"महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 53 श्लोक 1-20": अवतरणों में अंतर

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११:३७, १९ जुलाई २०१५ का अवतरण

तिरपनवॉं अध्‍याय: अनुशासनपर्व (दानधर्मपर्व)

महाभारत: अनुशासनपर्व: तिरपनवॉं अध्याय: श्लोक 1-36 का हिन्दी अनुवाद

च्‍यवन मुनि के द्वारा राजा-रानी के धैर्य की परीक्षा और उनकी सेवा से प्रसन्‍न होकर उन्‍हें आशीर्वाद देना युधिष्ठिर ने पूछा- पितामह। च्यवन मुनि के अन्तर्धान हो जाने पर राजा कुशिक और उनकी महानसौभाग्यशालिनी पत्नी ने क्या किया? यह मुझे बताइये।।भीष्मजी ने कहा- राजन। पत्नी सहित भूपाल ने बहुत ढूंढने पर भी जब ऋषि को नहीं देखा तब वे थक कर लौट आये। उस समय उन्हें बड़ा संकोच हो रहा था। वे अचेत से हो गये थे।वे दीन भाव से पुरी में प्रवेश करके किसी से कुछ बोले नहीं। केवल च्यवन मुनि के चरित्र पर मन-ही-मन विचार करने लगे। राजा ने सूने मन से जब घर में प्रवेश किया तब भृगु नन्दन महर्षि च्यवन को पुनः उसी शैय्या पर सोते देखा । उन महर्षि को देखकर उन दोनों को वड़ा विस्मय हुआ। वे उस आश्‍चर्यजनकघटना पर विचार करके चकित हो गये। मुनि के दर्शन से उन दोनों की सारी थकावट दूर हो गयी। वे फिर यथा स्थान खड़े होकर मुनि के पैर दबाने लगे। अबकी बार वे महामुनि दूसरी करवट से सोये थे।शक्तिशाली च्यवन मुनि फिर उतने ही समय में सो कर उठे। राजा और रानी उनके भय से शंकित थे, अतः उन्होंने अपने मन में तनिक भी विकार नहीं आने दिया।भारत प्रजानाथ। जब वे मुनि जागे, तब राजा और रानी से इस प्रकार बोले- तुम लोग मेरे शरीर में तेल की मालिश करो क्योंकि अब मैं स्नान करूंगा। यद्यपि राजा-रानी भूख-प्यास से पीड़ित और अत्यन्त दुर्बल हो गये थे तो भी ‘बहुत अच्छा’ कहकर वे राजदम्पति सौ बार पकाकर तैयार किये हुए बहूमूल्य तेल को लेकर उनकी सेवा में जुट गये। ऋषि आनन्द से बैठ गये और वे दोनों दम्पति मौन हो उनके शरीर में तेल मलने लगे। परंतु महातपस्वी भृगु च्यवन ने अपने मुंह से एक बार भी नहीं कहा कि ‘बस, अबरहने दो, तेल की मालिश पूरी हो गयी’। भृगुपुत्र ने इतने पर भी जब राजा और रानी के मन में कोई विकार नहीं देखा तब सहसा उठकर वे स्नानागार में चले गये । भरतश्रेष्ठ। वहां स्नाना के राजोचित सामग्री पहले से ही तैयार करके रखी गयी थी; किंतु उस सारी सामग्री की अवहेलना करके- उसका किंचित भी उपयोग न करके वे मुनि पुनः राजा के देखते-देखते वहीं अन्तर्धान हो गये; तो भी उन पति-पत्नि ने उनके प्रति दोष-दृष्टि नहीं की। कुरूनन्दन। तदनन्तर शक्तिशाली भगवान च्यवन मुनि पत्नि सहित राजा कुशिक को स्नान करके सिंहासन पर बैठे दिखाई दिये । उन्हें देखते ही पत्नि सहित राजा का मुख प्रसन्‍नता से खिल उठा। उन्होंने निर्विकार भाव से मुनि के पास जाकर विनय पूर्वक यह निवेदन किया कि‘ भोजन तैयार है’। तब मुनि ने राजा से कहा- ‘ले आओ’। आज्ञा पाकर पत्नि सहित नरेश ने मुनि के सामने भोजन-सामग्री प्रस्तुत की । नाना प्रकार के फलों के