गीता प्रबंध -अरविन्द पृ. 276

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गीता-प्रबंध: भाग-2 खंड-1: कर्म, भक्ति और ज्ञान का समन्वयव
3.परम ईश्वर

प्रत्येक जीव का स्वगत सत्य और आत्मतत्व जो स्वयं अपनी क्रिया के द्वारा ब्राह्म रूप में व्यक्त होता है , जो सबके अंदर मूलभूत भागवत प्रकृति है जो सब प्रकार के परिवर्तनों , विपर्ययों और पुनर्भवों के पीछे सदा बनी रहती है , वही स्वभाव है। सवभाव में जो कुछ है वह उसमें से विश्व- प्रकृति के रूप में छोड़ा जाता है ताकि विश्वप्रकृति पुरूषोत्तम की भीतरी आंख की देख - रेख में उससे जो कर सकती हो करे। इस सतत स्वभाव में से अर्थात् प्रत्येक संभूति की मूल प्रकृति और उसके मूल आत्मतत्व में से नानात्व का निर्माण करकेयह विश्वप्रकृति उसके द्वारा उस स्वभाव को अभिव्यक्त करने का प्रयास करती है। वह अपने ये सब परिवर्तन नाम और रूप, काल और देश तथा दिक् - काल के अंदर एक अवस्था से दूसरी अवस्था के उत्पन्न होने का जो क्रम है जिसे हम लोग ‘ निमित्त ’ कहते हैं, उस निमित्त के रूप में खोलकर प्रकट किया करती है।एक स्थिति से दूसरी स्थिति उत्पन्न करने का उत्पत्तिक्रम और निरंतर परिवर्तन ही कर्म है , प्रकृतिकर्म, उस प्रकृति की ऊर्जा है जो कर्मकन्नीं और सब क्रियाओं की ईश्वरी है। प्रथमतः यह स्वभाव का अपने सृष्टिकर्म के रूप में निकल पड़ना है, इसीको विसर्ग कहते हैं। यह सृष्टिकर्म भूतों को उत्पन्न करने वाला है- भूतकरः है और फिर ये भूत जो कुछ आंतर रूप से अथवा अन्य प्रकार से होते हैं उसका भी कारण है - भावकरः है। यह सब मिलकर काल के अंदर पदार्थ का सतत जनन या ‘ उद्भव ’ है जिसका मूल तत्व कर्म की सर्जनात्मक ऊर्जा है।
यह सारा क्षरभाव अर्थात् ‘ अधिभूत ’ प्रकृति की शक्तियों के सम्मिलन से निकल पड़ता है, यह अधिभूत ही जगत् है और जीव की चेतना का विषय है। इस सबमें जीव ही प्रकृतिस्थ भोक्ता और साक्षिभूत देवता है; बुद्धि मन और इन्द्रियों की जो दिव्य शक्तियां हैं जीव की चेतन सत्ता की जो शक्तियां हैं जिनके द्वारा यह प्रकति की क्रिया को प्रतिबिंबित करता है, इसके ‘ अधिदैव ’ अर्थात् अधिष्ठातृदेवता हैं। यह प्रकृतिस्थ जीव ही इस तरह क्षर पुरूष है , भगवान् का नित्य कर्म - स्वरूप ; यही जीव प्रकृति से लौटकर जब ब्रह्म में आ जाता है तब अक्षर पुरूष होता है , भगवान् का नित्य नैष्कम्र्य - स्वरूप । पर क्षर पुरूष के रूप और शरीर में परम पुरूष भगवान् ही निवास करते हैं। अक्षरभाव की अचल शांति और क्षरभाव के कर्म का आनंद दोनों ही भाव एक साथ अपने अंदर रखते हुए भगवान् पुरूषोत्तम मनुष्य के अंदर निवास करते हैं। वे हमसे दूर किसी परतर, परात्पर पद पर ही प्रतिष्ठित नहीं हैं , बल्कि यहां प्रत्येक प्राणी के शरीर में , मनुष्य के हृदय में और प्रकृति में भी मौजूद हैं। वहां वे प्रकृति के कर्मो को यज्ञरूप से ग्रहण करते और मानव जीव के सचेत होकर आत्मार्पण करने की प्रतीक्षा करते हैं ; परंतु हर हालत में , मनुष्य की अज्ञानावस्था और अहंकारिता में भी वे ही उसके स्वभाव के अधीश्वर और उसके सब कर्मो के प्रभु होते हैं, प्रकृति और कर्म का सारा विधान उन्हींकी अध्यक्षता में होता है। उन्हींसे निकलकर जीव प्रकृति की इस क्षर - क्रीड़ा में आया है और अक्षर आत्मसत्ता से होता हुआ उन्हींके परम धाम को प्राप्त होता है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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