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गोवर्धनाचार्य जयदेव के गीतगोविंद में गोवर्धनाचार्य को रससिद्ध कवि कहा गया है। जयदेव बल्लालसेन के पुत्र लक्ष्मणसेन के समय बंगाल के एक सुप्रसिद्ध भक्त कवि हो गए हैं। लक्ष्मणसेन की सभा में पांच रत्न थे, ऐसी प्रसिद्धि सर्वविदित है। उन पांच रत्नों में गोवर्धनाचार्य का नाम भी गिना जाता है। अत: गोवर्धनाचार्य जयदेव के समकालीन कवि रहे होंगे और चूँकि जयदेव गोवर्धन का उल्लेख सुप्रसिद्ध कवि के रूप में करते हैं अत: गोवर्धन जयदेव के पूर्व की ख्याति प्राप्त कर चुके होंगे। लक्ष्मणसेन का काल बारहवीं सदी का उत्तरार्ध माना जाता है और यही गोवर्धन का भी काल ठहरता है। गोवर्धन बंगाली कवि थे-उनका जन्म या निवासस्थान बंगाल ही रहा होगा इसमें संदेह की गुंजाइश कम है। परंतु इसके अतिरिक्त गोवर्धन के बारे में और कोई जानकारी हमें नहीं है।
 
गोवर्धनाचार्य जयदेव के गीतगोविंद में गोवर्धनाचार्य को रससिद्ध कवि कहा गया है। जयदेव बल्लालसेन के पुत्र लक्ष्मणसेन के समय बंगाल के एक सुप्रसिद्ध भक्त कवि हो गए हैं। लक्ष्मणसेन की सभा में पांच रत्न थे, ऐसी प्रसिद्धि सर्वविदित है। उन पांच रत्नों में गोवर्धनाचार्य का नाम भी गिना जाता है। अत: गोवर्धनाचार्य जयदेव के समकालीन कवि रहे होंगे और चूँकि जयदेव गोवर्धन का उल्लेख सुप्रसिद्ध कवि के रूप में करते हैं अत: गोवर्धन जयदेव के पूर्व की ख्याति प्राप्त कर चुके होंगे। लक्ष्मणसेन का काल बारहवीं सदी का उत्तरार्ध माना जाता है और यही गोवर्धन का भी काल ठहरता है। गोवर्धन बंगाली कवि थे-उनका जन्म या निवासस्थान बंगाल ही रहा होगा इसमें संदेह की गुंजाइश कम है। परंतु इसके अतिरिक्त गोवर्धन के बारे में और कोई जानकारी हमें नहीं है।
  