गूदे, भांति के साग, अनेक प्रकार के व्यंजन, हल्के पेय पदार्थ, स्वादिष्ठ पूए, विचित्र मोदक (लड्डू), खांड़, नाना प्रकार के रस, मुनियों के खाने योग्य जंगली कंद-मूल, विचित्र फल, राजाओं के उपभोग में आने वाले अनके प्रकार के पदार्थ, वेर, इंगुद, काष्मर्य, भल्लातक फल तथा गृहस्थों और वानप्रस्थों के खाद्य पदार्थ- सब कुछ राजा ने शाप के डर से मंगाकर प्रस्तुत कर दिया था। यह सब सामग्री च्यवन मुनि के आगे परोस कर रखी गयी। मुनि वह सब लेकर उसको तथा शैय्या तथा आसन को भी सुन्दर वस्त्रों से ढक दिया। इसके बाद भृगुनन्दन च्यवन ने भोजन-सामग्री के साथ उन वस्त्रों में भी आग लगा दी।परंतु उन परम बुद्धिमान दम्पति न उन पर क्रोध नहीं प्रकट किया। उन दोनों के देखते-ही-देखते वे मुनि फिर अन्तर्धान हो गये । वे श्रीमान राजर्षि अपनी स्त्री के साथ उसी तरह वहां रात भर चुपचाप खड़े रह गये; किंतु उनके मन में क्रोध का आवेश नहीं हुआ । प्रतिदिन भांति-भांति का भोजन तैयार करके राजभवन में मुनि के लिये परोसा जाता, अच्छे-अच्छे पलंग विछाये जाते तथा स्नान के लिये बहुत-से पात्र रखे जाते । अनेक प्रकार के वस्त्र ला-ला कर उनकी सेवा में समर्पित किये किये जाते थे। जब ब्रह्मर्षि च्यवन मुनि इन सब कार्यो में कोई छिद्र न देख सके, तब फिर राजा कुशिक से बोले-‘ तुम स्त्री सहित रथ में जुत जाओ और मैं जहां कहूं, वहां मुझे शीघ्र ले चलो’।तब राजा ने निःशंक होकर उन तपोधन से कहा- ‘बहुत अच्छा, भगवन। क्रीड़ा का रथ तैयार किया जाये या युद्व के उपयोग में आने वाला रथ?’ हर्ष में भरे हुए राजा के इस प्रकार पूछने पर च्यवन मुनि को बड़ी प्रसन्ना हुई। उन्होंने शत्रु नगरी पर विजय पाने वाले उन नरेश से कहा- ‘राजन। तुम्हारा जो युद्वोपयोगी रथ है, उसी को शीघ्र तैयार करो। उसमें नाना प्रकार के अस्त्र-शस्त्र रखे रहें। पताका, शक्ति और सुवर्णदण्ड विद्यमान हों । ‘उसमें लगी हुई छोटी-छोटी घंटियों के मधुर शब्द सब ओर फैलते रहें। वह रथ वन्दनवारों से सजाया गया हो। उसके ऊपर जाम्बूनद नामक सुवर्ण जड़ा हुआ हो तथा उसमें अच्छे-अच्छे सैकड़ों बाण रखे गये हों’ । तब राजा ‘जो आज्ञा’ कहकर गये और एक विशाल रथ तैयार करके ले आये। उसमें बायीं ओर का बोझ ढोने के लिये रानी को लगाकर स्वयं वे दाहिनी ओर जुट गये । उस रथ पर उन्होंने एक ऐसा चाबुक भी रख दिया, जिसमें आगे की ओर तीन दण्ड थे और जिसका अग्रभाग सूई की नोंक के समान तीखा था। यह सब सामान प्रस्तुत करके राजा ने पूछा- ‘भगवान। भृगुनन्दन। बताइये, यह रथ कहां जाये? ब्रह्मर्षें। आप जहां कहेंगे, वहीं आपका रथ चलेगा’। राजा के ऐसा पूछने पर भगवान च्यवन मुनि ने उनके कहा- यहां से तुम बहुत धीरे-धीरे एक-एक कदम उठाकर चलो। यह ध्यान रखो कि मुझे कष्‍ट न हो पाये। तुम दोनों की मेरी मर्जी के अनुसार चलना होगा। तुम लोग इस प्रकार रथ को ले चलो जिससे मुझे अधिक आराम मिले और सब लोग देखें।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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