"महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 17 श्लोक 40-51": अवतरणों में अंतर

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207 विश्वक्सेनः- दैत्योंकी सेनाको सब ओर भगा देनेवाले, 208 हरिः- आपतियोंको हर लेनेवाले, 209 यज्ञः- यज्ञरूप, 210 सयुगापीडवाहनः- युद्धमें पीड़ारहित वाहनवाले, 211 तीक्ष्णतापः- दुःसह तापरूप सूर्य, 212 हर्यष्वः- हरे रंगके घोड़ोसे युक्त, 213 सहायः- जीवमात्रके सखा, 214 कर्मकालवित्- कर्मोके कालको ठीक-ठीक जाननेवाले। 215 विष्णुप्रसादितः- भगवान् विष्णुने जिन्हें आराधना करके प्रसन्न किया था वे शिव, 216 यज्ञः- विष्णुस्वरूप, यज्ञो वै विष्णुः, 217 समुद्रः- महासागररूप, 218 वडवामुखः- समुद्रमें स्थित बड़वानलरूप, 219 हुताशनसहायः- अग्निके सखा वायुरूप, 220 प्रशान्तात्मा-शान्तचित, 221 हुताशनः- अग्नि।222 उग्रतेजाः- भयंकर तेजवाले, 223 महातेजाः- महान् तेजसे सम्पन्न, 224 जन्यः- संसारके जन्मदाता, 225 वियजकालवित्- विजयके समयका ज्ञान रखनेवाले, 226 ज्योतिशामयनम्- ज्योतिषोंका स्थान, 227 सिद्धिः- सिद्धिस्वरूप, 228 सर्वविग्रहः- सर्वस्वरूप,। 229शिखी- शिखाधारी गृहस्थस्वरूप, 230 मुण्डी- शिखारहित संन्यासी, 231 जटी- जटाधारी वानप्रस्थ, 232 ज्वाली- अग्निकी प्रज्वलित ज्वालामें समिधाकी आहुति देनेवाले, 233 मूर्तिजः- शरीर रूपसे प्रकट होनेवाले, 234 मूर्द्धगः- मूद्र्धा-सहस्त्रार चक्रमें ध्येय रूपसे विद्यमान, 235 बली- बलिष्ठ, 236 वेणवी- वंशी बजानेवाले श्रीकृष्ण, 237 पणवी- पणव नामक वाद्य बजानेवाले, 238 ताली- ताल देनेवाले,239 खली- खलिहानके स्वामी, 240 काल-कटंकटः- यमराजके मायाके आवृत करनेवाले। 241 क्षत्रविग्रहमतिः- नक्षत्र-ग्रह-तारा आदिकी गतिको जाननेवाले, 242 गुणबुद्धिः- गुणोंमें बुद्धि लगानेवाले, 243 लयः- प्रलयके स्थान, 244 अगमः- जाननेमें आनेवाला, 245 प्रजापतिः- प्रजाके स्वामी, 246 विश्वबाहुः- सब ओर भुजावाले, 247 विभागः- विभागस्वरूप, 248 सर्वगः- सर्वव्यापी, 249 अमुखः- बिना मुखवाला। 250 विमोचनः- संसार-बन्धनसे छुड़ानेवाले, 251 सुसरणः- श्रेष्ठ आश्रय, 252 हिरण्य-कवचोभ्दवः- हिरण्यगर्भकी उत्पतिका स्थान, 253 मेढ़जः-, 254 बलचानी- बलका संचार करनेवाले, 255 महीचारी- सारी पृथ्वीपर विचरनेवाले, 256 स्त्रुतः- सर्वत्र पहुंचे हुए। 257 सर्वतूर्यनिनादी- सब प्रकारके बाजे बजानेवाले, 258 सर्वातोद्यपरिग्रहः- सम्पूर्ण वाद्योंका संग्रह करने वाले, 259 व्यालरूपः- शेषनागस्वरूप, 260 गुहावासी- सबकी हदयगुफामें निवास करनेवाले, 261 गुहः- कार्तिकेयस्वरूप, 262 माली-मालाधारी, 263 तरंगवित्- क्षुधा-पिपासा आदि छहों उर्मियोंके ज्ञाता साक्षी। 264 त्रिदषः- प्राणियोंकी तीन दशाओं-जन्म, स्थिति और विनाशके हेतुभूत, 265 त्रिकालधृक्- भूत, भविष्य और वर्तमान तीनों कालोंको धारण करनेवाले, 266 कर्मसर्वबन्धविमोचनः- कर्मोके समस्त बन्धनोंको काटनेवाले, 267 असुरेन्द्राणां बन्धनः- बलि आदि असुरपतियोंको बांध लेनेवाले, 268 युधिशत्रुविनाशनः- युद्धमें शत्रुओंका विनाश करनेवाले। 