आर्यासप्तशती नामक मुक्तक कविताओं का संग्रह गोवर्धन की कृति मानी जाती है। इसमें ७०० आर्याएँ संग्रहीत होनी चाहिए परंतु विभिन्न संस्करणों में आर्याओं की संख्या ७6० तक पहुंच गई है। अत: यह कहना कठिन है कि उपलब्ध आर्यासप्तशती क्षेपकों से रहित है। मध्ययुग में यह संग्रह काफी लोकप्रिय था और उसकी आर्याओं की छाया लेकर बहुत सी फुटकल रचनाएँ लिखी गईं। बिहारी कवि की 'सतसई' इस संग्रह से बहुत प्रभावित है। आर्यासप्तशती में ही यह उल्लेख मिलता है कि जो शृंगाररस की धारा प्राकृत में ही उपलब्ध थी उसको संस्कृत मे अवतरित करने के लिये यह प्रयास किया गया है। यहाँ संकेत हाल की 'गाथासप्तशती' की ओर है। हाल ने प्राकृत गाथाओं में शृंगारपरक रचनाएँ निबद्ध की है। गोवर्धन ने इन्ही गाथाओं को अपनी आर्याओं का आदर्श बनाया। प्राकृत का गाथाछंद संस्कृत के आर्याछंदों के अधिक निकट है अत: गोवर्धन ने आर्याछंद को ही रचना के लिये चुना। केवल छंद में ही नहीं अपितु भावचित्रण में भी गोवर्धन हाल का बहुधा अनुकरण करते हैं। परंतु इससे यह नहीं समझना चाहिए कि आर्यासप्तशती गाथासप्तशती का संस्कृत अनुवाद मात्र है। जब भी गोवर्धन किसी गाथा के भाव को व्यक्त करना चाहते हैं, वे उसमें अपनी मौलिक प्रतिभा के प्रदर्शन से नहीं चूकते। अत: आर्यासप्शती गाथासप्तशती से स्थूलरूप में प्रभावित होते हुए भी अपने आपमें मैलिक है।
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आर्यासप्तशती नामक मुक्तक कविताओं का संग्रह गोवर्धन की कृति मानी जाती है। इसमें 700 आर्याएँ संग्रहीत होनी चाहिए परंतु विभिन्न संस्करणों में आर्याओं की संख्या 760 तक पहुंच गई है। अत: यह कहना कठिन है कि उपलब्ध आर्यासप्तशती क्षेपकों से रहित है। मध्ययुग में यह संग्रह काफी लोकप्रिय था और उसकी आर्याओं की छाया लेकर बहुत सी फुटकल रचनाएँ लिखी गईं। बिहारी कवि की 'सतसई' इस संग्रह से बहुत प्रभावित है। आर्यासप्तशती में ही यह उल्लेख मिलता है कि जो शृंगाररस की धारा प्राकृत में ही उपलब्ध थी उसको संस्कृत मे अवतरित करने के लिये यह प्रयास किया गया है। यहाँ संकेत हाल की 'गाथासप्तशती' की ओर है। हाल ने प्राकृत गाथाओं में शृंगारपरक रचनाएँ निबद्ध की है। गोवर्धन ने इन्ही गाथाओं को अपनी आर्याओं का आदर्श बनाया। प्राकृत का गाथाछंद संस्कृत के आर्याछंदों के अधिक निकट है अत: गोवर्धन ने आर्याछंद को ही रचना के लिये चुना। केवल छंद में ही नहीं अपितु भावचित्रण में भी गोवर्धन हाल का बहुधा अनुकरण करते हैं। परंतु इससे यह नहीं समझना चाहिए कि आर्यासप्तशती गाथासप्तशती का संस्कृत अनुवाद मात्र है। जब भी गोवर्धन किसी गाथा के भाव को व्यक्त करना चाहते हैं, वे उसमें अपनी मौलिक प्रतिभा के प्रदर्शन से नहीं चूकते। अत: आर्यासप्शती गाथासप्तशती से स्थूलरूप में प्रभावित होते हुए भी अपने आपमें मैलिक है।
  
 
शृंगार की अभिव्यक्ति के लिये गोवर्धन को आचार्य माना जाता है। इनको रचनाओं में शृंगार का उद्दाम रूप खुलकर आया है। कहीं कहीं तो नग्न चित्रण अपनी नग्नता के कारण रसाभास उत्पन्न कर देते हैं। एक जगह तो गोवर्धन ने प्रेम में शव के चुंबन की भी बात कही है। परंतु अभिव्यक्ति की तीव्रता, अलंकारसंयोजना तथा व्यंजना की गंभीरता के कारण गोवर्धनाचार्य की गणना सत्कवियों में की जा सकती है।
 
शृंगार की अभिव्यक्ति के लिये गोवर्धन को आचार्य माना जाता है। इनको रचनाओं में शृंगार का उद्दाम रूप खुलकर आया है। कहीं कहीं तो नग्न चित्रण अपनी नग्नता के कारण रसाभास उत्पन्न कर देते हैं। एक जगह तो गोवर्धन ने प्रेम में शव के चुंबन की भी बात कही है। परंतु अभिव्यक्ति की तीव्रता, अलंकारसंयोजना तथा व्यंजना की गंभीरता के कारण गोवर्धनाचार्य की गणना सत्कवियों में की जा सकती है।

११:२०, २६ फ़रवरी २०१४ के समय का अवतरण

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लेख सूचना
गोवर्धनाचार्य
पुस्तक नाम हिन्दी विश्वकोश खण्ड 4
पृष्ठ संख्या 40
भाषा हिन्दी देवनागरी
लेखक ए. बी. कीथ
संपादक फूलदेव सहाय वर्मा
प्रकाशक नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी
मुद्रक नागरी मुद्रण वाराणसी
संस्करण सन्‌ 1964 ईसवी
स्रोत ए. बी. कीथ : संस्कृत साहित्य का इतिहास; आचार्य रामचंद्र शुक्ल : हिंदीसाहित्य का इतिहास।
उपलब्ध भारतडिस्कवरी पुस्तकालय
कॉपीराइट सूचना नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी
लेख सम्पादक रामचंद्र पांडेय


