"महाभारत द्रोण पर्व अध्याय 17 श्लोक 21-39": अवतरणों में अंतर
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== | ==सप्तदश (17) अध्याय: द्रोण पर्व (संशप्तकवध पर्व )== | ||
<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">महाभारत: | <div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">महाभारत: द्रोण पर्व: सप्तदश अध्याय: श्लोक 21-39 का हिन्दी अनुवाद</div> | ||
उन सभी ने समस्त प्राणियों के सुनते हुए अर्जुन का वध करने के लिये प्रतिज्ञा की और उच्च स्वर से यह बात कही। यदि हम लोग अर्जुन को युद्ध मे मारे बिना लौट आवें अथवा उनके बाणों से पीडित हो भय के कारण युद्ध से पराड्मुख हो जाये तो हमें वे ही पापमय लोक प्राप्त हों जो व्रत का पालन न करने वाले, ब्रह्माहत्यारे, मघ पीने वाले, गुरू स्त्रीगामी, ब्राह्राण के धन का अपहरण करने वाले, राजा की दी हुई जीविका को छीन लेने वाले, शरणागत को त्याग देनेवाले, याचक को मारने वाले, घर मे आग लगाने वाले, गोवध करने वाले, दूसरों की बुराई में लगे रहने वाले, ब्राह्माणों से द्वेष रखने वाले, ऋतुकाल मे भी मोहवश अपनी पत्नी के साथ समागन न करने वाले, श्राद्ध के दिन मैथुन करने वाले, अपनी जाति छिपाने वाले, धरोहर को हड़प लेने वाले, अपनी प्रतिज्ञा तोड़ने वाले, नपुंसक के साथ युद्ध करने वाले, नीच पुरूषों का सग करने वाले, ईश्वर और परलोक पर विश्वास न करने वाले, माता और पिता की सेवा का परित्याग करने वाले, खेती को पैरों से कुचलकर नष्ट कर देने वाले, सूर्य की और मॅुह करके मूत्र त्याग करने वाले तथा पापपरायण पुरूषों को प्राप्त होते है। यदि आज हम युद्ध में अर्जुन को मारकर लोक में असम्भव माने जाने वाले कर्म को भी कर लेंगे तो मनोवाछित पुण्यलोकों को प्राप्त करेंगे, इसमें संशय नहीं हैं। राजन् ! ऐसा कहकर वे वीर संशप्तकगण उस समय अर्जुन को ललकारते हुए युद्धस्थल में दक्षिण दिशा की ओर जाकर खड़े हो गये। उन पुरूष सिंह संशप्तकों द्वारा ललकारे जाने पर शत्रु नगरी पर विजय पाने वाले कुन्ती कुमार अर्जुन तुरंत ही धर्मराज युधिष्ठिर से इस प्रकार बोले । राजन् ! मेरा यह निश्चित व्रत है कि यदि कोई मुझे युद्ध के लिये बुलाये तो मैं पीछे नही हटूँगा । ये संशप्तक मुझे महायुद्ध में बुला रहे हैं। | विभिन्न देशों से आये हुए दस हजार श्रेष्ठ महारथी भी वहॉ शपथ लेने के लिये उठकर गये । उन सबने पृथक-पृथक अग्निदेव की पूजा करके हवन किया तथा कुश के चीर और विचित्र कवच धारण कर लिये। कवच बाँधकर कुश-चीर धारण कर लेने के पश्चात् उन्होंने अपने अंगों में घी लगाया और मौवीं नामक तृणविशेष की बनी हुई मेखला धारण की । वे सभी वीर पहले यज्ञ करके लाखों स्वर्ण मुद्राएं दक्षिणा में बांट चुके थे। उन सबने पूर्वकाल में यज्ञों का अनुष्ठान किया था, वे सभी पुत्र भगवान तथा पुण्यलोकों में जाने के अधिकारी थे, उन्होने अपने कर्तव्यों को पूरा कर लिया था । वे हर्षपूर्वक युद्ध में अपने शरीर का त्याग करने को अघत थे और अपने आपको यश एवं विजय से