महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 222 भाग 5

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द्वाविंशत्‍यधिकद्विशततम (222) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)

महाभारत: शान्ति पर्व: द्वाविंशत्‍यधिकद्विशततम अध्याय: भाग 5 का हिन्दी अनुवाद

सब तरह के भाव और अभाव स्‍वभाव से ही आते-जाते रहते हैं । उसके लिये पुरूष का कोई प्रयत्‍न नहीं होता।

पुरूष का प्रयत्‍न न होने से कोई पुरूष कर्ता नहीं हो सकता; परंतु स्‍वयं कभी न करते हुए भी उसे इस जगत् में कर्तापन का अभिमान हो जाता है । जो आत्‍मा को शुभ या अशुभ कर्मो का कर्ता मानता है, उसकी बुद्धि दोष से युक्‍त और तत्‍वज्ञान से रहित है ऐसी मेरी मान्‍यता है । इन्‍द्र ! यदि पुरूष ही कर्ता होता हो वह अपने कल्‍याण के लिये जो कुछ भी करता, उसके भी सारे कार्य अवश्‍य सिद्ध होते । उसे अपने प्रयत्‍न में कभी पराभव नहीं प्राप्‍त होता । परंतु देखा यह जाता है कि इष्‍टसिद्धि के लिये प्रयत्‍न करनेवालों को अनिष्‍ट की भी प्राप्ति होती है और इष्‍ट की सिद्धि से वे वंचित रह जाते है; अत: पुरूषार्थ की प्रधानता कहॉ रही ? । कितने ही प्राणियों को बिना किसी प्रयत्‍न के ही हमलोग अनिष्‍ट की प्राप्ति और इष्‍ट का निवारण होते देखते हैं । यह बात स्‍वभाव से ही होती है ।कितने ही सुन्‍दर और अत्‍यन्‍त बुद्धिमान् पुरूष भी कुरूप और अल्‍पबुद्धि मनुष्‍यों से धन पाने की आशा करते देखे जाते हैं ।
जब शुभ और अशुभ सभी प्रकार के गुण स्‍वभाव की ही प्रेरणा से प्राप्‍त होते है, तब किसी को भी उन पर अभिमान करने का क्‍या कारण है ? मेरी तो यह निश्चित धारणा है कि स्‍वभावसे ही सब कुछ प्राप्‍त होता है । मेरी आत्‍मनिष्‍ठ बुद्धि भी इसके विपरीत विचार नहीं रखती । यहॉ पर जो शुभ और अशुभ फल की प्राप्ति होती है, उसमें लोग कर्मको ही कारण मानते हैं; अत: मैं तुमसे कर्म के विषय का ही पूर्णतया वर्णन करता हॅू, सूनो । जैसे कोई कौआ कहीं गिरे हुए भात को खाते समय कॉव-कॉव करके अन्‍य काकों को यह जता देता है कि यहॉ अन्‍न है, उसी प्रकार समस्‍त कर्म अपने स्‍वभाव को ही सूचित करनेवाले हैं । जो विकारों (कार्यो) को ही जानता है, उनकी परम प्रकृति (स्‍वभाव) को नहीं जानता, उसी को अविवेक के कारण मोह या अभिमान होता है । जो इस बात को ठीक-ठीक समझता है, उसे मोह नहीं होता। सभी भाव स्‍वभाव से ही उत्‍पन्‍न होते हैं । इस बात को जो निश्चितरूप से जान लेता है, उसका दर्प या अभिमान क्‍या बिगाड़ सकता है ? इन्‍द्र ! मैं धर्म की पूरी-पूरी विधि तथा संपूर्ण भूतों की अनित्‍यता को जानता हॅू । इसलिये ‘यह सब नाशवान् है’ ऐसा समझकर किसी के लिये शोक नहीं करता । ममता, अहंकार तथा कामनाओं से शून्‍य और सब प्रकार के बन्‍धनों से रहित हो आत्‍मनिष्‍ठ एवं अंसग रहकर मै प्राणियों की उत्‍पत्ति और विनाश को सदा देखता रहता हॅू। इन्‍द्र ! मैं शुद्ध बुद्धि तथा मन और इन्द्रियों को अपने अधीन करके स्थित हॅू । मैं तृष्‍णा और कामना से रहित हॅू और सदा अविनाशी आत्‍मा पर ही दृष्टि रखता हॅू, इसलिये मुझे कभी कष्‍ट नहीं होता।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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