269 सांख्यप्रसादः- आत्मा और अनात्माके विवकेरूप सांख्यज्ञानसे प्रसन्न होनेवाले, 270 दुर्वासाः- अत्रि और अनसूयाके पुत्र रूद्रावतार दुर्वासा मुनि, 271 सर्वसाधुनिशेवितः- समस्त साधुपुरूषोद्वारा सेवित, 272 प्रस्कन्दनः- स्थानभ्रष्ट करनेवाले, 273 विभागज्ञः- प्राणियोके कर्म और फलोंके विभागको यथोचितरूपसे जाननेवाले, 274 अतुल्यः- तुलनारहित, 275 यज्ञविभागवित्- यज्ञसम्बन्धी हविष्यके विभिन्न भागोंका ज्ञान रखनेवाले। 276 सर्ववासः- सर्वत्र निवास करनेवाले, 277 सर्वचारी- सर्वत्र विचरनेवाले, 278 दुर्वासाः- अनन्त और अपार होनेके कारण जिनको वस्त्रसे आच्छादित करना दुर्लभ है, 279 वासवः- इन्द्रस्वरूप, 280 अमरः- अविनाशी, 281 हैमः- हिमसमूह- हिमालयरूप, 282 हेमकरः- सुवर्णके उत्पादक, 283 अयज्ञः- कर्मरहित, 284 सर्वधारी- सबको धारण करनेवाले, 285 धरोतमः- धारण करनेवालों में सबसे उत्‍तम-अखिल धारण करनेवाले। 286 लोहिताक्षः- रक्तनेत्र, 287 महाक्षः- बड़े नेत्रवाले, 288 विजयाक्षः- विजयशील रथवाले, 289 विषारदः- विद्वान्, 290 संग्रहः- संग्रह करनेवाले, 291 निग्रहः- उदण्डोको दण्ड देनेवाले, 292 कर्ता-सबके उत्पादक, 293 सर्पचीन-निवासनः- सर्पमय चीर धारण करनेवाले। 294 मुख्यः- सर्वश्रेष्ठ, 295 अमुख्यः- जिससे बढ़कर मुख्य दूसरा कोई न हो वह, 296 देहः- देहस्वरूप, 297 सर्वकामदः- सम्पूर्ण कामनाओंके दाता, 299 सर्वकालप्रसादः- सम्पन्न, 300 सुबलः- उत्‍तम बलसे सम्पन्न, 301 बलरूपधृक्- बल और रूपके आधार, 302 सर्वकामवरः- 303 सर्वदः- सब कुछ देनेवाले, 304 र्वतोमुखः- सब और मुखवाले, 305 आकाशनिर्विरूपः- आकाशकी भांति जिनसे नाना प्रकारके रूप प्रकट होते है वे, 306 निपाती- पापियोंको नरकमें गिरानेवाले, 307 अवश- जिनके उपर किसी का वश नहीं चलता वे, 308 खगः- आकाशगामी। 309 रौद्ररूपः- भयंकर रूपधारी, 310 अंशु- किरणस्वरूप, 311 आदित्यः- अदितिपुत्र, 312 बहुरश्मि- असंख्य किरणोवाले, सूर्यरूप, 313 सुवर्चसी-उत्‍तम तेजसे सम्पन्न, 314 वसुवेगः- वायुके समान वेगवाले, 315 महावेगः- वायुसे भी अधिक वेगशाली, 316 मनोवगेः- मनके समान वेगवाले, 317 निशाचरः- रात्रिमें विचरनेवाले। 318 सर्ववासी- सम्‍पूर्ण प्राणियोंमें आत्मारूपसे निवास करनेवाले, 319 श्रियावासी- लक्ष्मीके साथ निवास करनेवाले विष्णुरूप, 320 उपदेशकरः- जिज्ञासुओंको तत्वका और काशीमें मरे हुए जीवोंको तारकमन्त्रका उपदेश करनेवाले, 321 अकरः- कर्तृत्वके अभिमानसे रहित, 322 मुनिः- मननशील, 323 आत्मनिरालोकः- देह आदिकी उपाधिसे अलग होकर आलोचना करनेवाले, 324 सम्भग्नः- सम्यक् रूपसे सेवित, 325 सम्भग्नः- हजारोंका दान करनेवाले। 