"महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 124 श्लोक 18-34" के अवतरणों में अंतर

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== एक सौ चौबीसवाँ अध्‍याय: उद्योगपर्व (सेनोद्योग पर्व)==
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==चतुर्विंशत्‍यधिकशततम अध्‍याय: उद्योग पर्व (भगवद्-यान पर्व)==
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<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">महाभारत: उद्योग पर्व: चतुर्विंशत्‍यधिकशततम अध्याय: श्लोक 18-34 का हिन्दी अनुवाद</div>
  
<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">महाभारत: उद्योगपर्व: एक सौ चौबीसवाँ अध्याय: श्लोक 1- 25 का हिन्दी अनुवाद</div>
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परंतप ! पितामह भीष्म, आचार्य द्रोण , महामती विदुर, कृपाचार्य, सोमदत्त, बुद्धिमान् बाह्लिक, अश्वत्थामा, विकर्ण, संजय, विविंशति तथा अन्यान्य कुटुंबी जनों एवं मित्रों को भी यही अधिक प्रिय है। ‘तात ! संधि होने पर ही सम्पूर्ण जगत् का भला हो सकता है । तुम श्रेष्ठ कुल में उत्पन्न, लज्जाशील, शास्त्रज्ञ और क्रूरता से रहित हो । अत: भरतश्रेष्ठ ! तुम पिता और माता के शासन के अधीन रहो। ‘भारत ! पिता जो कुछ शिक्षा देते हैं, उसी को श्रेष्ठ पुरुष अपने लिए कल्याणकारी मानते हैं । भारी आपत्ति में पड़ने पर सब लोग अपने पिता के उपदेश को ही स्मरण करते हैं। ‘तात ! मंत्रियों सहित तुम्हारे पिता को पांडवों के साथ संधि कर लेना ही अच्छा जान पड़ता है । कुरुश्रेष्ठ ! यही तुम्हें भी पसंद आना चाहिए। ‘जो मनुष्य सुहृदों के मुख से शास्त्र सम्मत उपदेश सुनकर भी उसे स्वीकार नहीं करता है, उसका यह अस्वीकार उसे परिणाम में उसी प्रकार शोकदग्ध करता है, जैसे खाया हुआ इन्द्रायण फल पाचन के अंत में दाह उत्पन्न करनेवाला होता है। ‘जो मोहवश अपने हित की बात नहीं मानता है, वह दीर्घसूत्री मनुष्य अपने स्वार्थ से भृष्ट होकर केवल पश्चाताप का भागी होता है। ‘जो मानव अपने कल्याण की बात सुनकर अपने मत का आग्रह छोड़कर पहले उसी को ग्रहण करता है, वह संसार में सुखपूर्वक उन्नतिशील होता है। ‘जो अपनी ही भलाई चाहनेवाले अपने सुहृद् के वचनों को मन के प्रतिकूल होने के कारण नहीं सहन करता है और उन असुहृदों के प्रतिकूल कहे हुए वचनों को ही सुनता है, वह शत्रुओं के अधीन हो जाता है।
 
 
धृतराष्ट्र के अनुरोध से भगवान श्रीकृष्ण का दुर्योधन को समझाना
 
 
 
धृतराष्ट्र बोले – भगवन् नारद ! आप जैसा कहते हैं, वह ठीक है । मैं भी यही चाहता हूँ, परंतु मेरा कोई वश नहीं चलता है।
 
