"श्रीमद्भागवत महापुराण दशम स्कन्ध अध्याय 4 श्लोक 28-41" के अवतरणों में अंतर

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<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध:  चतुर्थ अध्याय: श्लोक 28-41 का हिन्दी अनुवाद </div>
 
<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध:  चतुर्थ अध्याय: श्लोक 28-41 का हिन्दी अनुवाद </div>
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! जब वसुदेव और देवकी ने इस प्रकार प्रसन्न होकर निष्कपटभाव से कंस के साथ बातचीत की, तब उनसे अनुमति लेकर वह अपने महल में चला गया ।वह रात्रि बीत जाने पर कंस ने अपने मन्त्रियों को बुलाया और योगमाया ने जो कुछ कहा था, वह सब उन्हें कह सुनाया । कंस के मन्त्री पूर्णतया नीतिनिपुण नहीं थे। दैत्य होने के कारण स्वभावसे ही वे देवताओं के प्रति शत्रुता का भाव रखते थे। अपने स्वामी कंस की बात सुनकर वे देवताओं पर और भी चिढ़ गये और कंस से कहने लगे । ‘भोजराज! यही ऐसी बात है तो हम आज ही बड़े-बड़े नगरों में, छोटे-छोटे गाँवों में, अहीरों की बस्तियों में और दूसरे स्थानों में जितने बच्चे हुए हैं, वे चाहे दस दिन से अधिक के हों कम के, सबको आज ही मार डालेंगे । समरभीरु देवगण युद्धोद्योग करके ही क्या करेंगे ? वे तो आपके धनुष की टंकार सुनकर ही सदा-सर्वदा घबराये रहते हैं । जिस समय युद्दभूमि में आप चोट-पर-चोट करने लगते हैं, बाण-वर्षा से घयाल होकर अपने प्राणों की रक्षा के लिए समरांगण छोड़कर देवता लोग पलायन-परायण होकर इधर-उधर भाग जाते हैं । कुछ देवता तो अपने अस्त्र-शस्त्र जमीन पर डाल देते हैं हाथ जोड़कर आपके सामने अपनी दीनता प्रकट करने लगते हैं। कोई-कोई अपनी चोटी के बाल तथा कच्छ खोलकर आपकी शान में आकर कहते हैं—‘हम भयभीत हैं, हमारी रक्षा कीजिये’ ।आप उन शत्रुओं को नहीं मारते जो अस्त्र-शस्त्र भूल गये हों, जिनका रथ टूट गया हो, जो डर गये हों, जो लोग युद्द छोड़कर अन्यमनस्क हो गये हों, जिसका धनुष टूट गया हो या जिन्होंने युद्द से अपना मुख मोड़ लिया हो—उन्हें भी आप नहीं मारते । देवता तो बस वहीँ वीर बनते हैं, जहाँ कोई लड़ाई-झगड़ा न हो। रणभूमि के बाहर वे बड़ी-बड़ी डींग हाँकते हैं। उनसे तथा एकान्तवासी विष्णु, वनवासी शंकर, अल्प्वीर्य इन्द्र और तपस्वी ब्रम्हा से भी हमें क्या भय हो सकता है फिर भी देवताओं की उपेक्षा नहीं करनी चाहिए—ऐसी हमारी राय है। क्योंकि हैं तो वे शत्रु ही। इसलिए उसकी जड़ उखाड़ फेकनें के लिए आप हम-जैसे विश्वासपात्र सेवकों को नियुक्त कर दीजिये । जब मनुष्य के शरीर में रोग हो जाता है और उसकी चिकित्सा नहीं की जाती—उपेक्षा कर दी जाती है, तब रोग अपनी जड़ जमा लेता है और फिर वह असाध्य हो जाता है। अथवा जैसे इन्द्रियों की उपेक्षा कर देने पर उनका दमन असंभव हो जाता है, वैसे ही यदि पहले शत्रु उपेक्षा कर दी जाय और वह अपना पाँव जमा ले, तो फिर उसको हराना कठिन हो जाता है । देवताओं कि जड़ है विष्णु और वह वहाँ रहता है, जहाँ सनातनधर्म है। सनातनधर्म की जड़ है—वेद, गौ, ब्राम्हण,, तपस्या और वे यज्ञ, जिसमें दक्षिणा दी जाती है । इसलिए भोजराज! हमलोग वेदवादी ब्राम्हण, तपस्वी, याज्ञिक और यज्ञ के लयी घी आदि हविष्य पदार्थ देने वाली गायों का पूर्णरूप से नाश कर डालेंगे । ब्राम्हण, गौ, वेद, तपस्या, सत्य, इन्द्रियदमन, मनोनिग्रह, श्रद्धा, दया, तितिक्षा और यज्ञ विष्णु के शरीर हैं ।
