महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 120 श्लोक 14-27

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विंशत्यधिकशततम (120) अध्‍याय: अनुशासन पर्व (दानधर्म पर्व)

महाभारत: अनुशासन पर्व: विंशत्यधिकशततम अध्याय: श्लोक 14-27 का हिन्दी अनुवाद

इस दान के द्वारा पवित्र हुई तुम्हारी तपस्या से मैं बहुत संतुष्ट हुआ हूँ। तुम्हारा बल पुध्य का ही बल है और तुम्हारा दर्शन भी पुण्य का ही दर्शन है। तुम्हारे शरीर से जो सदा पुध्य की ही सुगन्ध फैलती रहती है, इसे मैं इस दानरूप पुण्यकर्म के अनुष्ठान का फल मानता हूँ। तात ! दान करना तीर्थ-स्नान तथा वैदिक व्रत की पूर्ति से भी बढ़कर है। ब्रह्मन् ! जितने पवित्र कर्म हैं, उन सबमें दान ही सबसे बढ़कर पवित्र एवं कल्याणकारी है। यदि दान ही समस्त पवित्र वस्तुओं से श्रेष्ठ न होता तो वेद-शास्त्रों में उसकी इतनी प्रशंसा नहीं की जाती। तुम जिन-जिन वेदोक्त उत्तम कर्मों की यहाँ प्रशंसा करते हो, उन सबमें दान ही श्रेष्ठतर है, इस विषय में मुझे संशय नहीं है। दाताओं ने जो मार्ग बना दिया है, उसीसे मनीषी पुरुष चलते हैं। दान करने वाले प्राणदाता समझे जाते हैं। उन्हीं में धर्म प्रतिष्ठित है। जैसे वेदों कस स्वाध्याय, इन्द्रियों का संयम और सर्वस्व का त्याग उत्तम है, उसी प्रकार इस संसार में दान भी अत्यन्त उत्तम माना जाता है। तात ! महाबुद्धे ! तुमको इा दान के कारण उत्तम सुख की प्राप्ति होगी। बुद्धिमान मनुष्य दान करके उत्तरोत्तर सुख प्राप्त करता है। यह बात हम लोगों के सामने प्रत्यक्ष है। हमें निःसंदेह ऐसा ही समझना चाहिये। तुम जैसे श्रीसम्पन्न पुरुष जब धन पाते हैं, तब उससे दान, यज्ञ और सुख भोग करते हैं। महाप्रज्ञ ! किंतु जो लोग विषयसुखों में आसक्त हैं, वे सुख से ही महान् दुःख में पड़ते हैं और जात तपस्या आदि के द्वारा दुःख उठाते हैं, उन्हें दुःख से ही सुख की प्राप्ति होती देखी जाती है। सुख और दुख मनुष्य के स्वभाव के अनुसार नियत हैं। इस जगत् में मनीषी पुरुषों ने मनुष्य के तीन प्रकार के आचरण बतलाये हैं- पुण्यमय, पापमय तथा पुण्य-पाप दोनों से रहित। ब्रह्मनिष्ठ पुरुष कर्तापन के अभिमान से रहित होता है। अतः उसके किये हुए कर्म को न पुण्य माना जाता है न पाप। उसे अपने कर्मजनित पुण्य और पाप की प्राप्ति होती ही नहीं। जो यज्ञ, दान और तपस्या में प्रवीण रहते हैं, वे ही मनुष्य पुण्य कर्म करने वाले हैं तथा जो प्राणियों से द्र्रोह करते हैं, वे ही पापाचारी समझे जाते हैं। जो मनुष्य दूसरों के धन चुराते हैं, वे दुःख पाते और नरक में पडत्रते हैं। इस उपर्युक्त शुभाशुभ कर्मों से भिन्न जो साधारण चेष्टा है, वह न तो पुण्य है और न तो पाप है। महर्षे ! तुम आनन्दपूर्वक स्वधर्म-पालन में रत रहो, तुम्हारी निरन्तर उन्नति हो, तुम प्रसन्न रहो, दान दो और यज्ञ करो। विद्वान और तपस्वी तुम्हारा पराभाव नहीं कर सकेंगे।

इस प्रकार श्रीमहाभारत अनुशासनपर्व के अन्तर्गत दानधर्म पर्व में मैत्रेय की भिक्षा विषयक एक सौ बीसवाँ अध्याय पूरा हुआ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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