"महाभारत द्रोण पर्व अध्याय 29 श्लोक 36-51": अवतरणों में अंतर
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== | ==एकोनत्रिंश (29) अध्याय: द्रोण पर्व (संशप्तकवध पर्व )== | ||
<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">महाभारत: | <div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">महाभारत: द्रोण पर्व: एकोनत्रिंश अध्याय: श्लोक 36-51 का हिन्दी अनुवाद</div> | ||
पार्थ ! नरकासुर से वह मेरा अस्त्र इस प्राग्ज्योतिष नरेश भगदत्त को प्राप्त हुआ । आर्य ! इन्द्र तथा रूद्र सहित तीनों लोकों में कोई भी ऐसा वीर नही है, जो इस अस्त्र के लिये अवध्य हो। अत: मैने तुम्हारी रक्षा के लिये उस अस्त्र को दूसरे प्रकार से उसके पास से हटा दिया है । पार्थ ! अब वह महान् असुर उस उत्कुष्ट अस्त्र से वचित हो गया है । अत: तुम उसे मार डालो। दुर्जय वीर भगदत्त तुम्हारा वैरी और देवताओं का द्रोही है । अत: तुम उसका वध कर डालो; जैसे कि मैने पूर्वकाल में लोकहित के लिये नरकासुर का संहार किया था। महात्मा केशव के ऐसा कहने पर कुन्ती कुमार अर्जुन उसी समय भगदत्त पर सहसा पैने बाणों की वर्षा करने लगे। तत्पश्चात् महाबाहु महामना पार्थने बिना किसी घबराहट के हाथी के कुम्भस्थल में एक नाराच का प्रहार किया। वह नाराच उस हाथी के मस्तक पर पहॅुचकर उसी प्रकार लगा, जैसे वज्र पर्वत पर चोट करता है । जैसे सर्प बॉबी में समा जाता है, उसी प्रकार वह बाण हाथी के कुम्भस्थल में पंख सहित घुस गया। वह हाथी बारंबार भगदत्त के हांकने पर भी उनकी आज्ञा का पालन नही करता था, जैसे दुष्टा स्त्री अपने दरिद्र स्वामी की बात नही मानती है। उस महान् गजराज ने अपने अंगो को निश्चेष्ट करके दोनो दॉत धरती पर टेक दिये और आर्तस्वर से चीत्कार करके प्राण त्याग दिये। तदनन्तर भगवान श्रीकृष्ण ने गाण्डीवधारी अर्जुनसे कहा- कुन्तीनन्दन ! यह भगदत्त बहुत बड़ी अवस्था का है । इसके सारे बाल पक गये हैं और ललाट आदि अंगो में झुर्रियॉ पड़ जानेके कारण पलकें झपी रहने से इसके नेत्र प्राय: बंद से रहते हैं । यह शूरवीर तथा अत्यन्त दुर्जय है । इस राजाने अपने दोनों नेत्रों को खुले रखने के लिये पलकों को कपड़े की पटटी से ललाट में बॉध रक्खा है। भगवान श्रीकृष्ण के कहने से अर्जुन ने बाण मारकर भगदत्त के शिर की पटअी अत्यन्त छिन्न-भिन्न कर दी । उस पटटी के कटते ही भगदत्त की ऑखे बंद हो गयीं। फिर तो प्रतापी भगदत्त को सारा जगत् अन्धकारमय प्रतीत होने लगा । उस समय झुकी हुई गॉठवाले एक अर्धचन्द्राकार बाण के द्वारा पाण्डुनन्दन अर्जुन ने राजा भगदत्त के वक्ष:स्थल को विदिर्ण कर दिया। किरीटधारी अर्जुन के द्वारा हृदय विदिर्ण कर दिये जाने पर राजा भगदत्त ने प्राण शून्य हो अपने धनुष बाण त्याग दिये । उनके सिर से पगड़ी और पटटी का वह सुन्दर वस्त्र खिसककर गिर गया, जैसे कमलनाल के ताडन से उसका पत्ता टूटकर गिर जाता है। सोने के आभूषणों से विभूषित उस पर्वताकार हाथीसे सुवर्णमालाधारी भगदत्त पृथ्वीपर गिर पड़े, मानो सुन्दर पुष्पों से सुशोभित करनेका वृक्ष हवा के वेग से टूटकर पर्वत के शिखर से नीचे गिर पड़ा हो।