326 पक्षी- गरूड़रूपधारी, 327 पक्षरूपः- शुक्लपक्षस्वरूप, 328 अतिदीप्तः- अत्यन्त तेजस्वी, 329 विषाम्पतिः- प्रजाओंके स्वामी, 330 उन्मादः- प्रेममें उन्मत, 331 मदनः- कामदेवरूप, 332 कामः- कमनीय विषय, 333 अश्वत्थः- संसार-वृक्षरूप, 334 अर्थकरः- धनआदि देनेवाले, 335 यश- श्यषस्वरूप। 336 वामदेवः- वामदेव ऋषिस्वरूप, 337 वामः- पापियोंके प्रतिकूल, 338 प्राक्-सबके आदि, 339 दक्षिणः- कुशल, 340 वामनः- बलिको बांधनेवाले वामन रूपधारी, 341 सिद्धयोगी- सनत्कुमार आदि सिद्ध महात्मा, 342 महषिः- वसिष्ठ आदि, 343 सिद्धार्थः- आप्तकाम, 344 सिद्धसाधकः- सिद्ध और साधकरूप।345 भिक्षुः- संन्यासी, 346 भिक्षुरूपः- श्रीराम-कृष्ण आदिकी बालछविका दर्शन करनेके लिये भिक्षुरूप धारण करनेवाले, 347 विपणः- व्यवहारसे अतीत, 348 मृदुः- कोमल स्वभाववाले, 349 अव्ययः- अविनाशी, 350 महासेनः- देवसेनापति कार्तिकेयरूप, 351 विशाखः- कार्तिकेयके सहायक, 352शष्टिभागः- प्रभव आदि आठ भागों में विभक्त संवत्सररूप, 353 गवाम्पतिः- इन्द्रियोके स्वामी। 354 वज्रहस्तः- हाथमें वज्र धारण करनेवाले इन्द्ररूप, 355 विश्कम्भी-विस्तारयुक्त, 356 चमूस्तम्भनः- दैत्यसेनाको स्तब्ध करनेवाले, 357 वृतावृतकरः- युद्धमें रथके द्वारा मण्ड़ल बनाना वृत कहलाता है और शत्रुसेनाको विदीर्ण करके अक्षत शरीरसे लौट आना आवृत कहलाता है। इन दोनोंको कुशलतापूर्वक करनेवाले, 358 तालः- संसारसागरके तल प्रदेश-आधार-स्थान अर्थात् शुद्ध जाननेवाले, 359 मधुः- वसन्त ऋतुरूप, 360 मधुकलोचनः- मधुके समान पिंगल नेत्रवाले। 361 वाचस्पत्यः- पुरोहितका काम करनेवाले, 362 वाजसनः- शुक्ल यजुर्वेदकी माध्यन्दिनी शाखाके प्रवर्तक, 363 नित्यमाश्रमपूजितः- सदा आज्ञमोंद्वारा पूजित होनेवाले, 364 लोकचारी- सम्पूर्ण लोकोंमें विचरनेवाले, 365 सम्पूर्ण लोक का स्वामी, 366 सर्वचारी-सर्वत्र गमन करनेवाले, 367 विचारवित्- विचारोंके ज्ञाता।
207 विश्वक्सेनः- दैत्योंकी सेनाको सब ओर भगा देनेवाले, 208 हरिः- आपतियोंको हर लेनेवाले, 209 यज्ञः- यज्ञरूप, 210 सयुगापीडवाहनः- युद्धमें पीड़ारहित वाहनवाले, 211 तीक्ष्णतापः- दुःसह तापरूप सूर्य, 212 हर्यष्वः- हरे रंगके घोड़ोसे युक्त, 213 सहायः- जीवमात्रके सखा, 214 कर्मकालवित्- कर्मोके कालको ठीक-ठीक जाननेवाले। 215 विष्णुप्रसादितः- भगवान् विष्णुने जिन्हें आराधना करके प्रसन्न किया था वे शिव, 216 यज्ञः- विष्णुस्वरूप, यज्ञो वै विष्णुः, 217 समुद्रः- महासागररूप, 218 वडवामुखः- समुद्रमें स्थित बड़वानलरूप, 219 हुताशनसहायः- अग्निके सखा वायुरूप, 220 प्रशान्तात्मा-शान्तचित, 221 हुताशनः- अग्नि।222 उग्रतेजाः- भयंकर तेजवाले, 223 महातेजाः- महान् तेजसे सम्पन्न, 224 जन्यः- संसारके जन्मदाता, 225 वियजकालवित्- विजयके समयका ज्ञान रखनेवाले, 226 ज्योतिशामयनम्- ज्योतिषोंका स्थान, 227 सिद्धिः- सिद्धिस्वरूप, 228 सर्वविग्रहः- सर्वस्वरूप,। 