गोवर्धनाचार्य जयदेव के गीतगोविंद में गोवर्धनाचार्य को रससिद्ध कवि कहा गया है। जयदेव बल्लालसेन के पुत्र लक्ष्मणसेन के समय बंगाल के एक सुप्रसिद्ध भक्त कवि हो गए हैं। लक्ष्मणसेन की सभा में पांच रत्न थे, ऐसी प्रसिद्धि सर्वविदित है। उन पांच रत्नों में गोवर्धनाचार्य का नाम भी गिना जाता है। अत: गोवर्धनाचार्य जयदेव के समकालीन कवि रहे होंगे और चूँकि जयदेव गोवर्धन का उल्लेख सुप्रसिद्ध कवि के रूप में करते हैं अत: गोवर्धन जयदेव के पूर्व की ख्याति प्राप्त कर चुके होंगे। लक्ष्मणसेन का काल बारहवीं सदी का उत्तरार्ध माना जाता है और यही गोवर्धन का भी काल ठहरता है। गोवर्धन बंगाली कवि थे-उनका जन्म या निवासस्थान बंगाल ही रहा होगा इसमें संदेह की गुंजाइश कम है। परंतु इसके अतिरिक्त गोवर्धन के बारे में और कोई जानकारी हमें नहीं है।

आर्यासप्तशती नामक मुक्तक कविताओं का संग्रह गोवर्धन की कृति मानी जाती है। इसमें 700 आर्याएँ संग्रहीत होनी चाहिए परंतु विभिन्न संस्करणों में आर्याओं की संख्या 760 तक पहुंच गई है। अत: यह कहना कठिन है कि उपलब्ध आर्यासप्तशती क्षेपकों से रहित है। मध्ययुग में यह संग्रह काफी लोकप्रिय था और उसकी आर्याओं की छाया लेकर बहुत सी फुटकल रचनाएँ लिखी गईं। बिहारी कवि की 'सतसई' इस संग्रह से बहुत प्रभावित है। आर्यासप्तशती में ही यह उल्लेख मिलता है कि जो शृंगाररस की धारा प्राकृत में ही उपलब्ध थी उसको संस्कृत मे अवतरित करने के लिये यह प्रयास किया गया है। यहाँ संकेत हाल की 'गाथासप्तशती' की ओर है। हाल ने प्राकृत गाथाओं में शृंगारपरक रचनाएँ निबद्ध की है। गोवर्धन ने इन्ही गाथाओं को अपनी आर्याओं का आदर्श बनाया। प्राकृत का गाथाछंद संस्कृत के आर्याछंदों के अधिक निकट है अत: गोवर्धन ने आर्याछंद को ही रचना के लिये चुना। केवल छंद में ही नहीं अपितु भावचित्रण में भी गोवर्धन हाल का बहुधा अनुकरण करते हैं। परंतु इससे यह नहीं समझना चाहिए कि आर्यासप्तशती गाथासप्तशती का संस्कृत अनुवाद मात्र है। जब भी गोवर्धन किसी गाथा के भाव को व्यक्त करना चाहते हैं, वे उसमें अपनी मौलिक प्रतिभा के प्रदर्शन से नहीं चूकते। अत: आर्यासप्शती गाथासप्तशती से स्थूलरूप में प्रभावित होते हुए भी अपने आपमें मैलिक है।

शृंगार की अभिव्यक्ति के लिये गोवर्धन को आचार्य माना जाता है। इनको रचनाओं में शृंगार का उद्दाम रूप खुलकर आया है। कहीं कहीं तो नग्न चित्रण अपनी नग्नता के कारण रसाभास उत्पन्न कर देते हैं। एक जगह तो गोवर्धन ने प्रेम में शव के चुंबन की भी बात कही है। परंतु अभिव्यक्ति की तीव्रता, अलंकारसंयोजना तथा व्यंजना की गंभीरता के कारण गोवर्धनाचार्य की गणना सत्कवियों में की जा सकती है।



टीका टिप्पणी और संदर्भ