"महाभारत वन पर्व अध्याय 300 श्लोक 34-39" के अवतरणों में अंतर

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<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">महाभारत: वन पर्व: त्रिशततमोऽध्यायः 34-39 श्लोक  का हिन्दी अनुवाद</div>
 
<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">महाभारत: वन पर्व: त्रिशततमोऽध्यायः 34-39 श्लोक  का हिन्दी अनुवाद</div>
  

०८:४०, १३ जुलाई २०१५ का अवतरण

त्रिशततम (300) अध्याय: वन पर्व (कुण्डलाहरणपर्व)

महाभारत: वन पर्व: त्रिशततमोऽध्यायः 34-39 श्लोक का हिन्दी अनुवाद


परलोक में कीर्ति ही पुरुष के लिये सबसे महान् आश्रय है। इस लोक में भी विशुद्ध कीर्ति आयु बढ़ाने वाली होती है।। अतः मैं अपने शरीर के साथ उत्पन्न हुए कवच-कुण्डल इन्द्र को देकर सनातन कीर्ति प्राप्त करूँगा। ब्राह्मणों को विधिपूर्वक दान देकर, अतयन्त दुष्कर पराक्रम करके समराग्नि में शरीर की आहुति देकर तथा शत्रुओं को संग्राम में जीतकर में केवल सुयश का उपार्जन करूँगा। संग्राम में भयभीत होकर प्राणों की भीख माँगने वाले सैनिकों को अभय देकर तथा बालक, वृद्ध और ब्राह्मणों को महान् भय से छुड़ाकर संसार में परम उत्तम स्वर्गीय यश का उपार्जन करूँगा। मुझे प्राण देकर भी अपनी कीर्ति सुरक्षित रखनी है। यही मेरा व्रत समझें। इसलिये देव ! इस प्रकार के व्रत वाला मैं ब्राह्मण वेष्धारी इन्द्र को यह परम श्रेष्ठ भिक्षा देकर जगत् में उत्तम गति प्राप्त करूँगा।

इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अनतर्गत कुण्डलाहरणपर्व में सूर्य कर्ण संवाद विषयक तीन सौवाँ अध्याय पूरा हुआ।




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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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