"महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 142 श्लोक 34": अवतरणों में अंतर

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==द्विचत्वारिंशदधिकशततम (142) अध्याय :अनुशासनपर्व (दानधर्म पर्व)==
==द्विचत्वारिंशदधिकशततम (142) अध्याय :अनुशासन पर्व (दानधर्म पर्व)==
 
<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">महाभारत: अनुशासनपर्व: द्विचत्वारिंशदधिकशततम अध्याय: श्लोक 34 का हिन्दी अनुवाद </div>
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०८:४३, २५ जुलाई २०१५ का अवतरण

द्विचत्वारिंशदधिकशततम (142) अध्याय :अनुशासन पर्व (दानधर्म पर्व)

महाभारत: अनुशासनपर्व: द्विचत्वारिंशदधिकशततम अध्याय: श्लोक 34 का हिन्दी अनुवाद

उमादेवी बोलीं- सबको मान देने वाले महेश्वर! मैं यायावरों के धर्म को सुनना चाहती हूँ, आप महान् अनुग्रह करके मुझे यह बताइये। श्रीमहेश्वर ने कहा- भामिनि! तुम तत्पर होकर यायावरों के धर्म सुनो। व्रत और उपवास से उनके अंग-प्रत्यंग शुद्ध हो जाते हैं तथा वे तीर्थ-स्नान में तत्पर रहते हैं। उनमें धैर्य और क्षमा का भाव होता है। वे सत्यव्रत-परायण होकर एक-एक पक्ष और एक-एक मास का उपवास करके अत्यन्त दुर्बल हो जाते हैं। उनकी दृष्टि सदा धर्म पर ही रहती है। पवित्र मुसकान वाली देवि! वे सर्दी, गर्मी और वर्षा का कष्ट सहन करते हुए बड़ी भारी तपस्या करते हैं और कालयोग से मृत्यु को प्राप्त होकर स्वर्गलोक में जाते हैं। वहाँ भी नाना प्रकार के भोगों से संयुक्त और दिव्यगन्ध से सम्पन्न हो दिव्य आभूषण धारण करके सुन्दर विमानों पर बैठते और दिव्यांगनाओं के साथ इच्छानुसार विहार करते हैं। देवि! यह सब यायावरों का धर्म मैंने तुम्हें बताया। अब और क्या सुनना चाहती हो? उमा ने कहा- प्रभो! वानप्रस्थ ऋषियों में जो चक्रचर (छकड़े से यात्रा करने वाले) हैं उनके धर्म को मैं जानना चाहती हूँ। श्रीमहेश्वर ने कहा- शुभे! यह मैं तुम्हें बता रहा हूँ। चक्रचारी या शाकटिक मुनियों का धर्म सुनो। वे अपनी स्त्रियों के साथ सदा छकड़ों के बोझ ढोते हुए यथासमय छकड़ों द्वारा ही जाकर भिक्षा की याचना करते हैं। सदा तपस्या के उपार्जन में लगे रहते हैं। वे धीर मुनि तपस्या द्वारा अपने सारे पापों का नाश कर डालते हैं तथा काम और क्रोध से रहित हो सम्पूर्ण दिशाओं में पर्यटन करते हैं। शोभने! उसी जीवनचर्या से रहित हुए वे कालयोग से मृत्यु को प्राप्त होकर स्वर्ग में जाते हैं और वहाँ दिव्य भोगों से आनन्दित हो अपने मौज से घूमते-फिरते हैं। देवि! तुम्हारे इस प्रश्न का भी उत्तर दे दिया, अब और क्या सुनना चाहती हो।