229शिखी- शिखाधारी गृहस्थस्वरूप, 230 मुण्डी- शिखारहित संन्यासी, 231 जटी- जटाधारी वानप्रस्थ, 232 ज्वाली- अग्निकी प्रज्वलित ज्वालामें समिधाकी आहुति देनेवाले, 233 मूर्तिजः- शरीर रूपसे प्रकट होनेवाले, 234 मूर्द्धगः- मूद्र्धा-सहस्त्रार चक्रमें ध्येय रूपसे विद्यमान, 235 बली- बलिष्ठ, 236 वेणवी- वंशी बजानेवाले श्रीकृष्ण, 237 पणवी- पणव नामक वाद्य बजानेवाले, 238 ताली- ताल देनेवाले,239 खली- खलिहानके स्वामी, 240 काल-कटंकटः- यमराजके मायाके आवृत करनेवाले। 241 क्षत्रविग्रहमतिः- नक्षत्र-ग्रह-तारा आदिकी गतिको जाननेवाले, 242 गुणबुद्धिः- गुणोंमें बुद्धि लगानेवाले, 243 लयः- प्रलयके स्थान, 244 अगमः- जाननेमें आनेवाला, 245 प्रजापतिः- प्रजाके स्वामी, 246 विश्वबाहुः- सब ओर भुजावाले, 247 विभागः- विभागस्वरूप, 248 सर्वगः- सर्वव्यापी, 249 अमुखः- बिना मुखवाला। 250 विमोचनः- संसार-बन्धनसे छुड़ानेवाले, 251 सुसरणः- श्रेष्ठ आश्रय, 252 हिरण्य-कवचोभ्दवः- हिरण्यगर्भकी उत्पतिका स्थान, 253 मेढ़जः-, 254 बलचानी- बलका संचार करनेवाले, 255 महीचारी- सारी पृथ्वीपर विचरनेवाले, 256 स्त्रुतः- सर्वत्र पहुंचे हुए। 257 सर्वतूर्यनिनादी- सब प्रकारके बाजे बजानेवाले, 258 सर्वातोद्यपरिग्रहः- सम्पूर्ण वाद्योंका संग्रह करने वाले, 259 व्यालरूपः- शेषनागस्वरूप, 260 गुहावासी- सबकी हदयगुफामें निवास करनेवाले, 261 गुहः- कार्तिकेयस्वरूप, 262 माली-मालाधारी, 263 तरंगवित्- क्षुधा-पिपासा आदि छहों उर्मियोंके ज्ञाता साक्षी। 264 त्रिदषः- प्राणियोंकी तीन दशाओं-जन्म, स्थिति और विनाशके हेतुभूत, 265 त्रिकालधृक्- भूत, भविष्य और वर्तमान तीनों कालोंको धारण करनेवाले, 266 कर्मसर्वबन्धविमोचनः- कर्मोके समस्त बन्धनोंको काटनेवाले, 267 असुरेन्द्राणां बन्धनः- बलि आदि असुरपतियोंको बांध लेनेवाले, 268 युधिशत्रुविनाशनः- युद्धमें शत्रुओंका विनाश करनेवाले। 269 सांख्यप्रसादः- आत्मा और अनात्माके विवकेरूप सांख्यज्ञानसे प्रसन्न होनेवाले, 270 दुर्वासाः- अत्रि और अनसूयाके पुत्र रूद्रावतार दुर्वासा मुनि, 271 सर्वसाधुनिशेवितः- समस्त साधुपुरूषोद्वारा सेवित, 272 प्रस्कन्दनः- स्थानभ्रष्ट करनेवाले, 273 विभागज्ञः- प्राणियोके कर्म और फलोंके विभागको यथोचितरूपसे जाननेवाले, 274 अतुल्यः- तुलनारहित, 275 यज्ञविभागवित्- यज्ञसम्बन्धी हविष्यके विभिन्न भागोंका ज्ञान रखनेवाले। 276 सर्ववासः- सर्वत्र निवास करनेवाले, 277 सर्वचारी- सर्वत्र विचरनेवाले, 278 दुर्वासाः- अनन्त और अपार होनेके कारण जिनको वस्त्रसे आच्छादित करना दुर्लभ है, 279 वासवः- इन्द्रस्वरूप, 280 अमरः- अविनाशी, 281 हैमः- हिमसमूह- हिमालयरूप, 282 हेमकरः- सुवर्णके उत्पादक, 283 अयज्ञः- कर्मरहित, 284 सर्वधारी- सबको धारण करनेवाले, 285 धरोतमः- धारण करनेवालों में सबसे उत्‍तम-अखिल धारण करनेवाले। 