"श्रीमद्भागवत महापुराण दशम स्कन्ध अध्याय 3 श्लोक 13-23" के अवतरणों में अंतर

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<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध:  तृतीय अध्याय: श्लोक 13-23 का हिन्दी अनुवाद </div>
 
<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध:  तृतीय अध्याय: श्लोक 13-23 का हिन्दी अनुवाद </div>
वसुदेवजी ने कहा—मैं समझ गया कि आप पकृति से अतीत साक्षात् पुरुषोत्तम हैं। आपका स्वरुप है केवल अनुभव और केवल आनन्द। आप समस्त बुद्धियों के एकमात्र साक्षी हैं । आप ही सर्ग के आदि में अपनी प्रकृति से इस त्रिगुणमय जगत् की सृष्टि करते हैं। फिर उसमें प्रविष्ट न होने पर भी आप प्रविष्ट के समान जान पड़ते हैं । जैसे जबतक महतत्व आदि कारण-तत्व पृथक-पृथक होती है; जब वे इन्द्रियादि सोलह विकारों के साथ मिलते हैं; तभी इस ब्रम्हाण्ड की रचना करते हैं और इसे उत्पन्न करके इसी में अनुप्रविष्ट-से-जान पड़ते हैं; परन्तु सच्ची बात तो यह है कि वे किसी भी पदार्थ में प्रवेश नहीं करते। ऐसा होने का कारण यह है कि उनसे बनी हुई जो भी वस्तु हैं, उसमें वे पहले से ही विद्यमान रहते हैं । ठीक वैसे ही बुद्धि के द्वारा केवल गुणों के लक्षणों का ही अनुमान किया जाता है और इन्द्रियों के द्वारा केवल गुणमय विषयों का ही ग्रहण होता है। यद्यपि आप उनमें रहते हैं, फिर भी उन गुणों के ग्रहण से आपका ग्रहण नहीं होता। इसका कारण यह है कि आप सब कुछ हैं, सबके अन्तर्यामी हैं और परमार्थ सत्य, आत्मस्वरूप हैं। गुणों का आवरण आपको ढक नहीं सकता। इसलिए आपमें न बाहर है न भीतर। फिर आप किसमें प्रवेश करेंगे? (इसलिए प्रवेश न करने पर भी आप प्रवेश किये हुए के समान दीखते हैं) । जो अपने इन दृश्य गुणों को अपने से पृथक् मानकर सत्य समझता है, वह अज्ञानी है। क्योंकि विचार करने पर ये देह-गेह आदि पदार्थ वाग्विलास के सिवा और कुछ नही सिद्ध होते। विचार के द्वारा जिस वस्तु का अस्तित्व सिद्ध नहीं होता, बल्कि जो बाधित हो जाती है, उसको सत्य माननेवाला पुरुष बुद्धिमान कैसे हो सकता है ?  प्रभो! कहते हैं कि आप स्वयं समस्त क्रियाओं, गुणों और विकारों से रहित हैं। फिर भी इस जगत् की सृष्टि, स्थिति और प्रलय आपसे ही होते हैं। यह बात परम ऐश्वर्यशाली परब्रम्ह परमात्मा आपके लिए असंगत नहीं है। क्योंकि तीनों गुणों के आश्रय आप ही हैं, इसलिए उन गुणों के कार्य आदि का आपमें ही आरोप किया जाता है । आप ही तीनों लोकों की रक्षा करने के लिए अपनी माया से सत्वमय शुक्लवर्ण (पोषणकारी विष्णुरूप) धारण करते हैं, उत्पत्ति के लिए रजःप्रधान रक्तवर्णी (सृजनकारी ब्रम्हारूप) और प्रलय के से तमोगुणप्रधान कृष्णवर्ण (संहारकारी रुद्ररूप) स्वीकार करते हैं । प्रभो! आप सर्वशक्तिमान और सबके स्वामी हैं। इस संसार की रक्षा के लिए ही आपने मेरे घर अवतार लिया है। आजकल कोटि-कोटि असुर सेनापतियों ने राजा का नाम धारण कर रखा है और अपने अधीन बड़ी-बड़ी सेनाएँ कर रखी हैं। आप उन सबका संहार करेंगे । देवताओं के भी आराध्यदेव प्रभो! यह कंस बड़ा दुष्ट है। इसे जब मालूम हुआ कि आपका अवतार हमारे घर होने वाला है, तब उसने आपके भय से आपके भाइयों को मार डाला। अभी उसके दूत आपके अवतार का समाचा उसे सुनायेंगे और वह अभी-अभी हाथ में शस्त्र लेकर दौड़ा आयेगा ।
