गीता प्रबंध -अरविन्द पृ. 263

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गीता-प्रबंध: भाग-2 खंड-1: कर्म, भक्ति और ज्ञान का समन्वयव
2. भक्ति -ज्ञान -समन्वय

उस मिथ्या व्यक्तितव से विरत होने के लिये हमें निर्गुण निराकार आत्मा की शरण लेकर उसके साथ एक हो जाना पड़ता है। तब , इस प्रकार अहंकारमय व्यष्टि- भाव से मुक्त होकर , हमारे वास्तविक व्यष्टि - स्वरूप का श्री पुरूषोत्तम के साथ जो संबंध है उसे हम जान सकते हैं यह व्यष्टि - पुरूष सत्ता में उनसे अभिन्न है; यद्यपि व्यष्टि होने से प्रकृति के कर्म और कालाधीन विकास में, अनिवार्यतः , पुरूषोत्तम का अंश ओर विशेष रूपमात्र हैं निम्न प्रकृति से मुक्त होने पर ही हम उस परा, भागवत , आध्यात्मिक प्रकृति को जान सकते हैं। इसलिये आत्मा से कर्म करने का अभिप्राय वासनाबद्ध जीवन के अधिष्ठान में कर्म करना नहीं है; कारण वह परम आंतरिक स्वरूप नहीं बल्कि निम्न प्राकृत और बाह्म आभास मात्र है। आंतरिक आत्मप्रकृति क्या स्वभाव से कर्म करने का अर्थ यह नहीं है कि अहंकार के, काम - क्रोधादि के वश होकर या अपनी प्राकृत प्रेरणा और त्रिगुण के चंचल खेल के अनुसार उदासीनता के साथ अथवा वासना के साथ पाप और पुण्य का आचरण किया जाये। काम - क्रोध के वश होना , पाप में स्वेच्छा से या जड़तावश लिप्त होना न तो उच्चतम निराकार ब्रह्म की आध्यात्मिक शांत निष्क्रिय स्थिति पाने का ही कोई रास्ता है न उस भागवत व्यष्टि - पुरूष के आध्यात्मिक कर्म का ही साधन है जो परम पुरूष के संकल्प की सिद्धि का एक पात्र बनने को है, पुरूषोत्तम की अपनी शक्ति और प्रत्यक्ष विग्रह होने को है।
गीता ने आंरभ से ही यह कह रखा है कि दिव्य जन्म अर्थात् परा स्थिति की सबसे पहली शर्त ही यह है कि राजस काम और उसकी संतति का वध हो और इसका मतलब है पाप का सर्वथा निराकरण । पाप है ही निम्न प्रकृति की वह क्रिया जो आत्मा के द्वारा प्रकृति को आत्म - नियत और आत्म - वश करने के विरूद्ध अपनी ही मूढ़ , जड़ या आसुरी राजस और तामस प्रवृत्तियों की भद्दी तुष्टि के लिये हुआ करती है। निम्न प्रकृति के इस निकृष्ट गुणकर्म के द्वारा आत्मसत्ता पर होने वाले इस भद्दे बलात्कार से छूटने के लिये हमें प्रकृति के उत्कृष्ट गुण अर्थात् सत्व का आश्रय लेना पड़ता है, क्योंकि सत्वगुण ही सतत समाधानसाधक ज्ञान, ज्योति और कर्म की प्रमादरहित विशुद्ध विधि का अनुसंधन करता रहता है। हमारे अंदर जो पुरूष है, जो प्रकृति में रहता हुआ विविध गुणवृत्तियों का अनुमोदन करता है , उसे हमारी उस सात्विक प्रेरण, संकल्प और स्वभाव को अनुमति देनी पड़ती है जो इस विधि का अनुसंधान करता है । हमारी प्रकृति में जो सात्विक इच्छा है उसे ही हमारा नियमन करना होगा, राजस - तामस इच्छा को नहीं। यही कर्माकर्म का संपूर्ण विवेक है और यही समस्त सच्ची धार्मिक नैतिक संस्कृति का अभिप्राय है; यही हमारे अंदर प्रकृति का वह विधान है जो प्रकृति के अधोमुख और अस्तव्यस्त कर्म के स्तर से उसके ऊध्र्वमुख और सुव्यवस्थित कर्म के स्तर में विकसित होने का प्रयास करता है, काम- क्रोध- लोभ और अज्ञान में नहीं जिसका फल दुःख और अशांति है, बल्कि ज्ञान और प्रकाश में कार्य करने का प्रयास करता है जिसका फल आंतरिक सुख, समत्व और शांति है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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