"महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 13 श्लोक 1-13" के अवतरणों में अंतर

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तेरहवाँ अध्याय: शान्तिपर्व (राजधर्मानुशासनपर्व)

महाभारत: शान्तिपर्व : तेरहवाँ अध्याय: श्लोक 1- 13 का हिन्दी अनुवाद

सहदेव बोले- भरतनन्दन! केवल बाहरी द्रव्य का त्याग कर देने से सिद्धि नहीं मिलती, शरीर सम्बन्धी द्रव्य का त्याग करने से भी सिद्धि मिलती है या नहीं, इसमें संदेह है। बाहरी द्रव्यों से दूर होकर दैहिक सुख-भोगों में आसक्त रहने वाले को जो धर्म अथवा जो सुख प्राप्त होता हो, वह उस रूप में हमारे शत्रुओं को ही मिले। परंतु शरीर के उपयोग में आने वाले द्रव्यों की ममता त्याग कर अनासक्त भाव से पृथ्वी का शासन करने वाले राजा को जिस धर्म अथवा जिस सुख की प्राप्ति होती हो, वह हमारे हितैषी सुहृदों को मिले। दो अक्षरों का ’मम’ (यह मेरा है, ऐसा भाव) मृत्यु है और तीन अक्षरों का ’न मम’ (यह मेरा नहीं है ऐसा भाव) अमृत- सनातन ब्रहम है। राजन्! इससे सूचित होता है कि मृत्यु और अमृत ब्रह्म दोनों अपने ही भीतर स्थित हैं। वे ही अदृश्य भाव से रहकर प्राणियों को एक दूसरे से लड़ाते हैं, इसमें संशय नहीं है। भरतनन्दन! यदि इस जीवात्मा का अविनाशी होना निश्चित है, तब तो प्राणियों के शरीर का वध करने मात्र से उनकी हिंसा नहीं हो सकेगी। इसके विपरीत यदि शरीर के साथ ही जीव की उत्पत्ति तथा उसके नष्ट होने के साथ ही जीव का नाश होना माना जाय तब तो शरीर नष्ट होने पर जीव भी नष्ट ही हो जायगा; उस दशा में सारा वैदिक कर्ममार्ग ही व्यर्थ सिद्ध होगा। इसलिये विज्ञ पुरूष को एकान्त में रहने का विचार छोड़कर पूर्ववर्ती तथा अत्यन्त पूर्ववर्ती श्रेष्ठ पुरूषों ने जिस मार्ग का सेवन किया है, उसी का आश्रय लेना चाहिये। यदि आपकी दृष्टि में गृहस्थ-धर्म का पालन करते हुये राज्यशासन करना अघम मार्ग है तो स्वायत्भुव मनु तथा उन अन्य चक्रवाती नरेशों ने इसका सेवन क्यों किया था? भरतवंशी नरेश! उन नरपतियों ने उत्तम गुण वाले सत्ययुग -त्रेता आदि अनेक युगों तक इस पृथ्वी का उपभोग किया है। जो राजा चराचर प्राणियों से युक्त इस सारी पृथ्वी को पाकर इसका अच्छे ढंग से उपभोग नहीं करता, उसका जीवन निष्फल है। अथवा राजन्! बन में रहकर बन के ही फल- फूलों से जीवन-निर्वाह करते हुए भी जिस पुरूष की द्रव्यों में ममता बनी रहती है, वह मौत के ही मुख में है। भरतनन्दन! प्राणियों का बाहय स्वभाव कुछ और होता है और आन्तरिक स्वभाव कुछ और। आप उस पर गौर कीजिये। जो सबके भीतर विराजमान परमात्मा को देखते हैं, वे महान् भय से मुक्त हो जाते हैं। प्रभो! आप मेरे पिता, माता, भ्राता और गुरू हैं। मैंने आर्त हेाकर दुःख में जो- जो प्रलाप किये हैं, उन सबको आप क्षमा करें। भरतवंश भूषण भूपाल! मैंने जो कुछ भी कहा है, वह यथार्थ हो या अयथार्थ, आप के प्रति भक्ति होने के कारण ही वे बातें मेरे मुह से निकली हैं, यह आप अच्छी तरह समझ लें।

इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्व के अन्र्तगत राजधर्मानुशासन पर्व में सहदेव वाक्य विषयक तेरहवाँ अध्याय पूरा हुआ है ।



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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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