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श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित! जब वसुदेव और देवकी ने इस प्रकार प्रसन्न होकर निष्कपट भाव से कंस के साथ बातचीत की, तब उनसे अनुमति लेकर वह अपने महल में चला गया।
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वह रात्रि बीत जाने पर कंस ने अपने मन्त्रियों को बुलाया और योगमाया ने जो कुछ कहा था, वह सब उन्हें कह सुनाया। कंस के मन्त्री पूर्णतया नीति निपुण नहीं थे। दैत्य होने के कारण स्वभाव से ही वे देवताओं के प्रति शत्रुता का भाव रखते थे। अपने स्वामी कंस की बात सुनकर वे देवताओं पर और भी चिढ़ गये और कंस से कहने लगे। भोजराज! यदि ऐसी बात है तो हम आज ही बड़े-बड़े नगरों में, छोटे-छोटे गाँवों में, अहीरों की बस्तियों में और दूसरे स्थानों में जितने बच्चे हुए हैं, वे चाहे दस दिन से अधिक के हों या कम के, सबको आज ही मार डालेंगे। समरभीरु देवगण युद्धधोग करके ही क्या करेंगे? वे तो आपके धनुष की टंकार सुनकर ही सदा-सर्वदा घबराये रहते हैं। जिस समय युध्दभूमि में आप चोट-पर-चोट करने लगते हैं, बाण-वर्षा से घयाल होकर अपने प्राणों की रक्षा के लिए समरांगण छोड़कर देवता लोग पलायन-परायण होकर इधर-उधर भाग जाते हैं। कुछ देवता तो अपने अस्त्र-शस्त्र जमीन पर डाल देते हैं और हाथ जोड़कर आपके सामने अपनी दीनता प्रकट करने लगते हैं। कोई-कोई अपनी चोटी के बाल तथा कच्छ खोलकर आपकी शान में आकर कहते हैं- हम भयभीत हैं, हमारी रक्षा कीजिये। आप उन शत्रुओं को नहीं मारते जो अस्त्र-शस्त्र भूल गये हों, जिनका रथ टूट गया हो, जो डर गये हों, जो लोग युद्ध छोड़कर अन्यमनस्क हो गये हों, जिनका धनुष टूट गया हो या जिन्होंने युद्ध से अपना मुख मोड़ लिया हो, उन्हें भी आप नहीं मारते।
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देवता तो बस वहीं वीर बनते हैं, जहाँ कोई लड़ाई-झगड़ा न हो। रणभूमि के बाहर वे बड़ी-बड़ी डींग हाँकते हैं। उनसे तथा एकान्तवासी विष्णु, वनवासी शंकर, अल्प्वीर्य इन्द्र और तपस्वी ब्रह्मा से भी हमें क्या भय हो सकता है? फिर भी देवताओं की उपेक्षा नहीं करनी चाहिए, ऐसी हमारी राय है। क्योंकि हैं तो वे शत्रु ही। इसलिए उनकी जड़ उखाड़ फेकने के लिए आप हम-जैसे विश्वासपात्र सेवकों को नियुक्त कर दीजिये। जब मनुष्य के शरीर में रोग हो जाता है और उसकी चिकित्सा नहीं की जाती, उपेक्षा कर दी जाती है, तब रोग अपनी जड़ जमा लेता है और फिर वह असाध्य हो जाता है। अथवा जैसे इन्द्रियों की उपेक्षा कर देने पर उनका दमन असंभव हो जाता है, वैसे ही यदि पहले शत्रु की उपेक्षा कर दी जाय और वह अपना पाँव जमा ले, तो फिर उसको हराना कठिन हो जाता है। देवताओं की जड़ है विष्णु और वह वहाँ रहता है, जहाँ सनातन धर्म है। सनातन धर्म की जड़ है - वेद, गौ, ब्राह्मण, तपस्या और वे यज्ञ, जिसमें दक्षिणा दी जाती है। इसलिए भोजराज! हमलोग वेदवादी ब्राह्मण, तपस्वी, याज्ञिक और यज्ञ के लिए घी आदि हविष्य पदार्थ देने वाली गायों का पूर्णरूप से नाश कर डालेंगे। ब्राह्मण, गौ, वेद, तपस्या, सत्य, इन्द्रियदमन, मनोनिग्रह, श्रद्धा, दया, तितिक्षा और यज्ञ विष्णु के शरीर हैं ।
  
 
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०८:२६, २४ जुलाई २०१५ के समय का अवतरण