286 लोहिताक्षः- रक्तनेत्र, 287 महाक्षः- बड़े नेत्रवाले, 288 विजयाक्षः- विजयशील रथवाले, 289 विषारदः- विद्वान्, 290 संग्रहः- संग्रह करनेवाले, 291 निग्रहः- उदण्डोको दण्ड देनेवाले, 292 कर्ता-सबके उत्पादक, 293 सर्पचीन-निवासनः- सर्पमय चीर धारण करनेवाले। 294 मुख्यः- सर्वश्रेष्ठ, 295 अमुख्यः- जिससे बढ़कर मुख्य दूसरा कोई न हो वह, 296 देहः- देहस्वरूप, 297 सर्वकामदः- सम्पूर्ण कामनाओंके दाता, 299 सर्वकालप्रसादः- सम्पन्न, 300 सुबलः- उत्‍तम बलसे सम्पन्न, 301 बलरूपधृक्- बल और रूपके आधार, 302 सर्वकामवरः- 303 सर्वदः- सब कुछ देनेवाले, 304 र्वतोमुखः- सब और मुखवाले, 305 आकाशनिर्विरूपः- आकाशकी भांति जिनसे नाना प्रकारके रूप प्रकट होते है वे, 306 निपाती- पापियोंको नरकमें गिरानेवाले, 307 अवश- जिनके उपर किसी का वश नहीं चलता वे, 308 खगः- आकाशगामी। 309 रौद्ररूपः- भयंकर रूपधारी, 310 अंशु- किरणस्वरूप, 311 आदित्यः- अदितिपुत्र, 312 बहुरश्मि- असंख्य किरणोवाले, सूर्यरूप, 313 सुवर्चसी-उत्‍तम तेजसे सम्पन्न, 314 वसुवेगः- वायुके समान वेगवाले, 315 महावेगः- वायुसे भी अधिक वेगशाली, 316 मनोवगेः- मनके समान वेगवाले, 317 निशाचरः- रात्रिमें विचरनेवाले। 318 सर्ववासी- सम्‍पूर्ण प्राणियोंमें आत्मारूपसे निवास करनेवाले, 319 श्रियावासी- लक्ष्मीके साथ निवास करनेवाले विष्णुरूप, 320 उपदेशकरः- जिज्ञासुओंको तत्वका और काशीमें मरे हुए जीवोंको तारकमन्त्रका उपदेश करनेवाले, 321 अकरः- कर्तृत्वके अभिमानसे रहित, 322 मुनिः- मननशील, 323 आत्मनिरालोकः- देह आदिकी उपाधिसे अलग होकर आलोचना करनेवाले, 324 सम्भग्नः- सम्यक् रूपसे सेवित, 325 सम्भग्नः- हजारोंका दान करनेवाले। 326 पक्षी- गरूड़रूपधारी, 327 पक्षरूपः- शुक्लपक्षस्वरूप, 328 अतिदीप्तः- अत्यन्त तेजस्वी, 329 विषाम्पतिः- प्रजाओंके स्वामी, 330 उन्मादः- प्रेममें उन्मत, 331 मदनः- कामदेवरूप, 332 कामः- कमनीय विषय, 333 अश्वत्थः- संसार-वृक्षरूप, 334 अर्थकरः- धनआदि देनेवाले, 335 यश- श्यषस्वरूप। 336 वामदेवः- वामदेव ऋषिस्वरूप, 337 वामः- पापियोंके प्रतिकूल, 338 प्राक्-सबके आदि, 339 दक्षिणः- कुशल, 340 वामनः- बलिको बांधनेवाले वामन रूपधारी, 341 सिद्धयोगी- सनत्कुमार आदि सिद्ध महात्मा, 342 महषिः- वसिष्ठ आदि, 343 सिद्धार्थः- आप्तकाम, 344 सिद्धसाधकः- सिद्ध और साधकरूप।345 भिक्षुः- संन्यासी, 346 भिक्षुरूपः- श्रीराम-कृष्ण आदिकी बालछविका दर्शन करनेके लिये भिक्षुरूप धारण करनेवाले, 347 विपणः- व्यवहारसे अतीत, 348 मृदुः- कोमल स्वभाववाले, 349 अव्ययः- अविनाशी, 350 महासेनः- देवसेनापति कार्तिकेयरूप, 351 विशाखः- कार्तिकेयके सहायक, 352शष्टिभागः- प्रभव आदि आठ भागों में विभक्त संवत्सररूप, 353 गवाम्पतिः- इन्द्रियोके स्वामी। 