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वसुदेवजी ने कहा—मैं समझ गया कि आप प्रकृति से अतीत साक्षात पुरुषोत्तम हैं। आपका स्वरुप है केवल अनुभव और केवल आनन्द। आप समस्त बुद्धियों के एकमात्र साक्षी हैं। आप ही सर्ग के आदि में अपनी प्रकृति से इस त्रिगुणमय जगत की सृष्टि करते हैं। फिर उसमें प्रविष्ट न होने पर भी आप प्रविष्ट के समान जान पड़ते हैं। जैसे जब तक महत्तत्व आदि कारण-तत्व पृथक-पृथक रहते हैं तब तक उनकी शक्ति भी पृथक होती है। जब वे इन्द्रियादि सोलह विकारों के साथ मिलते हैं; तभी इस ब्रम्हाण्ड की रचना करते हैं और इसे उत्पन्न करके इसी में अनुप्रविष्ट-से-जान पड़ते हैं; परन्तु सच्ची बात तो यह है कि वे किसी भी पदार्थ में प्रवेश नहीं करते। ऐसा होने का कारण यह है कि उनसे बनी हुई जो भी वस्तु हैं, उसमें वे पहले से ही विद्यमान रहते हैं । ठीक वैसे ही बुद्धि के द्वारा केवल गुणों के लक्षणों का ही अनुमान किया जाता है और इन्द्रियों के द्वारा केवल गुणमय विषयों का ही ग्रहण होता है। यद्यपि आप उनमें रहते हैं, फिर भी उन गुणों के ग्रहण से आपका ग्रहण नहीं होता। इसका कारण यह है कि आप सब कुछ हैं, सबके अन्तर्यामी हैं और परमार्थ सत्य, आत्मस्वरूप हैं। गुणों का आवरण आपको ढक नहीं सकता। इसलिए आपमें न बाहर है न भीतर। फिर आप किसमें प्रवेश करेंगे? (इसलिए प्रवेश न करने पर भी आप प्रवेश किये हुए के समान दीखते हैं) । जो अपने इन दृश्य गुणों को अपने से पृथक् मानकर सत्य समझता है, वह अज्ञानी है। क्योंकि विचार करने पर ये देह-गेह आदि पदार्थ वाग्विलास के सिवा और कुछ नही सिद्ध होते। विचार के द्वारा जिस वस्तु का अस्तित्व सिद्ध नहीं होता, बल्कि जो बाधित हो जाती है, उसको सत्य माननेवाला पुरुष बुद्धिमान कैसे हो सकता है ?  प्रभो! कहते हैं कि आप स्वयं समस्त क्रियाओं, गुणों और विकारों से रहित हैं। फिर भी इस जगत् की सृष्टि, स्थिति और प्रलय आपसे ही होते हैं। यह बात परम ऐश्वर्यशाली परब्रम्ह परमात्मा आपके लिए असंगत नहीं है। क्योंकि तीनों गुणों के आश्रय आप ही हैं, इसलिए उन गुणों के कार्य आदि का आपमें ही आरोप किया जाता है । आप ही तीनों लोकों की रक्षा करने के लिए अपनी माया से सत्वमय शुक्लवर्ण (पोषणकारी विष्णुरूप) धारण करते हैं, उत्पत्ति के लिए रजःप्रधान रक्तवर्णी (सृजनकारी ब्रम्हारूप) और प्रलय के से तमोगुणप्रधान कृष्णवर्ण (संहारकारी रुद्ररूप) स्वीकार करते हैं । प्रभो! आप सर्वशक्तिमान और सबके स्वामी हैं। इस संसार की रक्षा के लिए ही आपने मेरे घर अवतार लिया है। आजकल कोटि-कोटि असुर सेनापतियों ने राजा का नाम धारण कर रखा है और अपने अधीन बड़ी-बड़ी सेनाएँ कर रखी हैं। आप उन सबका संहार करेंगे । देवताओं के भी आराध्यदेव प्रभो! यह कंस बड़ा दुष्ट है। इसे जब मालूम हुआ कि आपका अवतार हमारे घर होने वाला है, तब उसने आपके भय से आपके भाइयों को मार डाला। अभी उसके दूत आपके अवतार का समाचा उसे सुनायेंगे और वह अभी-अभी हाथ में शस्त्र लेकर दौड़ा आयेगा ।
 
