"महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 15 श्लोक 18-34": अवतरणों में अंतर

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१०:०४, २६ जुलाई २०१५ का अवतरण

पंद्रहवाँ अध्याय: शान्तिपर्व (राजधर्मानुशासनपर्व)

महाभारत: शान्तिपर्व : पंद्रहवाँ अध्याय: श्लोक 25- 44 का हिन्दी अनुवाद

जल में बहुतेरे जीव हैं, पृथ्वी पर तथा वृक्ष के फलों में भी बहुत-से कीड़े होते हैं। कोई भी ऐसा मनुष्य नहीं है, जो इनमें से किसी को कभी न मारता हो। यह सब जीवन-निर्वाह के सिवा और क्या है? कितने ही ऐसे सूक्ष्य योनि के जीव है, जो अनुमान से ही जाने जाते हैं। मनुष्य की पलकों के गिरने मात्र से जिनके कंधे टूट जाते हैं (ऐसे जीवों की हिंसा से कोई कहा तक बच सकता है?)। कितने ही मुनि क्रोध और ईष्र्या से रहित हो गाव से निकलकर बन में चले जाते हैं और वहीं मोहवश गृहस्थ धर्म में अनुरक्त दिखायी देते हैं। मनुष्य धरती को खोदकर तथा ओषधियों; वृक्षों, लताओं, पक्षियेां और पशुओं का उच्छेद करके यज्ञ का अनुष्ठान करते हैं और वे स्वर्ग में भी चले जाते हैं। कुन्तीनन्दन! दण्डनीतिका ठीक-ठीक प्रयोग होने पर समस्त प्राणियों के सभी कार्य अच्छी तरह सिद्ध होते हैं, इसमें मुझे संशय नहीं है। यदि संसार में दण्ड न रहे तो यह सारी प्रजा नष्ट हो जाय और जैसे जल में बडे मत्स्य छोटी मछलियों को खा जाते हैं, उसी प्रकार प्रबल जीव दुर्बल जीवों को अपना आहार बना लें। ब्राह्म जी ने पहले ही इस सत्य को बता दिया है कि अच्छी तरह प्रयोग में लाया हुआ दण्ड प्रजाजनों की रक्षा करता है। देखो, जब आग बुझने लगती है, तब वह फूककी फटकार पड़ने पर डर जाती और दण्ड के भय से फिर प्रज्वलित हो उठती है। यदि संसार में भले-बुरे का विभाग करने वाला दण्ड न हो तो सब जगह अंधेर मच जाय और किसी को कुछ सूझ न पडे़। जो धर्म की मर्यादा नष्ट करके वेदों की निन्दा करने वाले नास्तिक मनुष्य हैं, वे भी डंडे पड़ने पर उससे पीड़ित हो शीघ्र ही रह पर आ जाते हैं- मर्याद-पालन के लिये तैयार हो जाते हैं। सारा जगत् दण्ड से विवश हेाकर ही रास्ते पर रहता है; क्यों कि स्वभावतः सर्वथा शुद्ध मनुष्य मिलना कठिन है। दण्ड के भय से डरा हुआ मनुष्य ही मर्यादा-पालन में प्रवृत्त होता है। विधाता ने दण्ड का विधान इस उद्देश्य से किया है कि चारों वर्णा के लोग आनन्द से रहें, सब में अच्छी नीति का बर्ताव हो तथा पृथ्वी पर धर्म और अर्थ की रक्षा रहे। यदि पक्षी और हिंसक जीव दण्ड के भय से डरते न होते तो वे पशुओं, मनुष्यों और यज्ञ के लिये रक्खे हुए हिवष्यों को खा जाते। यदि दण्ड मर्यादा की रक्षा न करे तो ब्रहमचारी वेदों के अध्ययन में न लगे, सीधी गौ भी दूध न दुहावे और कन्या व्याह न करे। यदि दण्ड मर्यादा का पालन न करावे तो चारों ओर से धर्म-कर्म का लोप हो जाय, सारी मर्यादाएं टूट जासॅ और लोग यह भी न जानें कि कौन वस्तु मेरी है और कौन नहीं? यदि दण्ड धर्म का पालन न करावे तो विधिपूर्वक दक्षिणओं से युक्त संवत्सर यज्ञ भी बेखट के न होने पावे। यदि दण्ड मर्यादा का पालन न करावे तो लोग आश्रमों में रहकर विधिपूर्वक शास्त्रोंक्त धर्म का पालन न करें और कोई विद्या भी न पढे़ सके। यदि दण्ड का कर्तव्य का पालन न करावे तो ऊॅट , बैल, घोडे़, खच्चर और गदहे रथों में जोत दिये जाने पर भी उन्हें ढोकर ले न जायॅं। यदि दण्ड धर्म और कर्तव्य का पालन न करावे तो सेवक स्वामी की बात न माने, बालक भी कभी मा- बाप की आज्ञा का पालन न करें और युवती स्त्री भी अपने सती धर्म में स्थिर न रहे। दण्ड पर ही सारी प्रजा टिकी हुई है, दण्ड से ही भय होता है, ऐसी विद्वानों की मान्यता है। मुनष्यों का इहलोक और स्वर्गलोक दण्ड पर ही प्रतिष्ठित है। जहां शत्रुओं का विनाश करने वाला दण्ड सुन्दर ढंग से संचालित हो रहा है, वहां छल, पाप और ठगी भी नहीं देखने में आती है।



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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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