 
वैशम्पायनजी कहते हैं – जनमेजय ! नारदजी से ऐसा कहकर धृतराष्ट्र ने भगवान् श्रीक़ृष्ण से कहा – ‘केशव ! आपने मुझसे जो बात कही है, वह इहलोक और स्वर्गलोक में हितकर, धर्मसम्मत और न्यायसंगत है।  ‘तात जनार्द्न् ! मैं अपने वश में नहीं हूँ । जो कुछ किया जा रहा है, वह मुझे प्रिय नहीं है । किन्तु क्या कहूँ ? मेरे दुरात्मा पुत्र मेरी बात नहीं मानेंगे । प्रिय श्रीक़ृष्ण ! महाबाहु पुरुषोत्तम ! शास्त्र की आज्ञा का उल्लंड्घन करनेवाले मेरे इस मूर्ख पुत्र दुर्योधन को आप ही समझा-बुझाकर राह पर लाने का प्रयत्न कीजिये। ‘महाबाहु हृषीकेश ! यह सत्पुरुषों की कही हुई बातें नहीं सुनता है । गांधारी, बुद्धिमान् विदुर तथा हित चाहनेवाले भीष्म आदि अन्यान्य सुहृदों की भी बातें नहीं सुनता है। ‘जनार्दन ! दुरात्मा राजा दुर्योधन की बुद्धि पाप में लगी हुई है । यह पाप का ही चिंतन करनेवाला, क्रूर और विवेकशून्य है । आप ही इसे समझाइए । यदि आप इसे संधि के लिए राजी कर लें तो आपके द्वारा सुहृदों का यह बहुत बड़ा कार्य सम्पन्न हो जाएगा’। तब सम्पूर्ण धर्म और अर्थ के तत्त्व को जाननेवाले वृष्णिनन्दन भगवान् श्रीकृष्ण अमर्षशील दुर्योधन की और घूमकर मधुर वाणी में उससे बोले -। ‘कुरुश्रेष्ठ दुर्योधन ! तुम मेरी यह बात सुनो । भारत ! मैं विशेषत: सगे-संबंधियों सहित तुम्हारे कल्याण के लिए ही तुम्हें कुछ परामर्श दे रहा हूँ। ‘तुम परम ज्ञानी महापुरुषों के कुल में उत्पन्न हुए हो । स्वयं भी शास्त्रों के ज्ञान तथा सद्व्यवहार से सम्पन्न हो । तुममें सभी उत्तम गुण विद्यमान हैं; अत: तुम्हें मेरी यह अच्छी सलाह अवश्य माननी चाहिए। ‘ तात ! जिसे तुम ठीक समझते हो, ऐसा अधम कार्य तो वे लोग करते हैं, जो नीच कुल में उत्पन्न हुए हैं तथा जो दुष्टचित्त, क्रूर एवं निर्लज्ज है। ‘भरतश्रेष्ठ ! इस जगत् में सत्पुरुषों का व्यवहार धर्म और अर्थ से युक्त देखा जाता है और दुष्टों का बर्ताव ठीक इसके विपरीत दृष्टिगोचर होता है। ‘तुम्हारे भीतर यह विपरीत वृत्ति बारंबार देखने में आती है । भारत ! इस समय तुम्हारा जो दुराग्रह है, वह अधर्ममय ही है । उसके होने का कोई समुचित कारण भी नहीं है । यह भयंकर हठ अनिष्टकारक तथा महान् प्राणनाशक है । तुम इसे सफल बना सको, यह संभव नहीं है। ‘परांतप ! यदि तुम उस अनर्थकारी दुराग्रह को छोड़ दो तो अपने कल्याण के साथ ही भाइयों, सेवकों तथा मित्रों का भी महान् हित साधन करोगे। ‘ऐसा करने पर तुम्हें अधर्म और अपयश की प्राप्ति कराने वाले कर्म से छुटकारा मिल जाएगा । अत: भरतकुलभूषण पुरुषसिंह ! तुम ज्ञानी, परम उत्साही, शूरवीर, मनस्वी एवं अनेक शास्त्रों के ज्ञाता पांडवों के साथ संधि कर लो। ‘यही परम बुद्धिमान् राजा धृतराष्ट्र को भी प्रिय एवं हितकर जान पड़ता है । परंतप ! पितामह भीष्म, आचार्य द्रोण , महामती विदुर, कृपाचार्य, सोमदत्त, बुद्धिमान् बाह्लिक, अश्वत्थामा, विकर्ण, संजय, विविंशति तथा अन्यान्य कुटुंबी जनों एवं मित्रों को भी यही अधिक प्रिय है। ‘तात ! संधि होने पर ही सम्पूर्ण जगत् का भला हो सकता है । तुम श्रेष्ठ कुल में उत्पन्न, लज्जाशील, शास्त्रज्ञ और क्रूरता से रहित हो । अत: भरतश्रेष्ठ ! तुम पिता और माता के शासन के अधीन रहो। ‘भारत ! पिता जो कुछ शिक्षा देते हैं, उसी को श्रेष्ठ पुरुष अपने लिए कल्याणकारी मानते हैं । भारी आपत्ति में पड़ने पर सब लोग अपने पिता के उपदेश को ही स्मरण करते हैं। ‘तात ! मंत्रियों सहित तुम्हारे पिता को पांडवों के साथ संधि कर लेना ही अच्छा जान पड़ता है । कुरुश्रेष्ठ ! यही तुम्हें भी पसंद आना चाहिए। ‘जो मनुष्य सुहृदों के मुख से शास्त्र सम्मत उपदेश सुनकर भी उसे स्वीकार नहीं करता है, उसका यह अस्वीकार उसे परिणाम में उसी प्रकार शोकदग्ध करता है, जैसे खाया हुआ इन्द्रायण फल पाचन के अंत में दाह उत्पन्न करनेवाला होता है। ‘जो मोहवश अपने हित की बात नहीं मानता है, वह दीर्घसूत्री मनुष्य अपने स्वार्थ से भृष्ट होकर केवल पश्चाताप का भागी होता है। ‘जो मानव अपने कल्याण की बात सुनकर अपने मत का आग्रह छोड़कर पहले उसी को ग्रहण करता है, वह संसार में सुखपूर्वक उन्नतिशील होता है। ‘जो अपनी ही भलाई चाहनेवाले अपने सुहृद् के वचनों को मन के प्रतिकूल होने के कारण नहीं सहन करता है और उन असुहृदों के प्रतिकूल कहे हुए वचनों को ही सुनता है, वह शत्रुओं के अधीन हो जाता है।
 