राजन ! इस प्रकार इन्द्रकुमार अर्जुन इन्द्र के सखा तथा इन्द्र के समान ही पराक्रमी राजा भगदत्त को युद्ध में मारकर आपकी सेना के अन्य विजयालिभाषी वीर पुरूषों को भी उसी प्रकार मार गिराया, जैसे प्रबल वायु वृक्षों को उखाड़ फेकती है। | पार्थ ! नरकासुर से वह मेरा अस्त्र इस प्राग्ज्योतिष नरेश भगदत्त को प्राप्त हुआ । आर्य ! इन्द्र तथा रूद्र सहित तीनों लोकों में कोई भी ऐसा वीर नही है, जो इस अस्त्र के लिये अवध्य हो। अत: मैने तुम्हारी रक्षा के लिये उस अस्त्र को दूसरे प्रकार से उसके पास से हटा दिया है । पार्थ ! अब वह महान् असुर उस उत्कुष्ट अस्त्र से वचित हो गया है । अत: तुम उसे मार डालो। दुर्जय वीर भगदत्त तुम्हारा वैरी और देवताओं का द्रोही है । अत: तुम उसका वध कर डालो; जैसे कि मैने पूर्वकाल में लोकहित के लिये नरकासुर का संहार किया था। महात्मा केशव के ऐसा कहने पर कुन्ती कुमार अर्जुन उसी समय भगदत्त पर सहसा पैने बाणों की वर्षा करने लगे। तत्पश्चात् महाबाहु महामना पार्थने बिना किसी घबराहट के हाथी के कुम्भस्थल में एक नाराच का प्रहार किया। वह नाराच उस हाथी के मस्तक पर पहॅुचकर उसी प्रकार लगा, जैसे वज्र पर्वत पर चोट करता है । जैसे सर्प बॉबी में समा जाता है, उसी प्रकार वह बाण हाथी के कुम्भस्थल में पंख सहित घुस गया। वह हाथी बारंबार भगदत्त के हांकने पर भी उनकी आज्ञा का पालन नही करता था, जैसे दुष्टा स्त्री अपने दरिद्र स्वामी की बात नही मानती है। उस महान् गजराज ने अपने अंगो को निश्चेष्ट करके दोनो दॉत धरती पर टेक दिये और आर्तस्वर से चीत्कार करके प्राण त्याग दिये। तदनन्तर भगवान श्रीकृष्ण ने गाण्डीवधारी अर्जुनसे कहा- कुन्तीनन्दन ! यह भगदत्त बहुत बड़ी अवस्था का है । इसके सारे बाल पक गये हैं और ललाट आदि अंगो में झुर्रियॉ पड़ जानेके कारण पलकें झपी रहने से इसके नेत्र प्राय: बंद से रहते हैं । यह शूरवीर तथा अत्यन्त दुर्जय है । इस राजाने अपने दोनों नेत्रों को खुले रखने के लिये पलकों को कपड़े की पटटी से ललाट में बॉध रक्खा है। भगवान श्रीकृष्ण के कहने से अर्जुन ने बाण मारकर भगदत्त के शिर की पटअी अत्यन्त छिन्न-भिन्न कर दी । उस पटटी के कटते ही भगदत्त की ऑखे बंद हो गयीं। फिर तो प्रतापी भगदत्त को सारा जगत् अन्धकारमय प्रतीत होने लगा । उस समय झुकी हुई गॉठवाले एक अर्धचन्द्राकार बाण के द्वारा पाण्डुनन्दन अर्जुन ने राजा भगदत्त के वक्ष:स्थल को विदिर्ण कर दिया। किरीटधारी अर्जुन के द्वारा हृदय विदिर्ण कर दिये जाने पर राजा भगदत्त ने प्राण शून्य हो अपने धनुष बाण त्याग दिये । उनके सिर से पगड़ी और पटटी का वह सुन्दर वस्त्र खिसककर गिर गया, जैसे कमलनाल के ताडन से उसका पत्ता टूटकर गिर जाता है। सोने के आभूषणों से विभूषित उस पर्वताकार हाथीसे सुवर्णमालाधारी भगदत्त पृथ्वीपर गिर पड़े, मानो सुन्दर पुष्पों से सुशोभित करनेका वृक्ष हवा के वेग से टूटकर पर्वत के शिखर से नीचे गिर पड़ा हो।राजन ! इस प्रकार इन्द्रकुमार अर्जुन इन्द्र के सखा तथा इन्द्र के समान ही पराक्रमी राजा भगदत्त को युद्ध में मारकर आपकी सेना के अन्य विजयालिभाषी वीर पुरूषों को भी उसी प्रकार मार गिराया, जैसे प्रबल वायु वृक्षों को उखाड़ फेकती है। | ||
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इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोणपर्व के अन्तर्गत संशप्तकवधपर्व में भगदत्त वध विषयक उन्तीसवाँ अध्याय पूरा हुआ। | इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोणपर्व के अन्तर्गत संशप्तकवधपर्व में भगदत्त वध विषयक उन्तीसवाँ अध्याय पूरा हुआ। | ||