354 वज्रहस्तः- हाथमें वज्र धारण करनेवाले इन्द्ररूप, 355 विश्कम्भी-विस्तारयुक्त, 356 चमूस्तम्भनः- दैत्यसेनाको स्तब्ध करनेवाले, 357 वृतावृतकरः- युद्धमें रथके द्वारा मण्ड़ल बनाना वृत कहलाता है और शत्रुसेनाको विदीर्ण करके अक्षत शरीरसे लौट आना आवृत कहलाता है। इन दोनोंको कुशलतापूर्वक करनेवाले, 358 तालः- संसारसागरके तल प्रदेश-आधार-स्थान अर्थात् शुद्ध जाननेवाले, 359 मधुः- वसन्त ऋतुरूप, 360 मधुकलोचनः- मधुके समान पिंगल नेत्रवाले। 361 वाचस्पत्यः- पुरोहितका काम करनेवाले, 362 वाजसनः- शुक्ल यजुर्वेदकी माध्यन्दिनी शाखाके प्रवर्तक, 363 नित्यमाश्रमपूजितः- सदा आज्ञमोंद्वारा पूजित होनेवाले, 364 लोकचारी- सम्पूर्ण लोकोंमें विचरनेवाले, 365 सम्पूर्ण लोक का स्वामी, 366 सर्वचारी-सर्वत्र गमन करनेवाले, 367 विचारवित्- विचारोंके ज्ञाता।


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==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
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०८:४२, २ जुलाई २०१५ का अवतरण

सत्रहवां अध्‍याय: अनुशासनपर्व (दानधर्मपर्व)

महाभारत: अनुशासनपर्व: सत्रहवां अध्याय: श्लोक 55-74 का हिन्दी अनुवाद

207 विश्वक्सेनः- दैत्योंकी सेनाको सब ओर भगा देनेवाले, 208 हरिः- आपतियोंको हर लेनेवाले, 209 यज्ञः- यज्ञरूप, 210 सयुगापीडवाहनः- युद्धमें पीड़ारहित वाहनवाले, 211 तीक्ष्णतापः- दुःसह तापरूप सूर्य, 212 हर्यष्वः- हरे रंगके घोड़ोसे युक्त, 213 सहायः- जीवमात्रके सखा, 214 कर्मकालवित्- कर्मोके कालको ठीक-ठीक जाननेवाले। 215 विष्णुप्रसादितः- भगवान् विष्णुने जिन्हें आराधना करके प्रसन्न किया था वे शिव, 216 यज्ञः- विष्णुस्वरूप, यज्ञो वै विष्णुः, 217 समुद्रः- महासागररूप, 218 वडवामुखः- समुद्रमें स्थित बड़वानलरूप, 219 हुताशनसहायः- अग्निके सखा वायुरूप, 220 प्रशान्तात्मा-शान्तचित, 221 हुताशनः- अग्नि।222 उग्रतेजाः- भयंकर तेजवाले, 223 महातेजाः- महान् तेजसे सम्पन्न, 224 जन्यः- संसारके जन्मदाता, 225 वियजकालवित्- विजयके समयका ज्ञान रखनेवाले, 226 ज्योतिशामयनम्- ज्योतिषोंका स्थान, 227 सिद्धिः- सिद्धिस्वरूप, 228 सर्वविग्रहः- सर्वस्वरूप,। 229शिखी- शिखाधारी गृहस्थस्वरूप, 230 मुण्डी- शिखारहित संन्यासी, 231 जटी- जटाधारी वानप्रस्थ, 232 ज्वाली- अग्निकी प्रज्वलित ज्वालामें समिधाकी आहुति देनेवाले, 233 मूर्तिजः- शरीर रूपसे प्रकट होनेवाले, 234 मूर्द्धगः- मूद्र्धा-सहस्त्रार चक्रमें ध्येय रूपसे विद्यमान, 235 बली- बलिष्ठ, 236 वेणवी- वंशी बजानेवाले श्रीकृष्ण, 237 पणवी- पणव नामक वाद्य बजानेवाले, 238 ताली- ताल देनेवाले,239 खली- खलिहानके स्वामी, 240 काल-कटंकटः- यमराजके मायाके आवृत करनेवाले। 241 क्षत्रविग्रहमतिः- नक्षत्र-ग्रह-तारा आदिकी गतिको जाननेवाले, 242 गुणबुद्धिः- गुणोंमें बुद्धि लगानेवाले, 243 लयः- प्रलयके स्थान, 244 अगमः- जाननेमें आनेवाला, 245 प्रजापतिः- प्रजाके स्वामी, 246 विश्वबाहुः- सब ओर भुजावाले, 247 विभागः- विभागस्वरूप, 248 सर्वगः- सर्वव्यापी, 249 अमुखः- बिना मुखवाला। 