 
 
                                                                                         
 
{{लेख क्रम |पिछला=महाभारत उद्योगपर्व अध्याय 123 श्लोक 1-23|अगला=महाभारत उद्योगपर्व अध्याय 124 श्लोक 26-44}}
 
  
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‘जो मनुष्य सत्पुरुषों की सम्मति का उल्लंघन करके दुष्टों के मत के अनुसार चलता है, उसके सुहृद उसे शीघ्र ही विपत्ति में पड़ा देख शोक के भागी होते हैं। ‘जो अपने मुख्यमंत्रियों को छोड़कर नीच प्रकृति के लोगों का सेवन करता है, वह भयंकर विपत्ति में फँसकर अपने उद्धार का कोई मार्ग नहीं देख पाता है ‘भारत ! जो दुष्ट पुरुषों का संग करनेवाला और मिथ्याचारी होकर अपने श्रेष्ठ सुहृदों की बात नहीं  सुनता हिय, दूसरों को अपनाता और आत्मीयजनों से द्वेष रखता है, उसे यह पृथ्वी त्याग देती है। ‘भरतश्रेष्ठ ! तुम उन वीर पांडवों से विरोध करके दूसरे अशिष्ट, असमर्थ और मूढ़ मनुष्यों से अपनी रक्षा चाहते हो। ‘इस भूतल पर तुम्हारे सिवा दूसरा कौन मनुष्य है, जो इंद्र के समान पराक्रमी एवं महारथी बंधु-बांधवों को त्याग कर दूसरों से अपनी रक्षा की आशा करेगा ? ‘तुमने जन्म से ही कुंतीपुत्रों के साथ सदा शठतापूर्ण बर्ताव किया है, परंतु वे इसके लिए कभी कुपित नहीं हुए हैं; क्योंकि पांडव धर्मात्मा हैं।‘तात महाबाहो ! यद्यपि तुमने अपने ही भाई पांडवों के साथ जन्म से ही छल कपट का बर्ताव किया है, तथापि वे यशस्वी पांडव तुम्हारे प्रति सदा सद्भाव ही रखते आए हैं। ‘भरतश्रेष्ठ ! तुम्हें भी अपने उन श्रेष्ठ बंधुओं के प्रति वैसा ही बर्ताव करना चाहिए। तुम क्रोध के वशीभूत न होओ। ‘भरतभूषण ! विद्वान् एवं बुद्धिमान पुरुषों का प्रत्येक कार्य धर्म, अर्थ और काम इन तीनों की सिद्धि के अनुकूल ही होता है । यदि तीनों की सिद्धि असंभव हो तो बुद्धिमान मानव धर्म और अर्थ का ही अनुसरण करते हैं।
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==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
 
==टीका टिप्पणी और संदर्भ==

०९:४९, १४ जुलाई २०१५ का अवतरण

चतुर्विंशत्‍यधिकशततम अध्‍याय: उद्योग पर्व (भगवद्-यान पर्व)

