गीता प्रबंध -अरविन्द पृ. 255

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गीता-प्रबंध: भाग-2 खंड-1: कर्म, भक्ति और ज्ञान का समन्वयव
1.दो प्रकृतियां

वास्तविक तत्व यही आध्यात्मिक शक्ति, यही भागवत स्वभाव , यही मूलगत आत्मभाव है जो सब पदार्थो के अदंर है या यह कहिये कि जिसके अंदर सब पदार्थ हैं और जिससे सब पदार्थ अपनी शक्तियां और कर्मो के बीज ग्रहण करते हैं। उस सत्तत्व , शक्ति और भाव को प्राप्त होन से ही हम अपने भूतभाव का असली धर्म और अपने जीवन का भागवत तत्व पा सकेगें , केवल अज्ञान में उसकी प्रक्रियामात्र ही नहीं, बल्कि ज्ञान के अंदर उसका मूल और विधन भी पा सकेंगें यहां गीता का अभिप्राय ऐसी भाषा में व्यक्त किया गया है जो आजकल की विचार - पद्धति के अनुसार है; जब हम परा प्रकृति का वर्णन करने वाले उसकी के शब्दों को देखें तो यह दिखायी देगा कि वास्तव में उसका यही अभिप्राय है। क्योंकि , पहले भगावान् श्री कृष्ण कहते हैं कि यह दूसरी उच्चतर प्रकृति मेरी परा प्रकृति है। और यहां जो ‘‘ मैं ” है वह पुरूषोत्तम अर्थात् परमपुरूष, परमात्मा , विश्वतीत और विश्वव्यापी आत्मा का वाचक है। परमात्मा की मूल सनातन प्रकृति और उसकी परात्परा मूल कारण - शक्ति ही परा प्रकृति से अभिप्रेत है। अपनी प्रकृति की क्रियाशील शक्ति की दृष्टि से जगदुत्पत्ति की बात कहते हुए भगवान् का यह स्पष्ट वचन है कि ‘‘ यह सब प्राणियों की योनि है।
‘‘ इसी श्लोक के दूसरे चरण में उसी बात को आरंभिक आत्मा की दृष्टि से कहते हैं , ‘‘ मैं ही संपूर्ण जगत् की उत्पत्ति और प्रलय हूं; मेरे परे और कुछ भी नहीं है।”[१]यहां इस तरह परम पुरूष पुरूषोत्तम और परा प्रकृति एकीभूत हैं; वे यहां एक ही सतत्व की ओर देखने के दो भिन्न प्रकारों के रूप में रखे गये हैं। क्योंकि जब श्री कृष्ण कहते हैं कि इस जगत् की उत्पत्ति और प्रलय मैं हूं तब यह स्पष्ट है कि इसका मतलब परा प्रकृति अर्थात् उनके स्वभाव से है जो उत्पत्ति और प्रलय दोनों हैं। यह आत्मा ही अपनी अनन्त चेतना में परम पुरूष है और परा प्रकृति उनकी स्वभावगत अनंत शक्ति या संकल्प है- यह अपने अदंर निहित भागवत शक्ति और परम भागवत कर्म के साथ अनंत चेतना ही है। परमात्मा में से किसी चिच्छक्ति का आविर्भूत होना उत्पत्ति है, क्षर जगत् में उसकी यह प्रवृत्ति है और परमात्मा की अक्षर सत्ता और स्वात्मलीन शक्ति के अदंर इस चिच्छक्ति का अंतर्वलय होने से कर्म की निवृत्ति ही प्रलय है। परा प्रकृति से यही मूल अभिप्राय है। इस प्रकार परा प्रकृति स्वयंभू परम पुरूष की अनंत कालातीत सचेतन शक्ति है जिसमें से विश्व के सब प्राणी आविर्भूत होते और कालातीत सत्ता से काल के अदंर आते हैं। पर विश्व में इस विविध संभूति को आत्म सत्ता का आधार दिलाने के लिये स्वयं परा प्रकृति जीवरूप धारण करती है। इसी बात को दूसरी तरह से यूं कह सकते हैं कि पुरूषोत्तम का बहुविध सनातन आत्मस्वरूप् ही विश्व के इन सब रूपों में व्यष्टि पुरूष होकर प्रकट होता है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 7.6 -7

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