"महाभारत द्रोणपर्व अध्याय 151 श्लोक 21-41": अवतरणों में अंतर

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१२:४७, १९ जुलाई २०१५ के समय का अवतरण

एकपंचाशदधिकशततम (151) अध्याय: द्रोणपर्व (जयद्रथवध पर्व )

महाभारत: द्रोणपर्व: एकपंचाशदधिकशततम अध्याय: श्लोक 21-41 का हिन्दी अनुवाद

तुम सब लोगों ने बडी सावधानी से अर्जुन को घेर लिया था। फिर सब-के-सब पराजित कैसे हो गये ? तुमने सिंधुराज को आश्रय दिया था। फिर तुम्हारे बीच में वह कैसे मारा गया ? कुरूनन्दन ! तुम और कर्ण तो नहीं मर गये थे, कृपाचार्य, शल्य और अश्‍वत्‍थामा तो जीवित थे; फिर तुम्हारे रहते सिंधुराजकी मृत्यु क्यों हुई ? युद्ध करते हुए समस्त राजा सिंधुराज की रक्षा के लिये प्रचण्ड तेज का आश्रय लिये हुए थे। फिर वह आप लोगों के बीच में कैसे मारा गया? दुर्योधन ! राजा जयद्रथ विषेशतः मुझ पर और तुम पर ही अर्जुन से अपनी जीवन-रक्षा का भरोसा किये बैठा था। तो भी जब अर्जुन से उसकी रक्षा न की जा सकी, तब मुझे अब अपने जीवन की रक्षा के लिये भी कोई स्थान दिखायी नहीं देता। मैं धृष्टद्युम्न और शिखण्डी सहित समस्त पांचालो का वध न करके अपने- आपको धृष्टद्युम्न के पापपूर्ण संकल्प में डूबता-सा देख रहा हूं। भारत ! ऐसी दशा में तुम स्वयं सिंधुराज की रक्षा में असमर्थ होकर मुझे अपने वाग्बाणों से क्यों छेद रहे हो ? मैं तो स्वयं ही संतृप्त हो रहा हूं। अनायास ही महान कर्म करने वाले सत्यप्रतिज्ञ भीष्म के सुवर्णमय ध्वज को अब युद्धस्थल में फहराता न देखकर भी तुम विजय की आशा कैसे करते हो ? जहां बडे़-बडे़ महारथियों के बीच सिंधुराज जयद्रथ और भूरिश्रवा मारे गये, वहां तुम किसके बचने की आशा करते हो ? पृथ्वीपते ! दुर्धर्ष वीर कृपाचार्य यदि जीवित हैं, यदि सिंधुराज के पथ पर नहीं गये हैं तो मैं उनके बल और सौभाग्य प्रशंसा करता हूं। कुरूनन्दन ! नरेश ! जिन्हें इन्द्रसहित सम्पूर्ण देवता भी युद्ध में नहीं मार सकते थे, दुष्कर कर्म करने वाले उन्हीं भीष्म को जब से मैंने तुम्हारे छोटे भाई दुःशासन के देखते देखते मारा गया देखा हैं, तब से मैं यही सोचता हूं कि अब यह पृथ्वी तुम्हारे अधिकार में नहीं रह सकती। भारत ! वह देखो, पाण्डवों और संजयों की सेनाएं एक साथ मिलकर इस समय मुझपर बढी आ रही हैं। दुर्योधन ! अब मैं समस्त पाण्जालों को मारे बिना अपना कवच नहीं उतारूंगा। मैं समरांगण में यही कार्य करूंगा, जिससे तुम्हारा हित हो। राजन् ! तुम मेरे पुत्र अश्वत्थामा से जाकर कहना कि वह युद्ध में अपने जीवन की रक्षा करते हुए जैसे भी हो, सोम को जीवित न छोडे’। यह भी कहना कि ’पिता ने जो तुम्हें उपदेश दिया है, उसका पालन करो। दया, दम, सत्य और सरलता आदि सद्रुणों में स्थिर रहो। ’तुम धर्म, अर्थ और कामके साधन में कुशल हो। अतः धर्म और अर्थ को पीडा ने देते हुए बारंबार धर्मप्रधान कर्मो का ही अनुष्ठान करो। ’विनयपूर्ण दृष्टि और श्रद्धायुक्त हदयसे ब्राहाणों को संतुष्ट रखना, यथाशक्ति उनका आदर-सत्कार करते रहना। कभी उनका अप्रिय न करना; क्योंकि वे अग्नि की ज्वाला के समान तेजस्वी होते है’। राजन् ! शत्रुसूदन ! अब मैं तुम्हारे वाग्बाणों से पीडित हो महान् युद्ध के लिये शत्रुओं की सेना में प्रवेश करता हूं। दुर्योधन ! यदि तुममें शक्ति हो तो सेना की रक्षा करना; क्योंकि इस समय क्रोध में भरे हुए कौरव और संजय रात्रिमें भी युद्ध करेंगें। जैसे सूर्य नक्षत्रों के तेज हर लेते हैं, उसी प्रकार क्षत्रियों-के तेजका आहरण करते हुए आचार्य द्रोण दुर्योधन से पूर्वोक्त बातें कहकर पाण्डवों और संजयों से युद्ध करने के लिये चल दिये।

इसी प्रकार श्रीमहाभारत द्रोणपर्वके अन्तगर्त जयद्रथपर्व में द्रोणवाक्यविषयक एक सौ इक्यावनवाँ अध्याय पूरा हुआ।



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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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