250 विमोचनः- संसार-बन्धनसे छुड़ानेवाले, 251 सुसरणः- श्रेष्ठ आश्रय, 252 हिरण्य-कवचोभ्दवः- हिरण्यगर्भकी उत्पतिका स्थान, 253 मेढ़जः-, 254 बलचानी- बलका संचार करनेवाले, 255 महीचारी- सारी पृथ्वीपर विचरनेवाले, 256 स्त्रुतः- सर्वत्र पहुंचे हुए। 257 सर्वतूर्यनिनादी- सब प्रकारके बाजे बजानेवाले, 258 सर्वातोद्यपरिग्रहः- सम्पूर्ण वाद्योंका संग्रह करने वाले, 259 व्यालरूपः- शेषनागस्वरूप, 260 गुहावासी- सबकी हदयगुफामें निवास करनेवाले, 261 गुहः- कार्तिकेयस्वरूप, 262 माली-मालाधारी, 263 तरंगवित्- क्षुधा-पिपासा आदि छहों उर्मियोंके ज्ञाता साक्षी। 264 त्रिदषः- प्राणियोंकी तीन दशाओं-जन्म, स्थिति और विनाशके हेतुभूत, 265 त्रिकालधृक्- भूत, भविष्य और वर्तमान तीनों कालोंको धारण करनेवाले, 266 कर्मसर्वबन्धविमोचनः- कर्मोके समस्त बन्धनोंको काटनेवाले, 267 असुरेन्द्राणां बन्धनः- बलि आदि असुरपतियोंको बांध लेनेवाले, 268 युधिशत्रुविनाशनः- युद्धमें शत्रुओंका विनाश करनेवाले। 269 सांख्यप्रसादः- आत्मा और अनात्माके विवकेरूप सांख्यज्ञानसे प्रसन्न होनेवाले, 270 दुर्वासाः- अत्रि और अनसूयाके पुत्र रूद्रावतार दुर्वासा मुनि, 271 सर्वसाधुनिशेवितः- समस्त साधुपुरूषोद्वारा सेवित, 272 प्रस्कन्दनः- स्थानभ्रष्ट करनेवाले, 273 विभागज्ञः- प्राणियोके कर्म और फलोंके विभागको यथोचितरूपसे जाननेवाले, 274 अतुल्यः- तुलनारहित, 275 यज्ञविभागवित्- यज्ञसम्बन्धी हविष्यके विभिन्न भागोंका ज्ञान रखनेवाले। 276 सर्ववासः- सर्वत्र निवास करनेवाले, 277 सर्वचारी- सर्वत्र विचरनेवाले, 278 दुर्वासाः- अनन्त और अपार होनेके कारण जिनको वस्त्रसे आच्छादित करना दुर्लभ है, 279 वासवः- इन्द्रस्वरूप, 280 अमरः- अविनाशी, 281 हैमः- हिमसमूह- हिमालयरूप, 282 हेमकरः- सुवर्णके उत्पादक, 283 अयज्ञः- कर्मरहित, 284 सर्वधारी- सबको धारण करनेवाले, 285 धरोतमः- धारण करनेवालों में सबसे उत्‍तम-अखिल धारण करनेवाले। 286 लोहिताक्षः- रक्तनेत्र, 287 महाक्षः- बड़े नेत्रवाले, 288 विजयाक्षः- विजयशील रथवाले, 289 विषारदः- विद्वान्, 290 संग्रहः- संग्रह करनेवाले, 291 निग्रहः- उदण्डोको दण्ड देनेवाले, 292 कर्ता-सबके उत्पादक, 293 सर्पचीन-निवासनः- सर्पमय चीर धारण करनेवाले। 294 मुख्यः- सर्वश्रेष्ठ, 295 अमुख्यः- जिससे बढ़कर मुख्य दूसरा कोई न हो वह, 296 देहः- देहस्वरूप, 297 सर्वकामदः- सम्पूर्ण कामनाओंके दाता, 299 सर्वकालप्रसादः- सम्पन्न, 300 सुबलः- उत्‍तम बलसे सम्पन्न, 301 बलरूपधृक्- बल और रूपके आधार, 302 सर्वकामवरः- 303 सर्वदः- सब कुछ देनेवाले, 304 र्वतोमुखः- सब और मुखवाले, 305 आकाशनिर्विरूपः- आकाशकी भांति जिनसे नाना प्रकारके रूप प्रकट होते है वे, 306 निपाती- पापियोंको नरकमें गिरानेवाले, 307 अवश- जिनके उपर किसी का वश नहीं चलता वे, 308 खगः- आकाशगामी। 