महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 145 भाग-21

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पञ्चचत्वारिंशदधिकशततम (145) अध्‍याय: अनुशासन पर्व (दानधर्म पर्व)

उमा-महेश्वर-संवाद कितने ही महत्वपूर्ण विषयों का विवेचन

महाभारत: अनुशासन पर्व: पञ्चचत्वारिंशदधिकशततम अध्याय: भाग-21 का हिन्दी अनुवाद

उमा ने पूछा- भगवन्! देवदेवेश्वर! मनुष्यलोक में बहुत सी युवती स्त्रियाँ समस्त कल्याणों से रहित विधवा दिखायी देती हैं। किस कर्मविपाक से ऐसा होता है? यह मुझे बताइये। श्रीमहेश्वर ने कहा- देवि! जो स्त्रियाँ पहले जन्म में बुद्धि में मोह छा जाने के कारण पति के कुटुम्ब का व्यर्थ नाश करती है, विष देती, आग लगाती और पतियों के प्रति अत्यन्त निर्दय होती हैं, अपने पतियों से द्वेष रखने के कारण दूसरी स्त्रियों के पतियों से सम्बन्ध स्थापित कर लेती हैं, ऐसे आचरण वाली नारियाँ यमलोक में भली-भाँति दण्डित हो चिरकाल तक नरक में पड़ी रहती हैं। फिर किसी तरह मनुष्य-योनिक पाकर वे भोगरहित विधवा हो जाती है। उमा ने पूछा-भगवन्! देवदेवेश्वर! मनुष्यों में ही कोई दासभाव को प्राप्त दिखयी देते हैं, जो सब प्रकार के कर्मों में सर्वथा संलग्न रहते हैं। वे पीटे जाते हैं, डाँट-फटकार सहते हैं और सब तरह से सताये जाते हैं। किस कर्मविपाक से ऐसा होता है? यह मुझे बताइये। श्रीमहेश्वर ने कहा- कल्याणि! वह कारण मैं बताता हूँ, सुनो। देवि! जो मनुष्य पहले दूसरों के धन का अपहरण करते हैं, जो क्रूरतावश किसी के ऐसे धन को हड़प लेते हैं, जिसके कारण उसके ऊपर ऋण बढ़ जाता है, जो रखने के लिये दिये हुए या धरोहर के तौर पर रखे हुए पराये धन को दबा लेते हैं अथवा प्रमादवश दूसरों के भूले या खोये हुए धन को हर लेते हैं, दूसरों को वध-बन्धन और क्लेश में डालकर उनसे अपनी दासता कराते हैं, देवि! ऐसे लोग मृत्यु को प्राप्त हो यमदण्ड से दण्डित होकर जब किसी तरह मनुष्य-योनि में जन्म लेते हैं, तब जन्म से ही दास होते हैं और उन्हीं की सेवा करते हैं, जिनका धन उन्होंने पूर्वजन्म में हर लिया है। जब तक उनके पाप का भोग समाप्त नहीं हो जाता, तब तक वे दासकर्म ही करते रहते हैं, यही शास्त्र का निश्चय है। पराये धन का अपहरण करने वाले दूसरे लोग पशु होकर भी धनी की सेवा करते हैं। ऐसा करने से उनका पूर्वापराधजनित कर्म क्षीण होता है। सब प्रकार से उस धन के स्वामी को प्रसन्न कर लेना ही उसके ऋण से छुटकारा पाने का उपाय है, किन्तु जो यथावत् रूप से उस ऋण से छूटना नहीं चाहता, उसे पुनर्जन्म लेकर उसकी सेवा करनी पड़ती है। जो उस बन्धन से छूटना चाहता हो, वह यथोचित रूप से सारे काम करता और परिश्रम को सर्वथा सहता हुआ, स्वामी को प्रसन्न करने की आकांक्षा रखे। जिसे स्वामी प्रसन्नतापूर्वक दासता के बन्धन से मुक्त कर देता है, वह मुक्त एवं शुद्ध हो जाता है। स्वामी को भी चाहिये कि वह ऐसे सेवकों को सदा संतुष्ट रखे उनसे यथायोग्य कार्य कराये और विशेष कारण से ही उन्हें दण्ड दे। जो वृद्धों, बालकों और दुर्बल मनुष्यों का पालन करता है, वह धर्म का भागी होता है। देवि! यह विषय तुम्हें बताया गया। अब और क्या सुनना चाहती हो। उमा ने पूछा- भगवन्! इस भूतल पर राजा लोग जिन मनुष्यों को दण्ड दे देते हैं, अब उस दण्ड से ही उनके पापों का नाश हो जाता है या नहीं? यह मेरा संदेह है। आप इसका निवारण करें। श्रीमहेश्वर ने कहा- देवि! तुम्हारा संदेह ठीक है, तुम एकाग्रचित्त होकर इसका यथार्थ उत्तर सुनो।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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