल के मुहुर्तो में, भूतभाव की तरंगों में केन्द्रीभूत है, मानो अपने - आपको खो बैठा है , पर यह खो बैठना वास्तविक नही , यह केवल ऐसा दिखयी देता है और चूंकि यहां पुरूष भूतभाव के प्रवाह का अनुसरण करता है इसीलिये ऐसा जान पड़ता है। अक्षरभाव में प्रकृति पुरूष में शांति और विश्रांति को प्राप्त होती है, इस कारण पुरूष अपने अक्षर स्वरूप को जान जाता है। क्षर सांख्योक्त पुरूष की वह अवस्था है वह प्रकृति के गुणों के नानाविध कर्मो को प्रतिबिम्बित करता है और अपने - आपको सगुण, व्यष्टि - पुरूष जानता है; अक्षर सांख्योक्त पुरूष की वह अवस्था है जब ये गुण साम्यावस्था को प्राप्त होते हैं और वह अपने - आपको निर्गुण, नैव्र्यक्तिक पुरूष जानता है। इसलिये जहां क्षर पुरूष की यह अवस्था है कि वह प्रकृति के कर्म के साथ युक्त होकर कर्ता भासित होता है वहां अक्षर पुरूष गुण - कर्मो से सर्वथा अलग, निष्क्रिय , अकर्ता और साक्षी मात्र रहता है।



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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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