309 रौद्ररूपः- भयंकर रूपधारी, 310 अंशु- किरणस्वरूप, 311 आदित्यः- अदितिपुत्र, 312 बहुरश्मि- असंख्य किरणोवाले, सूर्यरूप, 313 सुवर्चसी-उत्‍तम तेजसे सम्पन्न, 314 वसुवेगः- वायुके समान वेगवाले, 315 महावेगः- वायुसे भी अधिक वेगशाली, 316 मनोवगेः- मनके समान वेगवाले, 317 निशाचरः- रात्रिमें विचरनेवाले। 318 सर्ववासी- सम्‍पूर्ण प्राणियोंमें आत्मारूपसे निवास करनेवाले, 319 श्रियावासी- लक्ष्मीके साथ निवास करनेवाले विष्णुरूप, 320 उपदेशकरः- जिज्ञासुओंको तत्वका और काशीमें मरे हुए जीवोंको तारकमन्त्रका उपदेश करनेवाले, 321 अकरः- कर्तृत्वके अभिमानसे रहित, 322 मुनिः- मननशील, 323 आत्मनिरालोकः- देह आदिकी उपाधिसे अलग होकर आलोचना करनेवाले, 324 सम्भग्नः- सम्यक् रूपसे सेवित, 325 सम्भग्नः- हजारोंका दान करनेवाले। 326 पक्षी- गरूड़रूपधारी, 327 पक्षरूपः- शुक्लपक्षस्वरूप, 328 अतिदीप्तः- अत्यन्त तेजस्वी, 329 विषाम्पतिः- प्रजाओंके स्वामी, 330 उन्मादः- प्रेममें उन्मत, 331 मदनः- कामदेवरूप, 332 कामः- कमनीय विषय, 333 अश्वत्थः- संसार-वृक्षरूप, 334 अर्थकरः- धनआदि देनेवाले, 335 यश- श्यषस्वरूप। 336 वामदेवः- वामदेव ऋषिस्वरूप, 337 वामः- पापियोंके प्रतिकूल, 338 प्राक्-सबके आदि, 339 दक्षिणः- कुशल, 340 वामनः- बलिको बांधनेवाले वामन रूपधारी, 341 सिद्धयोगी- सनत्कुमार आदि सिद्ध महात्मा, 342 महषिः- वसिष्ठ आदि, 343 सिद्धार्थः- आप्तकाम, 344 सिद्धसाधकः- सिद्ध और साधकरूप।345 भिक्षुः- संन्यासी, 346 भिक्षुरूपः- श्रीराम-कृष्ण आदिकी बालछविका दर्शन करनेके लिये भिक्षुरूप धारण करनेवाले, 347 विपणः- व्यवहारसे अतीत, 348 मृदुः- कोमल स्वभाववाले, 349 अव्ययः- अविनाशी, 350 महासेनः- देवसेनापति कार्तिकेयरूप, 351 विशाखः- कार्तिकेयके सहायक, 352शष्टिभागः- प्रभव आदि आठ भागों में विभक्त संवत्सररूप, 353 गवाम्पतिः- इन्द्रियोके स्वामी। 354 वज्रहस्तः- हाथमें वज्र धारण करनेवाले इन्द्ररूप, 355 विश्कम्भी-विस्तारयुक्त, 356 चमूस्तम्भनः- दैत्यसेनाको स्तब्ध करनेवाले, 357 वृतावृतकरः- युद्धमें रथके द्वारा मण्ड़ल बनाना वृत कहलाता है और शत्रुसेनाको विदीर्ण करके अक्षत शरीरसे लौट आना आवृत कहलाता है। इन दोनोंको कुशलतापूर्वक करनेवाले, 358 तालः- संसारसागरके तल प्रदेश-आधार-स्थान अर्थात् शुद्ध जाननेवाले, 359 मधुः- वसन्त ऋतुरूप, 360 मधुकलोचनः- मधुके समान पिंगल नेत्रवाले। 361 वाचस्पत्यः- पुरोहितका काम करनेवाले, 362 वाजसनः- शुक्ल यजुर्वेदकी माध्यन्दिनी शाखाके प्रवर्तक, 363 नित्यमाश्रमपूजितः- सदा आज्ञमोंद्वारा पूजित होनेवाले, 364 लोकचारी- सम्पूर्ण लोकोंमें विचरनेवाले, 365 सम्पूर्ण लोक का स्वामी, 366 सर्वचारी-सर्वत्र गमन करनेवाले, 367 विचारवित्- विचारोंके ज्ञाता।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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