गीता प्रबंध -अरविन्द पृ. 243

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गीता-प्रबंध
24.कर्मयोग का सारतत्व

हम इस आधार को मानकर चलते हैं कि मनुष्य की वर्तमान आंतर जीवन जो लगभग पूरी तरह उसकी प्राण - प्रकृति और शरीर - प्रकृति पर निर्भर है और मानसी शक्ति की मर्यादित क्रीड़ा के सहारे कुछ ही ऊपर उठ रहता है, उसका संपूर्ण संभाव्य जीवन नहीं है, न यह उसके वर्तमान वास्तविक जीवन का ही सब कुछ है। उसके अंदर एक आत्मा छिपी हुई है और उसकी वर्तमान प्रकृति या तो उस आत्मा का केवल बाह्म रूप है या उसकी कर्म - शक्ति का एक आंशिक फल। गीता में सर्वत्र इस कर्म शक्ति की वास्तविकता की बात स्वीकृत है, कहीं भी ऐसा नहीं मालूम होता कि उसने चरमपंथी वेदांतियों का यह कठोर मत स्वीकार किया हो कि यह सत्ता केवल प्रतिभासिक है, यह मत तो सारे कर्म और क्रिया - शक्ति की जड़़ पर ही कुठारधात करता है । गीता ने अपनी दार्शनिक विवेचना में इस पहलू को जिस रूप में सामने रखा है ( यह दूसरे रूप में भी रखा जा सकता था) वह यही है कि उसने सांख्यों का प्रकृति - पुरूषभेद मान लिया है - पुरूष अर्थात् वह ज्ञान - शक्ति जो जानती , धारण करती और पदार्थ मात्र को अनुप्रमाणित करती है और प्रकृति अर्थात् वह क्रिया शक्ति जो कर्म करती और नानाविध उपकरणों , माध्यमों और प्रक्रियाओं को जुटाती रहती है।
फर्क इतना ही है कि गीता ने सांख्यों के मुक्त अक्षर पुरूष को ग्रहण तो किया है किंतु उसे वेदांत की भाष में ‘ एक’ अक्षर सर्वव्यापक आत्मा या ब्रह्म कहा है, और दूसरे प्रकृतिबद्ध पुरूष से उसका पार्थक्य दिखया है। यह प्रकृति बद्ध पुरूष ही हमारा क्षर कर्मशील पुरूष है, यही भोगपुरूष है जो समस्त वस्तुओं में है और जो विभिन्नता और व्यक्तित्व का आधार है । परंतु तब प्रकृति का कर्म क्या है? यह प्रक्रिया - शक्ति है, इसीका नाम प्रकृति है और यह तीनों गुणों की एक - दूसरे पर क्रिया - रूप क्रीड़ा है। और, माध्यम क्या है? यह प्रकृति के उपकरणों के क्रम - विकास से सृष्ट जीवन की जटिल प्रणाली है और जैसे - जैसे ये उपकरण प्रकृति की क्रिया में जीव की अनुभूति के अंदर प्रतिभासित होते हैं वैसे - वैसे हम इन्हें यथाक्रम बुद्धि, अहंकार, मन, इंन्द्रियां और पंचमहाभूत कह सकते हैं, और ये पंचमहाभूत ही प्रकृति के रूपों के आधर हैं। ये सब यांत्रिक हैं, ये प्रकृति का एक ऐसा यंत्र हैं जिसके अनेकों कल - पुर्जे हैं और आधुनिक दृष्टिकोण से हम कह सकते हैं कि ये सब - के - सब जड़ प्रकृतिक शक्ति में समाये हुए हैं और प्रकृतिस्थ जीवन जैसे - जैसे प्रत्येक यंत्र के ऊध्र्वागामी विकास के द्वारा अपने - आपको जानता है वैसे - वैसे ये प्रकृति में प्रकट होते हैं, किंतु जिस क्रम से हम इन्हें ऊपर गिना आये हैं, उससे इनके प्रकटीकरण का क्रम उलटा होता है,


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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