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==टीका टिप्पणी और संदर्भ== | ==टीका टिप्पणी और संदर्भ== |
०५:११, २९ जुलाई २०१५ का अवतरण
एकोनत्रिंश (29) अध्याय: द्रोण पर्व (संशप्तकवध पर्व )
पार्थ ! नरकासुर से वह मेरा अस्त्र इस प्राग्ज्योतिष नरेश भगदत्त को प्राप्त हुआ । आर्य ! इन्द्र तथा रूद्र सहित तीनों लोकों में कोई भी ऐसा वीर नही है, जो इस अस्त्र के लिये अवध्य हो। अत: मैने तुम्हारी रक्षा के लिये उस अस्त्र को दूसरे प्रकार से उसके पास से हटा दिया है । पार्थ ! अब वह महान् असुर उस उत्कुष्ट अस्त्र से वचित हो गया है । अत: तुम उसे मार डालो। दुर्जय वीर भगदत्त तुम्हारा वैरी और देवताओं का द्रोही है । अत: तुम उसका वध कर डालो; जैसे कि मैने पूर्वकाल में लोकहित के लिये नरकासुर का संहार किया था। महात्मा केशव के ऐसा कहने पर कुन्ती कुमार अर्जुन उसी समय भगदत्त पर सहसा पैने बाणों की वर्षा करने लगे। तत्पश्चात् महाबाहु महामना पार्थने बिना किसी घबराहट के हाथी के कुम्भस्थल में एक नाराच का प्रहार किया। वह नाराच उस हाथी के मस्तक पर पहॅुचकर उसी प्रकार लगा, जैसे वज्र पर्वत पर चोट करता है । जैसे सर्प बॉबी में समा जाता है, उसी प्रकार वह बाण हाथी के कुम्भस्थल में पंख सहित घुस गया। वह हाथी बारंबार भगदत्त के हांकने पर भी उनकी आज्ञा का पालन नही करता था, जैसे दुष्टा स्त्री अपने दरिद्र स्वामी की बात नही मानती है। उस महान् गजराज ने अपने अंगो को निश्चेष्ट करके दोनो दॉत धरती पर टेक दिये और आर्तस्वर से चीत्कार करके प्राण त्याग दिये। तदनन्तर भगवान श्रीकृष्ण ने गाण्डीवधारी अर्जुनसे कहा- कुन्तीनन्दन ! यह भगदत्त बहुत बड़ी अवस्था का है । इसके सारे बाल पक गये हैं और ललाट आदि अंगो में झुर्रियॉ पड़ जानेके कारण पलकें झपी रहने से इसके नेत्र प्राय: बंद से रहते हैं । यह शूरवीर तथा अत्यन्त दुर्जय है । इस राजाने अपने दोनों नेत्रों को खुले रखने के लिये पलकों को कपड़े की पटटी से ललाट में बॉध रक्खा है। भगवान श्रीकृष्ण के कहने से अर्जुन ने बाण मारकर भगदत्त के शिर की पटअी अत्यन्त छिन्न-भिन्न कर दी । उस पटटी के कटते ही भगदत्त की ऑखे बंद हो गयीं। फिर तो प्रतापी भगदत्त को सारा जगत् अन्धकारमय प्रतीत होने लगा । उस समय झुकी हुई गॉठवाले एक अर्धचन्द्राकार बाण के द्वारा पाण्डुनन्दन अर्जुन ने राजा भगदत्त के वक्ष:स्थल को विदिर्ण कर दिया। किरीटधारी अर्जुन के द्वारा हृदय विदिर्ण कर दिये जाने पर राजा भगदत्त ने प्राण शून्य हो अपने धनुष बाण त्याग दिये । उनके सिर से पगड़ी और पटटी का वह सुन्दर वस्त्र खिसककर गिर गया, जैसे कमलनाल के ताडन से उसका पत्ता टूटकर गिर जाता है। सोने के आभूषणों से विभूषित उस पर्वताकार हाथीसे सुवर्णमालाधारी भगदत्त पृथ्वीपर गिर पड़े, मानो सुन्दर पुष्पों से सुशोभित करनेका वृक्ष हवा के वेग से टूटकर पर्वत के शिखर से नीचे गिर पड़ा हो।राजन ! इस प्रकार इन्द्रकुमार अर्जुन इन्द्र के सखा तथा इन्द्र के समान ही पराक्रमी राजा भगदत्त को युद्ध में मारकर आपकी सेना के अन्य विजयालिभाषी वीर पुरूषों को भी उसी प्रकार मार गिराया, जैसे प्रबल वायु वृक्षों को उखाड़ फेकती है।
इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोणपर्व के अन्तर्गत संशप्तकवधपर्व में भगदत्त वध विषयक उन्तीसवाँ अध्याय पूरा हुआ।
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