गीता प्रबंध -अरविन्द पृ. 265

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गीता-प्रबंध: भाग-2 खंड-1: कर्म, भक्ति और ज्ञान का समन्वयव
2.भक्ति -ज्ञान -समन्वय

इसलिये मनुष्य को सर्वप्रथम सुकृती , सदाचारी होना चाहिये और तब आचारधर्म में ही अटके न रहकर ऊपर की ओर अध्यात्मिप्रकृति के उस प्रकाश, विशालता और शक्ति की ओर आगे बढ़ना चाहिये जहां वह द्वन्द्वों की पकड़ और उसके मोह के परे पहुंच जाता है। तब वह अपने वैयक्तिक हित या सुख की खोज नहीं करता न अपने वैयक्तिक दुःख या पीड़ा से मुंह मोड़ता है ; क्योंकि वहां इन चीजों का उसपर कोई असर ही नहीं पड़ता न उसके मुख से कोई ऐसी बात ही निकलती है कि ‘‘ मैं पुण्यात्मा हूं ” या ‘‘ मैं पापात्मा हूं।” प्रत्युत वह जो कुछ करता है , अपने ही आध्यात्मिक स्वभाव में स्थित होकर भगवदिच्छा से जगत्कल्याण के लिये करता है। हम देख चुके हैं कि इसके लिये पहले आत्म - ज्ञान- , समत्व, निवर्यक्तिक ब्रह्मभाव का होना आवश्यक है और यह भी देख चुके हैं कि यही ज्ञान और कर्म के बीच, आध्यात्मिकता और सांसारिक कार्य के बीच , कालातीत आत्मा की अचल निष्क्रियता और प्रकृति की क्रियाशील शक्ति की लीला के बीच सामंजस्यसाधन का मार्ग है।
पर अब गीता उस कर्मयोगी के लिये जिसने अपने कर्म को ज्ञानयोग के साथ एक कर लिया है, एक और, इससे भी बड़ी चीज की आवश्यकता बतलाती है। अब उसे केवल ज्ञान और कर्म की ही मांग नहीं की जाती बल्कि भक्ति की भी - भगवान् की ओर सच्ची लगन , उनकी पूजा, उनसे मिलने की अंतरात्मा की उत्कंठा भी चाही जाती है। यह मांग अभी तक उतने स्पष्ट शब्दों में तो नहीं प्रकट की गयी थी, पर जब गुरू ने उसके योग को इस आवश्यक साधन की ओर फेरा था कि सब कर्मो को अपनी सत्ता के स्वामी श्रीभगवान् के लिये यज्ञरूप से करना होगा और इसकी परिणति इस बात में की थी कि सब कर्मो को केवल ब्रह्मापर्णण ही नहीं बल्कि ब्रह्मभाव से परे जाकर उन सत्ताधीश्वर को समर्पित करना होगा जो हमारे सब संकल्पों और शक्तियों के मूल कारण हैं, तभी शिष्य का मन भक्ति की इस मांग के लिये तैयार किया जा चुका था। वहां जो बात गुप्त रूप से अभिप्रेत थी वही अब वही अब सामने आ गयी है और इससे हम गीता के उद्देश्य को भी और अधिक पूर्णता के साथ समझ सकते हैं। अब परस्पर - आश्रित तीन वृत्तियां हमारे सामने हैं जो हमें हमारे प्राकृत भाव से छुड़ाकर भागवत और ब्रह्मभाव में आगे बढ़ा सकती हैं गीता कहती है। गीता कहती है, ‘‘ द्वन्द्वों के मोह से जो रागद्वेष से उत्पन्न हुआ करता है,


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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