महाभारत वन पर्व अध्याय 38 श्लोक 21-39

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एकोनचत्‍वारिंश (39) अध्‍याय: वन पर्व (कैरात पर्व)

महाभारत: वन पर्व: एकोनचत्‍वारिंश अध्याय: श्लोक 21-39 का हिन्दी अनुवाद

‘यह मृगयाका धर्म नहीं है, जो आज आपने मेरे साथ किया है। आप पर्वत के निवासी हैं तो भी उस समय अपराध के कारण मैं आपको जीवन से वंचित कर दूंगा’। पाण्डुनन्दन अर्जुन के इस प्रकार कहने पर किरातवेषधारी भगवान् शंकर जोर-जोर से हंस पडे़ और सव्यसाची पाण्डव से मधुर वाणी में बोले- ‘वीर ! तुम हमारे लिये वन के निकट आने के कारण भय न करो। हम तो वनवासी हैं, अतः हमारे लिये इस भूमि पर विचरना सदा उचित ही है। ‘किंतु तुमने वहां का दुष्कर निवास कैसे पंसद किया ? तमोधन ! हम तो अनेक प्रकार के जीव-जन्तुओं से भरे हुए इस वन में सदा ही रहते हैं। ‘तुम्हारे अंगों की प्रभा प्रज्वलित अग्नि के समान जान पड़ती है। तुम सुकुमार हो और सुख भोगने के योग्य प्रतीत होते हो। इस निर्जन प्रदेश में किसलिये अकेले विचर रहे हो ?’ अर्जुन ने कहा-मैं गाण्डीव धनुष और अग्नि के समान तेजस्वी बाणों का आश्रय लेकर इस महान् वन में द्वितीय कातिकेय की भांति (निर्भय) निवास करता हूं। यह प्राणी हिंसक पशु का रूप धारण करके मुझे ही मारे के लिये यहां आया था, अतः इस भयंकर राक्षस को मैंने मार गिराया है। किरातरूपधारी शिव बोले-मैंने अपने धनुषद्वारा छोड़े हुए बाणों से पहले ही इसे घायल कर दिया था। मेरे ही बाणों की चोट खाकर यह सदा के लिये सो रहा है और यमलोक में पहुंच गया। मैंने ही पहले इसे अपने बाणों का निशाना बनाया, अतः तुमसे पहले इसपर मेरा अधिकार स्थापित हो चुका था। मेरे ही तीव्र प्रहार से इस दानको अपने प्राणों से हाथ धोना पड़ा है। मन्दबुद्धे ! तुम अपने बल के धमंड के आकर अपने दोष दूसरे पर नहीं मढ़ सकते। तुम्हें अपनी शक्तिपर बड़ा गर्व हैं। अतः अब तुम मेरे हाथ से जीवित नहीं बच सकते। धैर्यपूर्वक सामने खडे़ रहो, मैं वज्र के समान भयानक बाण छोडूंगा। तुम भी अपनी पूरी शक्ति लगाकर मुझे जीतने का प्रयास करो। मेरे ऊपर अपने बाण छोड़ो। किरात की वह बात सुनकर उस समय अर्जुन का बड़ा क्रोध हुआ। उन्होंने बाणों से उसपर प्रहार आरम्भ किया।।तब किरात ने प्रसन्न चित्त से अर्जुन के छोड़े हुए सभी बाणों को पकड़ लिया और कहा-‘ओर मूर्ख ! और बाण मार और बाण मार, इन मर्मभेदी नाराचों का प्रहार कर’। उसके ऐसा कहने पर अर्जुन ने सहसा बाणों की झड़ी लगा दी। तदनन्तर वे दोनों क्रोध में भरकर बारंबार सर्पाकार बाणोंद्वारा एक दूसरे को घायल करने लगे। उस समय उन दोनों की बड़ी शोभा होने लगी। तत्पश्चात् अर्जुन ने किरात पर बाणों की वर्षा प्रारम्भ की; परन्तु भगवान् शंकर ने प्रसन्नचित्त से उन सब बाणों को ग्रहण कर लिया। पिनाकधारी शिव दो ही घड़ी में सारी बाणवर्षा को अपने में लीन करके पर्वत की भांति अविचल भाव से खडे़ रहे। उसके शरीर पर तनिक भी चोट या क्षति नहीं पहुंची थी। अपनी की हुई सारी बाण वर्षा व्यर्थ किये हुए देख धनंजय को बड़ा आश्चर्य हुआ वह किरात को साधुवाद देने लगे और बोले- ‘अहो ! हिमालय के शिखर पर निवास करनेवाले इस किरात के अंग तो बड़े सुकुमार हैं, तो भी यह गाण्डीव धनुष के छूटे हुए बाणों को ग्रहण कर लेता है और तनिक भी व्याकुल नहीं होता।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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