महाभारत: उद्योग पर्व: चतुर्विंशत्‍यधिकशततम अध्याय: श्लोक 18-34 का हिन्दी अनुवाद

परंतप ! पितामह भीष्म, आचार्य द्रोण , महामती विदुर, कृपाचार्य, सोमदत्त, बुद्धिमान् बाह्लिक, अश्वत्थामा, विकर्ण, संजय, विविंशति तथा अन्यान्य कुटुंबी जनों एवं मित्रों को भी यही अधिक प्रिय है। ‘तात ! संधि होने पर ही सम्पूर्ण जगत् का भला हो सकता है । तुम श्रेष्ठ कुल में उत्पन्न, लज्जाशील, शास्त्रज्ञ और क्रूरता से रहित हो । अत: भरतश्रेष्ठ ! तुम पिता और माता के शासन के अधीन रहो। ‘भारत ! पिता जो कुछ शिक्षा देते हैं, उसी को श्रेष्ठ पुरुष अपने लिए कल्याणकारी मानते हैं । भारी आपत्ति में पड़ने पर सब लोग अपने पिता के उपदेश को ही स्मरण करते हैं। ‘तात ! मंत्रियों सहित तुम्हारे पिता को पांडवों के साथ संधि कर लेना ही अच्छा जान पड़ता है । कुरुश्रेष्ठ ! यही तुम्हें भी पसंद आना चाहिए। ‘जो मनुष्य सुहृदों के मुख से शास्त्र सम्मत उपदेश सुनकर भी उसे स्वीकार नहीं करता है, उसका यह अस्वीकार उसे परिणाम में उसी प्रकार शोकदग्ध करता है, जैसे खाया हुआ इन्द्रायण फल पाचन के अंत में दाह उत्पन्न करनेवाला होता है। ‘जो मोहवश अपने हित की बात नहीं मानता है, वह दीर्घसूत्री मनुष्य अपने स्वार्थ से भृष्ट होकर केवल पश्चाताप का भागी होता है। ‘जो मानव अपने कल्याण की बात सुनकर अपने मत का आग्रह छोड़कर पहले उसी को ग्रहण करता है, वह संसार में सुखपूर्वक उन्नतिशील होता है। ‘जो अपनी ही भलाई चाहनेवाले अपने सुहृद् के वचनों को मन के प्रतिकूल होने के कारण नहीं सहन करता है और उन असुहृदों के प्रतिकूल कहे हुए वचनों को ही सुनता है, वह शत्रुओं के अधीन हो जाता है।

‘जो मनुष्य सत्पुरुषों की सम्मति का उल्लंघन करके दुष्टों के मत के अनुसार चलता है, उसके सुहृद उसे शीघ्र ही विपत्ति में पड़ा देख शोक के भागी होते हैं। ‘जो अपने मुख्यमंत्रियों को छोड़कर नीच प्रकृति के लोगों का सेवन करता है, वह भयंकर विपत्ति में फँसकर अपने उद्धार का कोई मार्ग नहीं देख पाता है ‘भारत ! जो दुष्ट पुरुषों का संग करनेवाला और मिथ्याचारी होकर अपने श्रेष्ठ सुहृदों की बात नहीं सुनता हिय, दूसरों को अपनाता और आत्मीयजनों से द्वेष रखता है, उसे यह पृथ्वी त्याग देती है। ‘भरतश्रेष्ठ ! तुम उन वीर पांडवों से विरोध करके दूसरे अशिष्ट, असमर्थ और मूढ़ मनुष्यों से अपनी रक्षा चाहते हो। ‘इस भूतल पर तुम्हारे सिवा दूसरा कौन मनुष्य है, जो इंद्र के समान पराक्रमी एवं महारथी बंधु-बांधवों को त्याग कर दूसरों से अपनी रक्षा की आशा करेगा ? ‘तुमने जन्म से ही कुंतीपुत्रों के साथ सदा शठतापूर्ण बर्ताव किया है, परंतु वे इसके लिए कभी कुपित नहीं हुए हैं; क्योंकि पांडव धर्मात्मा हैं।‘तात महाबाहो ! यद्यपि तुमने अपने ही भाई पांडवों के साथ जन्म से ही छल कपट का बर्ताव किया है, तथापि वे यशस्वी पांडव तुम्हारे प्रति सदा सद्भाव ही रखते आए हैं। ‘भरतश्रेष्ठ ! तुम्हें भी अपने उन श्रेष्ठ बंधुओं के प्रति वैसा ही बर्ताव करना चाहिए। तुम क्रोध के वशीभूत न होओ। ‘भरतभूषण ! विद्वान् एवं बुद्धिमान पुरुषों का प्रत्येक कार्य धर्म, अर्थ और काम इन तीनों की सिद्धि के अनुकूल ही होता है । यदि तीनों की सिद्धि असंभव हो तो बुद्धिमान मानव धर्म और अर्थ का ही अनुसरण करते हैं।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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