श्रीमद्भागवत महापुराण तृतीय स्कन्ध अध्याय 12 श्लोक 1-20

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तृतीय स्कन्ध: द्वादश अध्यायः (12)

श्रीमद्भागवत महापुराण: तृतीय स्कन्ध: द्वादश अध्यायः श्लोक 1-20 का हिन्दी अनुवाद

सृष्टि का विस्तार

श्रीमैत्रेयजी ने कहा—विदुरजी! यहाँ तक मैंने आपको भगवान् की काल रूप महिमा सुनायी। अब जिस प्रकार ब्रम्हाजी ने जगत् की रचना की, वह सुनिये। सबसे पहले उन्होंने अज्ञान की पाँच वृत्तियाँ—तम (अविद्या), मोह (अस्मिता), महामोह (राग), तामिस्त्र (द्वेष) और अन्ध तामिस्त्र (अभिनिवेश) रचीं। किन्तु इस अत्यन्त पापमयी सृष्टि को देखकर उन्हें प्रसन्नता नहीं हुई। तब उन्होंने अपने मन को भगवान् के ध्यान से पवित्र कर उससे दूसरी सृष्टि रची। इस बार ब्रम्हाजी ने सनक, सनन्दन, सनातन और सनत्कुमार—ये चार निवृत्ति परायण उर्ध्वरेता मुनि उत्पन्न कि। अपने इन पुत्रों से ब्रम्हाजी ने कहा, ‘पुत्रों! तुम लोग सृष्टि उत्पन्न करो।’ किंतु वे जन्म से ही मोक्ष मार्ग—(निवृत्ति मार्ग-) का अनुसरण करने वाले और भगवान् के ध्यान में तत्पर थे, इसलिये उन्होने ऐसा करना नहीं चाहा। जब ब्रम्हाजी ने देखा कि मेरी आज्ञा न मानकर ये मेरे पुत्र मेरा तिरस्कार कर रहे हैं, तब उन्हें असह्य क्रोध हुआ। उन्होंने उसे रोकने का प्रयत्न किया। किंतु बुद्धि-द्वारा उनके बहुत रोकने पर भी वह क्रोध तत्काल प्रजापति की भौहों के बीच में से एक नील लोहित (नीचे और लाल रंग के) बालक के रूप में प्रकट हो गया। वे देवताओं के पूर्वज भगवान् भव (रुद्र) रो-रोकर कहने लगे—‘जगत्पिता! विधाता! मेरे नाम और रहने के स्थान बतलाइये’। तब कमलयोनि भगवान् ब्रम्हा ने उस बालक की प्रार्थना पूर्ण करने के लिये मधुर वाणी में कहा, ‘रोओ मत, मैं अभी तुम्हारी इच्छा पूरी करता हूँ। देवश्रेष्ठ! तुम जन्म लेते ही बालक के समान फूट-फुटकर रोने लगे, इसलिये प्रजा तुम्हें ‘रूद्र’ नाम से पुकारेगी। तुम्हारे रहने के लिये मैंने पहले से ही ह्रदय, इन्द्रिय, प्राण, आकाश, वायु, अग्नि, जल, पृथ्वी, सूर्य, चन्द्रमा और तप—ये स्थान रच दिये हैं। तुम्हारे नाम मन्यु, मनु, महिनस, महान्, शिव, ऋतध्वज, उग्ररेता, भव, काल, वामदेव और धृतव्रत होंगे। तथा धी, वृत्ति, उशना, उमा, नियुत्, सर्पि, इला, अम्बिका, इरावती, सुधा और दीक्षा—ये ग्यारह रुद्राणियाँ तुम्हारी पत्नियाँ होंगी। तुम उपर्युक्त नाम, स्थान और स्त्रियों को स्वीकार करो और इनके द्वारा बहुत-सी प्रजा उत्पन्न करो; क्योंकि तुम प्रजापति हो’। लोकपिता ब्रम्हाजी से ऐसी आज्ञा पाकर भगवान् नील लोहित बल, आकार और स्वभाव में अपने ही जैसी प्रजा उत्पन्न करने लगे। भगवान् रूद्र के द्वारा उत्पन्न हुए उन रुद्रों को असंख्य यूथ बनाकर सारे संसार को भक्षण करते देख ब्रम्हाजी को बड़ी शंका हुई।

तब उन्होंने रूद्र से कहा—सुरश्रेष्ठ! तुम्हारी प्रजा तो अपनी भयंकर दृष्टि से मुझे और सारी दिशाओं को भस्म किये डालती है; अतः ऐसी सृष्टि न रचो। तुम्हारा कल्याण हो, अब तुम समस्त प्राणियों को सुख देने के लिये तप करो। फिर उस तप के प्रभाव से ही तुम पूर्ववत् इस संसार की रचना करना। पुरुष तप के द्वारा ही इन्द्रियातीत, सर्वान्तर्यामी, ज्योतिःस्वरुप श्रीहरि को सुगमता से प्राप्त कर सकता है’।

श्रीमैत्रेयजी कहते हैं—जब ब्रम्हाजी ने ऐसी आज्ञा दी, तब रूद्र ने ‘बहुत अच्छा’ कहकर उसे शिरोधार्य किया और फिर उनकी अनुमति लेकर तथा उनकी परिक्रमा करके वे तपस्या करने के लिये वन में चले गये।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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