दशम स्कन्ध: चतुर्थ अध्याय (पूर्वार्ध)

श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: चतुर्थ अध्याय: श्लोक 28-41 का हिन्दी अनुवाद

श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित! जब वसुदेव और देवकी ने इस प्रकार प्रसन्न होकर निष्कपट भाव से कंस के साथ बातचीत की, तब उनसे अनुमति लेकर वह अपने महल में चला गया।

वह रात्रि बीत जाने पर कंस ने अपने मन्त्रियों को बुलाया और योगमाया ने जो कुछ कहा था, वह सब उन्हें कह सुनाया। कंस के मन्त्री पूर्णतया नीति निपुण नहीं थे। दैत्य होने के कारण स्वभाव से ही वे देवताओं के प्रति शत्रुता का भाव रखते थे। अपने स्वामी कंस की बात सुनकर वे देवताओं पर और भी चिढ़ गये और कंस से कहने लगे। भोजराज! यदि ऐसी बात है तो हम आज ही बड़े-बड़े नगरों में, छोटे-छोटे गाँवों में, अहीरों की बस्तियों में और दूसरे स्थानों में जितने बच्चे हुए हैं, वे चाहे दस दिन से अधिक के हों या कम के, सबको आज ही मार डालेंगे। समरभीरु देवगण युद्धधोग करके ही क्या करेंगे? वे तो आपके धनुष की टंकार सुनकर ही सदा-सर्वदा घबराये रहते हैं। जिस समय युध्दभूमि में आप चोट-पर-चोट करने लगते हैं, बाण-वर्षा से घयाल होकर अपने प्राणों की रक्षा के लिए समरांगण छोड़कर देवता लोग पलायन-परायण होकर इधर-उधर भाग जाते हैं। कुछ देवता तो अपने अस्त्र-शस्त्र जमीन पर डाल देते हैं और हाथ जोड़कर आपके सामने अपनी दीनता प्रकट करने लगते हैं। कोई-कोई अपनी चोटी के बाल तथा कच्छ खोलकर आपकी शान में आकर कहते हैं- हम भयभीत हैं, हमारी रक्षा कीजिये। आप उन शत्रुओं को नहीं मारते जो अस्त्र-शस्त्र भूल गये हों, जिनका रथ टूट गया हो, जो डर गये हों, जो लोग युद्ध छोड़कर अन्यमनस्क हो गये हों, जिनका धनुष टूट गया हो या जिन्होंने युद्ध से अपना मुख मोड़ लिया हो, उन्हें भी आप नहीं मारते।

देवता तो बस वहीं वीर बनते हैं, जहाँ कोई लड़ाई-झगड़ा न हो। रणभूमि के बाहर वे बड़ी-बड़ी डींग हाँकते हैं। उनसे तथा एकान्तवासी विष्णु, वनवासी शंकर, अल्प्वीर्य इन्द्र और तपस्वी ब्रह्मा से भी हमें क्या भय हो सकता है? फिर भी देवताओं की उपेक्षा नहीं करनी चाहिए, ऐसी हमारी राय है। क्योंकि हैं तो वे शत्रु ही। इसलिए उनकी जड़ उखाड़ फेकने के लिए आप हम-जैसे विश्वासपात्र सेवकों को नियुक्त कर दीजिये। जब मनुष्य के शरीर में रोग हो जाता है और उसकी चिकित्सा नहीं की जाती, उपेक्षा कर दी जाती है, तब रोग अपनी जड़ जमा लेता है और फिर वह असाध्य हो जाता है। अथवा जैसे इन्द्रियों की उपेक्षा कर देने पर उनका दमन असंभव हो जाता है, वैसे ही यदि पहले शत्रु की उपेक्षा कर दी जाय और वह अपना पाँव जमा ले, तो फिर उसको हराना कठिन हो जाता है। देवताओं की जड़ है विष्णु और वह वहाँ रहता है, जहाँ सनातन धर्म है। सनातन धर्म की जड़ है - वेद, गौ, ब्राह्मण, तपस्या और वे यज्ञ, जिसमें दक्षिणा दी जाती है। इसलिए भोजराज! हमलोग वेदवादी ब्राह्मण, तपस्वी, याज्ञिक और यज्ञ के लिए घी आदि हविष्य पदार्थ देने वाली गायों का पूर्णरूप से नाश कर डालेंगे। ब्राह्मण, गौ, वेद, तपस्या, सत्य, इन्द्रियदमन, मनोनिग्रह, श्रद्धा, दया, तितिक्षा और यज्ञ विष्णु के शरीर हैं ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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