"श्रीमद्भागवत महापुराण प्रथम स्कन्ध अध्याय 1 श्लोक 1-9" के अवतरणों में अंतर

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ऋषियों ने कहा—सूतजी! आप निष्पाप हैं। आपने समस्त इतिहास, पुराण और धर्म शास्त्रों का विधिपूर्वक अध्ययन किया है तथा उनकी भलीभाँति व्याख्या भी की है । वेद वेत्ताओं में श्रेष्ठ भगवान् बादरायण ने एवं भगवान् के सगुण-निर्गुण रूप को जानने वाले दूसरे मुनियों ने जो कुछ जाना है—उन्हें जिन विषयों का ज्ञान है, वह सब आप वास्तविक रूप में जानते हैं। आपका ह्रदय बड़ा ही सरल और शुद्ध है, इसी से आप उनकी कृपा और अनुग्रह के पात्र हुए हैं। गुरुजन अपने प्रेमी शिष्य को गुप्त-से-गुप्त बात भी बता दिया करते हैं । आयुष्मान्! आप कृपा करके यह बतलाइये कि उन सब शास्त्रों, पुराणों और गुरुजनों के उपदेशों में कलियुगी जीवों के परम कल्याण का सहस साधन आपने क्या निश्चय किया है ।
 
ऋषियों ने कहा—सूतजी! आप निष्पाप हैं। आपने समस्त इतिहास, पुराण और धर्म शास्त्रों का विधिपूर्वक अध्ययन किया है तथा उनकी भलीभाँति व्याख्या भी की है । वेद वेत्ताओं में श्रेष्ठ भगवान् बादरायण ने एवं भगवान् के सगुण-निर्गुण रूप को जानने वाले दूसरे मुनियों ने जो कुछ जाना है—उन्हें जिन विषयों का ज्ञान है, वह सब आप वास्तविक रूप में जानते हैं। आपका ह्रदय बड़ा ही सरल और शुद्ध है, इसी से आप उनकी कृपा और अनुग्रह के पात्र हुए हैं। गुरुजन अपने प्रेमी शिष्य को गुप्त-से-गुप्त बात भी बता दिया करते हैं । आयुष्मान्! आप कृपा करके यह बतलाइये कि उन सब शास्त्रों, पुराणों और गुरुजनों के उपदेशों में कलियुगी जीवों के परम कल्याण का सहस साधन आपने क्या निश्चय किया है ।
  
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==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
 
==टीका टिप्पणी और संदर्भ==

१०:०८, २२ जुलाई २०१५ का अवतरण

प्रथमः स्कन्धः प्रथमोऽध्यायः(1)

श्रीमद्भागवत महापुराण: प्रथमः स्कन्धः प्रथमोऽध्यायः श्लोक 1-9 का हिन्दी अनुवाद

श्रीसूतजी से शौनकादि ऋषियों का प्रश्न मंगलाचरण जिससे इस जगत् की सृष्टि, स्थिति और प्रलय होते हैं—क्योंकि वह सभी सद्रूप पदार्थों में अनुगत है और असत् पदार्थों से पृथक् है; जड नहीं, चेतन है; परतन्त्र नहीं, स्वयं प्रकाश है; जो ब्रम्हा अथवा हिरण्यगर्भ नहीं, प्रत्युत उन्हें अपने संकल्प से ही जिसने उस वेद ज्ञान का दान दिया है; जिसके सम्बन्ध में बड़े-बड़े विद्वान् भी मोहित हो जाते हैं; जैसे तेजोमय सूर्य रश्मियों में जल का, जल में स्थल का और स्थल में जल का भ्रम होता है, वैसे ही जिसमें यह त्रिगुणमयी जाग्रत्-स्वप्न-सुषुप्तिरूपा सृष्टि मिथ्या होने पर भी अधिष्ठान-सत्ता से सत्यवत् प्रतीत हो रही है, उस अपनी स्वयं प्रकाश ज्योति से सर्वदा और सर्वथा माया और माया कार्य से पूर्णतः मुक्त रहने वाले परम सत्य रूप परमात्मा का हम ध्यान करते हैं । महामुनि व्यासदेव के द्वारा निर्मित इस श्रीमद्भागवत महापुराण में मोक्ष पर्यन्त फल की कामना से रहित परम धर्म का निरूपण हुआ है। इसमें शुद्धान्तःकरण सत्पुरुषों के जानने योग्य उस वास्तविक वस्तु परमात्मा का निरूपण हुआ है, जो तीनों तापों का जड़ से नाश करने वाली और परम कल्याण देने वाली है। अब और किसी साधन या शास्त्र से क्या प्रयोजन। जिस समय भी सुकृति पुरुष इसके श्रवण की इच्छा करते हैं, ईश्वर उसी समय अविलम्ब उनके ह्रदय में आकर बन्दी बन जाता है । रस के मर्मज्ञ भक्तजन! यह श्रीमद्भागवत वेद रूप कल्प वृक्ष का पका हुआ फल है। श्रीशुकदेव रूप तोते के मुख का सम्बन्ध हो जाने से यह परमानन्दमयी सुधा से परिपूर्ण हो गया है। इस फल में छिलका, गुठली आदि त्याज्य अंश तनिक भी नहीं है। यह मुर्तिमान् रस है। जब तक शरीर में चेतना रहे, तब तक इस दिव्य भगवद्रस का निरन्तर बार-बार पान करते रहो। यह पृथ्वी पर ही सुलभ है । कथा प्रारम्भ एक बार भगवान् विष्णु एवं देवताओं के परम पुण्यमय क्षेत्र नैमिषारण्य में शौनकादि ऋषियों ने भगवत्प्राप्ति की इच्छा से सहस्त्र वर्षों में पूरे होने वाले एक महान् यज्ञ का अनुष्ठान किया । एक दिन उन लोगों ने प्रातःकाल अग्निहोत्र आदि नित्यकृत्यों से निवृत्त होकर सूतजी का पूजन किया और उन्हें ऊँचे आसन पर बैठाकर बड़े आदर से यह प्रश्न किया । ऋषियों ने कहा—सूतजी! आप निष्पाप हैं। आपने समस्त इतिहास, पुराण और धर्म शास्त्रों का विधिपूर्वक अध्ययन किया है तथा उनकी भलीभाँति व्याख्या भी की है । वेद वेत्ताओं में श्रेष्ठ भगवान् बादरायण ने एवं भगवान् के सगुण-निर्गुण रूप को जानने वाले दूसरे मुनियों ने जो कुछ जाना है—उन्हें जिन विषयों का ज्ञान है, वह सब आप वास्तविक रूप में जानते हैं। आपका ह्रदय बड़ा ही सरल और शुद्ध है, इसी से आप उनकी कृपा और अनुग्रह के पात्र हुए हैं। गुरुजन अपने प्रेमी शिष्य को गुप्त-से-गुप्त बात भी बता दिया करते हैं । आयुष्मान्! आप कृपा करके यह बतलाइये कि उन सब शास्त्रों, पुराणों और गुरुजनों के उपदेशों में कलियुगी जीवों के परम कल्याण का सहस साधन आपने क्या निश्चय किया है ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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