संयुक्त करने जा रहे थे। ब्रह्माचर्य पालन, वेदों के स्वाध्याय तथा पर्याप्त दक्षिणा वाले यज्ञों के अनुष्ठान आदि साधनों से जिन पुण्य लोकों की प्राप्ति होती है, उन सबमें वे उत्तम युद्ध के द्वारा ही शीघ्र पहुँचने की इच्छा रखते थे। ब्राह्माणों को भोजन आदि से तृप्त करके उन्हें अलग-अलग स्वर्णमुद्राओं, गौओं तथा वस्त्रों की दक्षिणा देकर परस्पर बातचीत करके उन्होंने वहॉ एकत्र हुए श्रेष्ठ ब्राह्माणों द्वारा स्वस्तिवाचन कराया, आशीर्वाद प्राप्त किया और हर्षोल्लासपूर्वक निर्मल जल का स्पर्श करके अग्नि को प्रज्वलित किया । फिर समीप आकर युद्ध का व्रत ले अग्नि के सामने ही दृढ़निश्चय पूर्वक प्रतिज्ञा की। | ||
उन सभी ने समस्त प्राणियों के सुनते हुए अर्जुन का वध करने के लिये प्रतिज्ञा की और उच्च स्वर से यह बात कही। यदि हम लोग अर्जुन को युद्ध मे मारे बिना लौट आवें अथवा उनके बाणों से पीडित हो भय के कारण युद्ध से पराड्मुख हो जाये तो हमें वे ही पापमय लोक प्राप्त हों जो व्रत का पालन न करने वाले, ब्रह्माहत्यारे, मघ पीने वाले, गुरू स्त्रीगामी, ब्राह्राण के धन का अपहरण करने वाले, राजा की दी हुई जीविका को छीन लेने वाले, शरणागत को त्याग देनेवाले, याचक को मारने वाले, घर मे आग लगाने वाले, गोवध करने वाले, दूसरों की बुराई में लगे रहने वाले, ब्राह्माणों से द्वेष रखने वाले, ऋतुकाल मे भी मोहवश अपनी पत्नी के साथ समागन न करने वाले, श्राद्ध के दिन मैथुन करने वाले, अपनी जाति छिपाने वाले, धरोहर को हड़प लेने वाले, अपनी प्रतिज्ञा तोड़ने वाले, नपुंसक के साथ युद्ध करने वाले, नीच पुरूषों का सग करने वाले, ईश्वर और परलोक पर विश्वास न करने वाले, माता और पिता की सेवा का परित्याग करने वाले, खेती को पैरों से कुचलकर नष्ट कर देने वाले, सूर्य की और मॅुह करके मूत्र त्याग करने वाले तथा पापपरायण पुरूषों को प्राप्त होते है। यदि आज हम युद्ध में अर्जुन को मारकर लोक में असम्भव माने जाने वाले कर्म को भी कर लेंगे तो मनोवाछित पुण्यलोकों को प्राप्त करेंगे, इसमें संशय नहीं हैं। राजन् ! ऐसा कहकर वे वीर संशप्तकगण उस समय अर्जुन को ललकारते हुए युद्धस्थल में दक्षिण दिशा की ओर जाकर खड़े हो गये। उन पुरूष सिंह संशप्तकों द्वारा ललकारे जाने पर शत्रु नगरी पर विजय पाने वाले कुन्ती कुमार अर्जुन तुरंत ही धर्मराज युधिष्ठिर से इस प्रकार बोले । राजन् ! मेरा यह निश्चित व्रत है कि यदि कोई मुझे युद्ध के लिये बुलाये तो मैं पीछे नही हटूँगा । ये संशप्तक मुझे महायुद्ध में बुला रहे हैं। | |||
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०६:२३, २८ जुलाई २०१५ का अवतरण
सप्तदश (17) अध्याय: द्रोण पर्व (संशप्तकवध पर्व )
