श्रीमद्भागवत महापुराण तृतीय स्कन्ध अध्याय 2 श्लोक 14-25

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तृतीय स्कन्ध: द्वितीय अध्यायः (2)

श्रीमद्भागवत महापुराण: तृतीय स्कन्ध: द्वितीय अध्यायः श्लोक 14-25 का हिन्दी अनुवाद

उनके प्रेमपूर्ण हास्य-विनोद और लीलामय चितवन से सम्मानित होने पर व्रजबालाओं की आँखें उन्हीं की ओर लग जाती थीं और उनका चित्त भी ऐसा तल्लीन हो जाता था कि वे घर के काम-धंधों को अधुरा छोड़कर जड़ पुतलियों की तरह खड़ी रह जाती थीं। चराचर जगत् और प्रकृति के स्वामी भगवान् ने जब अपने शान्तरूप महात्माओं को अपने ही घोर रूप असुरों से सताये जाते देखा, तब वे ही करुणा भाव से द्रवित हो गये और अजन्मा होने पर भी अपने अंश बलरामजी के साथ काष्ठ में अग्नि के समान प्रकट हुए। अजन्मा होकर भी वसुदेवजी के यहाँ जन्म लेने की लीला करना, सबको अभय देने वाले होने पर भी मानो कंस के भय से व्रज में जाकर छिप रहना और अनन्त पराक्रमी होने पर भी कालयवन के सामने मथुरापुरी को छोड़कर भाग जाना-भगवान् की ये लीलाएँ याद आ-आकर मुझे बेचैन कर डालती हैं। उन्होंने जो देवकी-वसुदेव की चरण-वन्दना करके कहा था—‘पिताजी, माताजी! कंस का बड़ा भय रहने के कारण मुझसे आपकी कोई सेवा न बन सकी, आप मेरे इस अपराध पर ध्यान न देकर मुझ पर प्रसन्न हों।’ श्रीकृष्ण की ये बातें जब याद आती हैं, तब आज भी मेरा चित्त अत्यन्त व्यथित हो जाता है। जिन्होंने कालरूप अपने भृकुटीविलास से ही पृथ्वी का सारा भार उतार दिया था, उन श्रीकृष्ण के पादपद्मपराग का सेवन करने वाला ऐसा कौन पुरुष है, जो उसे भूल सके। आप लोगों ने राजसूय यज्ञ में प्रत्यक्ष ही देखा था कि श्रीकृष्ण से द्वेष करने वाले शिशुपाल को वह सिद्धि मिल गयी, जिसकी बड़े-बड़े योगी भलीभाँति योग-साधना करके स्पृहा करते रहते हैं। उनका विरह भला कौन सह सकता है। शिशुपाल के ही समान महाभारत-युद्ध में जिन दूसरे योद्धाओं ने अपनी आँखों से भगवान् श्रीकृष्ण के नयनाभिराम मुखकमल का मकरन्द पान करते हुए अर्जुन के बाणों से बिंधकर प्राण त्याग किया, वे पवित्र होकर सब-के-सब भगवान् के परमधाम को प्राप्त हो गये। स्वयं भगवान् श्रीकृष्ण तीनों लोकों के अधीश्वर हैं। उनके समान भी कोई नहीं है, उनसे बढ़कर तो कौन होगा। वे अपने स्वतःसिद्ध ऐश्वर्य से ही सर्वदा पूर्णकाम हैं। इन्द्रादि असंख्य लोकपालगण नाना प्रकार की भेंटे ला-लाकर अपने-अपने मुकुटों के अग्रभाग से उनके चरण रखने की चौकी को प्रणाम किया करते हैं। विदुरजी! वे ही भगवान् श्रीकृष्ण राजसिंहासन पर बैठे हुए उग्रसेन के सामने खड़े होकर निवेदन करते थे, ‘देव! हमारी प्रार्थना सुनिये।’ उनके इस सेवा-भाव की याद आते ही हम-जैसे सेवकों का चित्त अत्यन्त व्यथित हो जाता है। पापिनी पूतना ने अपने स्तनों में हलाहल विष लगाकर श्रीकृष्ण को मार डालने की नियत से उन्हें दूध पिलाया था; उसको भी भगवान् ने वह परम गति दी, जो धाय को मिलनी चाहिये। उन भगवान् श्रीकृष्ण के अतिरिक्त और कौन दयालु है, जिसकी शरण ग्रहण करें। मैं असुरों को भी भगवान् का भक्त समझता हूँ; क्योंकि वैर भाव जनित क्रोध के कारण उनका चित्त सदा श्रीकृष्ण में ही लगा रहता था और उन्हें रणभूमि में सुदर्शन चक्रधारी भगवान् को कंधे पर चढ़ाकर झपटते हुए गरुड़जी के दर्शन हुआ करते थे। ब्रम्हाजी की प्रार्थना से पृथ्वी का भार उतारकर उसे सुखी करने के लिये कंस के कारागार में वसुदेव-देवकी के यहाँ भगवान् के अवतार लिया था।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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