उमा ने कहा- प्रभो! अब मैं वैखानसों का धर्म सुनना चाहती हूँ। श्रीमहेश्वर ने कहा- शुभेक्षणे! वे जो वैखानस नाम वाले वानप्रस्थ हैं, बड़ी कठोर तपस्या में संलग्न रहते हैं। अपने तेज से देदीप्यमान होते हैं। सत्यव्रत परायण और धीर होते हैं। उनकी तपस्या में पाप का लेश भी नहीं होता है। उनमें से कुछ लोग अश्मकुट्ट (पत्थर से ही अन्न या फल को कूँचकर खाने वाले) होते हैं। दूसरे दाँतों से ही ओखली का काम लेते हैं, तीसरे सूखे पत्ते चबाकर रहते हैं, चैथे उन्छवृत्ति से जीविका चलाने वाले होते हैं। कुछ कापोती वृत्तिका आश्रय लेकर कबूतरों के समान अन्न के एक-एक दाने बीनते हैं। कुछ लोग पशुचर्या को अपनाकर पशुओं के साथ ही चलते और उन्हीं की भाँति तृण खाकर रहते हैं। दूसरे लोगब फेन चाटकर रहते हैं तथा अन्य बहुतेरे वैखानस मृगचर्या का आश्रय लेकर मृगों के समान उन्हीं के साथ विचरते हैं। कुछ लोग जल पीकर रहते, कुछ लोग हवा खाकर निर्वाह करते और कितने ही निराहार रह जाते हैं। कुछ लोग भगवान् विष्णु के चरणारविन्दों का उत्तम रीति से पूजन करते हैं। वे रोग और मृत्यु से रहित हो घोर तपस्या करते हैं और अपनी ही शक्ति से प्रतिदिन मृत्यु को डराया करते हैं। उनके लिये इन्द्रलोक में ढेर-के-ढेर भोग संचित रहते हैं। वे देवतुल्य भोगों से सम्पन्न हो देवताओं की समानता प्राप्त कर लेते हैं। सती साध्वी देवि! वे चिरकाल तक श्रेष्ठ अप्सराओं के साथ रहकर सुख का अनुभव करते हैं। यह तुमसे वैखानसों का धर्म बताया गया, अब और क्या सुनना चाहती हो? उमा ने कहा- भगवन्! अब मैं तपस्या के धीन वालखिल्यों का परिचय सुनना चाहती हूँ। श्रीमहेश्वर ने कहा- देवि! वालखिल्यों की धर्मचर्या का वर्णन सुनो। वे मृगछाला पहनते हैं, शीत-उष्ण आदि द्वन्द्वों का उन पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता है। तपस्या ही उनका धन है। सुश्रोणि! उनके शरीर की लम्बाई एक अंगूठे के बराबर है, उन्हीं शरीरों में वे सब एक साथ्ज्ञ रहते हैं। वे प्रतिदिन नाना प्रकार के स्तोत्रों द्वारा निन्तर उगते हुए सूर्य की स्तुति करते हुए सहसा आगे बढ़ते जाते हैं और अपनी सूर्यतुल्य किरणों से सम्पूर्ण दिशाओं को प्रकाशित करते रहते हैं। वे सब-के-सब धर्मज्ञ और सत्यवादी हैं। उन्हीं में लोकरक्षा के लिये निर्मल सत्य प्रतिष्ठित है। देवि! उन वालखिल्यों के ही तपोबल से यह सारा जगत टिका हुआ है। पवित्र मुसकानवाली महाभागे! उन्हीं महात्माओं की तपस्या, सत्य और क्षमा के प्रभाव से सम्पूर्ण भूतों की स्थिति बनी हुई है, ऐसा मनीषी पुरूष मानते हैं। महान पुरूष समस्त प्रजावर्ग तथा सम्पूर्ण लोकों के हित के लिये तपस्या करते हैं। तपस्या से सब कुछ प्राप्त होता है। तपस्या से अभीष्ट फल की प्राप्ति होती है। लोक में जो दुर्लभ वस्तु है, वह भी तपस्या से सुलभ हो जाती है। उमा ने पूछा-देव! जो तपस्या के धनी तपस्वी अपने आश्रम धर्म में ही रम रहे हैं, वे किस आचरण से तपस्वी होते हैं?


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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