विभिन्न देशों से आये हुए दस हजार श्रेष्ठ महारथी भी वहॉ शपथ लेने के लिये उठकर गये । उन सबने पृथक-पृथक अग्निदेव की पूजा करके हवन किया तथा कुश के चीर और विचित्र कवच धारण कर लिये। कवच बाँधकर कुश-चीर धारण कर लेने के पश्चात् उन्होंने अपने अंगों में घी लगाया और मौवीं नामक तृणविशेष की बनी हुई मेखला धारण की । वे सभी वीर पहले यज्ञ करके लाखों स्वर्ण मुद्राएं दक्षिणा में बांट चुके थे। उन सबने पूर्वकाल में यज्ञों का अनुष्ठान किया था, वे सभी पुत्र भगवान तथा पुण्यलोकों में जाने के अधिकारी थे, उन्होने अपने कर्तव्यों को पूरा कर लिया था । वे हर्षपूर्वक युद्ध में अपने शरीर का त्याग करने को अघत थे और अपने आपको यश एवं विजय से संयुक्त करने जा रहे थे। ब्रह्माचर्य पालन, वेदों के स्वाध्याय तथा पर्याप्त दक्षिणा वाले यज्ञों के अनुष्ठान आदि साधनों से जिन पुण्य लोकों की प्राप्ति होती है, उन सबमें वे उत्तम युद्ध के द्वारा ही शीघ्र पहुँचने की इच्छा रखते थे। ब्राह्माणों को भोजन आदि से तृप्त करके उन्हें अलग-अलग स्वर्णमुद्राओं, गौओं तथा वस्त्रों की दक्षिणा देकर परस्पर बातचीत करके उन्होंने वहॉ एकत्र हुए श्रेष्ठ ब्राह्माणों द्वारा स्वस्तिवाचन कराया, आशीर्वाद प्राप्त किया और हर्षोल्लासपूर्वक निर्मल जल का स्पर्श करके अग्नि को प्रज्वलित किया । फिर समीप आकर युद्ध का व्रत ले अग्नि के सामने ही दृढ़निश्चय पूर्वक प्रतिज्ञा की। उन सभी ने समस्त प्राणियों के सुनते हुए अर्जुन का वध करने के लिये प्रतिज्ञा की और उच्च स्वर से यह बात कही। यदि हम लोग अर्जुन को युद्ध मे मारे बिना लौट आवें अथवा उनके बाणों से पीडित हो भय के कारण युद्ध से पराड्मुख हो जाये तो हमें वे ही पापमय लोक प्राप्त हों जो व्रत का पालन न करने वाले, ब्रह्माहत्यारे, मघ पीने वाले, गुरू स्त्रीगामी, ब्राह्राण के धन का अपहरण करने वाले, राजा की दी हुई जीविका को छीन लेने वाले, शरणागत को त्याग देनेवाले, याचक को मारने वाले, घर मे आग लगाने वाले, गोवध करने वाले, दूसरों की बुराई में लगे रहने वाले, ब्राह्माणों से द्वेष रखने वाले, ऋतुकाल मे भी मोहवश अपनी पत्नी के साथ समागन न करने वाले, श्राद्ध के दिन मैथुन करने वाले, अपनी जाति छिपाने वाले, धरोहर को हड़प लेने वाले, अपनी प्रतिज्ञा तोड़ने वाले, नपुंसक के साथ युद्ध करने वाले, नीच पुरूषों का सग करने वाले, ईश्वर और परलोक पर विश्वास न करने वाले, माता और पिता की सेवा का परित्याग करने वाले, खेती को पैरों से कुचलकर नष्ट कर देने वाले, सूर्य की और मॅुह करके मूत्र त्याग करने वाले तथा पापपरायण पुरूषों को प्राप्त होते है। यदि आज हम युद्ध में अर्जुन को मारकर लोक में असम्भव माने जाने वाले कर्म को भी कर लेंगे तो मनोवाछित पुण्यलोकों को प्राप्त करेंगे, इसमें संशय नहीं हैं। राजन् ! ऐसा कहकर वे वीर संशप्तकगण उस समय अर्जुन को ललकारते हुए युद्धस्थल में दक्षिण दिशा की ओर जाकर खड़े हो गये। उन पुरूष सिंह संशप्तकों द्वारा ललकारे जाने पर शत्रु नगरी पर विजय पाने वाले कुन्ती कुमार अर्जुन तुरंत ही धर्मराज युधिष्ठिर से इस प्रकार बोले । राजन् ! मेरा यह निश्चित व्रत है कि यदि कोई मुझे युद्ध के लिये बुलाये तो मैं पीछे नही हटूँगा । ये संशप्तक मुझे महायुद्ध में बुला रहे हैं।
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