"महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 5 श्लोक 1-15": अवतरणों में अंतर
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०७:३४, २९ जुलाई २०१५ का अवतरण
पञ्चम (5) अध्याय: शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)
नरद जी कहते हैं- राजन् ! कर्ण के बलकी ख्याति सुनकर मगधदेश के राजा जरासंध ने द्वैरथ युद्ध के लिये उसे ललकारा।वे दोनों ही दिव्यास्त्रों के ज्ञाता थे। उन दोनों में युद्ध आरम्भ हो गया। वे रणभूमि में एक दूसरे पर नाना प्रकार के अस्त्र-शस्त्रों की वर्षा करने लगे। दोनों के ही बाण क्षीण हो गये, धनुष कट गये और तलवारों के टुकड़े-टुकड़े हो गये ।तब वे दोनों बलशाली वीर पृथ्वी पर लड़े हो भुजाओं द्वारा मल्लयुद्ध करने लगे। कर्ण ने बाहुकण्टक युद्ध के द्वारा जरा नामक राक्षसी के जोडे़ हुए युद्ध परायण जरासंध के शरीर की संधि को चीरना आरम्भ किया। राजा जरासंध ने अपने शरीर के उस विकार को देखकर बैरभाव को दूर हटा दिया और कर्ण से कहा--’मैं तुम पर बहुत प्रसन्न हॅूं। साथ ही उसने प्रसन्नता पूर्वक कर्ण को अड़गदेश की मालिनी नगरी दे दी। नरश्रेष्ठ ! शत्रु विजयी कर्ण तमी से अड़गदेश का राजा हो गया था। इसके बाद दुर्योधन की अनुमति से शत्रु- सैन्यसंहारी कर्ण चम्पा नगरी-- चम्पारन का भी पालन करने लगा। यह सब तो तुम्हें भी ज्ञात ही है। इस प्रकार कर्ण अपने शस्त्रों के प्रताप से समस्त भूमण्डल में विख्यात हो गया। एक दिन देवराज इन्द्र ने तुम लोगों के हित के लिये कर्ण से उसके कवच और कुण्डल मांगे। देवमाया से मोहित हुए कर्ण ने अपने शरीर के साथ ही उत्पन्न हुए दोनों दिव्य कुण्डलों और कवच को भी इन्द्र के हाथ में दे दिया। इस प्रकर जन्म के साथ ही उत्पन्न हुए कवच और कुण्डलों से हीन हो जाने पर कर्ण को अर्जुन ने भगवान् श्रीकृष्ण के देखते-देखते मारा था। एक तो उसे अग्निहोत्री ब्राह्मणतथा महात्मा परशुराम जी के शाप मिले थे। दूसरे, उसने स्वयं भी कुन्ती को अन्य चार भाइयों की रक्षा के लिये वरदान दिया था। तीसरे, इन्द्र ने माया करके उसके कवच- कुण्डल ले लिये। चैथे, महारथियों की गणना करते समय भीष्म जी ने अपमानपूर्वक उसे बार-बार अर्धरथी कहा था। पाचवें, शल्यकी ओरसे उसके तेज को नष्ट करने का प्रयास किया गया था और छठे, भगवान् श्रीकृष्ण की नीति भी कर्ण के प्रातिकूल काम कर रही थी-- इन सब कारणों से वह पराजित हुआ। इधर, गाण्डीवधारी अर्जुन ने रूद्र, देवराज इन्द्र, यम, वरूण, कुबेर, द्रोणाचार्य, तथा महात्मा कृप के दिये हुए दिव्यास्त्र प्राप्त कर लिये थे; इसी लिये युद्ध में उन्होंने सूर्य के समान तेजस्वी वैकर्तन कर्ण का वध किया। पुरूषोत्तम युधिष्ठिर! इस प्रकार तुम्हारे भाई कर्ण को शात तो मिला ही था, बहुत लोगों ने उसे ठक भी लिया था, तथापि वह युद्ध में मारा गया है, इसलिये शोक करने के योग्य नहीं है।
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