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! इधर देवकी ने देखा कि मेरे पुत्र में तो पुरुषोत्तम भगवान् के सभी लक्षण मौजूद हैं। पहले तो उन्हें कंस से कुछ भय मालूम हुआ, परन्तु फिर वे बड़े पवित्र भाव से मुस्कराती हुई स्तुति करने लगीं ।
 
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! इधर देवकी ने देखा कि मेरे पुत्र में तो पुरुषोत्तम भगवान् के सभी लक्षण मौजूद हैं। पहले तो उन्हें कंस से कुछ भय मालूम हुआ, परन्तु फिर वे बड़े पवित्र भाव से मुस्कराती हुई स्तुति करने लगीं ।
  

१३:११, २३ जुलाई २०१५ का अवतरण

दशम स्कन्ध: तृतीय अध्याय (पूर्वाध)

श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: तृतीय अध्याय: श्लोक 13-23 का हिन्दी अनुवाद

वसुदेवजी ने कहा—मैं समझ गया कि आप प्रकृति से अतीत साक्षात पुरुषोत्तम हैं। आपका स्वरुप है केवल अनुभव और केवल आनन्द। आप समस्त बुद्धियों के एकमात्र साक्षी हैं। आप ही सर्ग के आदि में अपनी प्रकृति से इस त्रिगुणमय जगत की सृष्टि करते हैं। फिर उसमें प्रविष्ट न होने पर भी आप प्रविष्ट के समान जान पड़ते हैं। जैसे जब तक महत्तत्व आदि कारण-तत्व पृथक-पृथक रहते हैं तब तक उनकी शक्ति भी पृथक होती है। जब वे इन्द्रियादि सोलह विकारों के साथ मिलते हैं; तभी इस ब्रम्हाण्ड की रचना करते हैं और इसे उत्पन्न करके इसी में अनुप्रविष्ट-से-जान पड़ते हैं; परन्तु सच्ची बात तो यह है कि वे किसी भी पदार्थ में प्रवेश नहीं करते। ऐसा होने का कारण यह है कि उनसे बनी हुई जो भी वस्तु हैं, उसमें वे पहले से ही विद्यमान रहते हैं । ठीक वैसे ही बुद्धि के द्वारा केवल गुणों के लक्षणों का ही अनुमान किया जाता है और इन्द्रियों के द्वारा केवल गुणमय विषयों का ही ग्रहण होता है। यद्यपि आप उनमें रहते हैं, फिर भी उन गुणों के ग्रहण से आपका ग्रहण नहीं होता। इसका कारण यह है कि आप सब कुछ हैं, सबके अन्तर्यामी हैं और परमार्थ सत्य, आत्मस्वरूप हैं। गुणों का आवरण आपको ढक नहीं सकता। इसलिए आपमें न बाहर है न भीतर। फिर आप किसमें प्रवेश करेंगे? (इसलिए प्रवेश न करने पर भी आप प्रवेश किये हुए के समान दीखते हैं) । जो अपने इन दृश्य गुणों को अपने से पृथक् मानकर सत्य समझता है, वह अज्ञानी है। क्योंकि विचार करने पर ये देह-गेह आदि पदार्थ वाग्विलास के सिवा और कुछ नही सिद्ध होते। विचार के द्वारा जिस वस्तु का अस्तित्व सिद्ध नहीं होता, बल्कि जो बाधित हो जाती है, उसको सत्य माननेवाला पुरुष बुद्धिमान कैसे हो सकता है ? प्रभो! कहते हैं कि आप स्वयं समस्त क्रियाओं, गुणों और विकारों से रहित हैं। फिर भी इस जगत् की सृष्टि, स्थिति और प्रलय आपसे ही होते हैं। यह बात परम ऐश्वर्यशाली परब्रम्ह परमात्मा आपके लिए असंगत नहीं है। क्योंकि तीनों गुणों के आश्रय आप ही हैं, इसलिए उन गुणों के कार्य आदि का आपमें ही आरोप किया जाता है । आप ही तीनों लोकों की रक्षा करने के लिए अपनी माया से सत्वमय शुक्लवर्ण (पोषणकारी विष्णुरूप) धारण करते हैं, उत्पत्ति के लिए रजःप्रधान रक्तवर्णी (सृजनकारी ब्रम्हारूप) और प्रलय के से तमोगुणप्रधान कृष्णवर्ण (संहारकारी रुद्ररूप) स्वीकार करते हैं । प्रभो! आप सर्वशक्तिमान और सबके स्वामी हैं। इस संसार की रक्षा के लिए ही आपने मेरे घर अवतार लिया है। आजकल कोटि-कोटि असुर सेनापतियों ने राजा का नाम धारण कर रखा है और अपने अधीन बड़ी-बड़ी सेनाएँ कर रखी हैं। आप उन सबका संहार करेंगे । देवताओं के भी आराध्यदेव प्रभो! यह कंस बड़ा दुष्ट है। इसे जब मालूम हुआ कि आपका अवतार हमारे घर होने वाला है, तब उसने आपके भय से आपके भाइयों को मार डाला। अभी उसके दूत आपके अवतार का समाचा उसे सुनायेंगे और वह अभी-अभी हाथ में शस्त्र लेकर दौड़ा आयेगा । श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! इधर देवकी ने देखा कि मेरे पुत्र में तो पुरुषोत्तम भगवान् के सभी लक्षण मौजूद हैं। पहले तो उन्हें कंस से कुछ भय मालूम हुआ, परन्तु फिर वे बड़े पवित्र भाव से मुस्कराती हुई स्तुति करने लगीं ।



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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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