"महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 105 श्लोक 1-17" के अवतरणों में अंतर

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भगवान विष्णु के द्वारा गरुड़ का गर्वभंजन तथा दुर्योधन द्वारा कणव मुनि के उपदेश की अवहेलना
 
भगवान विष्णु के द्वारा गरुड़ का गर्वभंजन तथा दुर्योधन द्वारा कणव मुनि के उपदेश की अवहेलना
  
कणव मुनि कहते हैं – भारत ! महाबली गरुड़ ने यह सारा वृतांत यथार्थरूप से सुना कि इन्द्र ने सुमुख नाग को दीर्घायु प्रदान की है । यह सुनते ही आकाशचारी गरुड़ अत्यंत क्रुद्ध हो अपने पंखों की प्रचंड वायु से तीनों लोकों को कंपित करते हुए इन्द्र के समीप दौड़ आए । गरुड़ बोले – भगवन् ! आपने अवहेलना करके मेरी जीविका में क्यों बाधा पहुंचाई है ? एक बार मुझे इच्छानुसार कार्य करने का वरदान देकर अब फिर उससे विचलित क्यों हुये हैं ? समस्त प्राणियों के स्वामी विधाता ने सम्पूर्ण प्राणियों की सृष्टि करते समय मेरा आहार निश्चित कर दिया था । फिर आप किसलिए उसमें बाधा उपस्थित करते हैं ?  देव ! मैंने उस महानाग को अपने भोजन के लिए चुन लिया था । इसके लिए समय भी निश्चित कर दिया था और उसी के द्वारा मुझे अपने विशाल परिवार का भरण-पोषण करना था । वह नाग जब दीर्घायु हो गया, तब अब मैं उसके बदले में दूसरे की हिंसा नहीं कर सकता । देवराज ! आप स्वेच्छाचार को अपनाकर मनमाने खेल कर रहे हैं । वासव ! अब मैं प्राण त्याग दूंगा । मेरे परिवार में तथा मेरे घर में जो भरण-पोषण करने योग्य प्राणी हैं, वे भी भोजन के अभाव में प्राण दे देंगे । अब आप अकेले संतुष्ट होइए । बल और वृत्रासुर का वध करनेवाले देवराज ! मैं इसी व्यवहार के योग्य हूँ; क्योंकि तीनों लोकों का शासन करने में समर्थ होकर भी मैंने दूसरे की सेवा स्वीकार की है । देवेश्वर ! त्रिलोकीनाथ ! आपके रहते भगवान् विष्णु भी मेरी जीविका रोकने में कारण नहीं हो सकते; क्योंकि वासव ! तीनों लोकों के राज्य का भार सदा आपके ही ऊपर है । मेरी माता भी प्रजापति दक्ष की पुत्री है । मेरे पिता भी महर्षि कश्यप ही है । मैं भी अनायास ही सम्पूर्ण लोकों का भार वहन कर सकता हूँ । मुझमें भी वह विशाल बल है, जिसे समस्त प्राणी एक साथ मिलकर भी सह नहीं सकते । मैंने भी दैत्यों के साथ युद्ध छिड़ने पर महान् पराक्रम प्रकट किया है । मैंने भी श्रुतश्री, श्रुतसेन, विवस्वान, रोचनामुख, प्रसृत और कालकाक्ष नामक दैत्यों को मारा है । तथापि मैं जो रथ की ध्वजा में रहकर यत्नपूर्वक आपके छोटे भाई ( विष्णु ) की सेवा करता और उनको वहन करता हूँ, इसीसे आप मेरी अवहेलना करते हैं । मेरे सिवा दूसरा कौन है, जो भगवान विष्णु का महान् भार सह सके ? कौन मुझसे अधिक बलवान है ? मैं सबसे विशिष्ट शक्तिशाली होकर भी बंधु-बांधवों सहित इन विष्णु भगवान् का भार सहन करता हूँ । वासव ! आपने मेरी अवज्ञा करके जो मेरा भोजन छिन लिया है, उसके कारण मेरा सारा गौरव नष्ट हो गया तथा इसमें कारण हुए हैं आप और ये श्रीहरि । विष्णो ! अदिति के गर्भ से जो ये बल और पराक्रम से सुशोभित देवता उत्पन्न हुए हैं, इन सबमें बल की दृष्टि से अधिक शक्तिशाली आप ही हैं । तात ! आपको मैं अपनी पांख के एक देश में बिठाकर बिना किसी थकावट के ढोता रहता हूँ । धीरे से आप ही विचार करें कि यहाँ कौन सबसे अधिक बलवान है ?  
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कणव मुनि कहते हैं – भारत ! महाबली गरुड़ ने यह सारा वृतांत यथार्थरूप से सुना कि इन्द्र ने सुमुख नाग को दीर्घायु प्रदान की है । यह सुनते ही आकाशचारी गरुड़ अत्यंत क्रुद्ध हो अपने पंखों की प्रचंड वायु से तीनों लोकों को कंपित करते हुए इन्द्र के समीप दौड़ आए । गरुड़ बोले – भगवन् ! आपने अवहेलना करके मेरी जीविका में क्यों बाधा पहुंचाई है ? एक बार मुझे इच्छानुसार कार्य करने का वरदान देकर अब फिर उससे विचलित क्यों हुये हैं ? समस्त प्राणियों के स्वामी विधाता ने सम्पूर्ण प्राणियों की सृष्टि करते समय मेरा आहार निश्चित कर दिया था । फिर आप किसलिए उसमें बाधा उपस्थित करते हैं ?  देव ! मैंने उस महानाग को अपने भोजन के लिए चुन लिया था । इसके लिए समय भी निश्चित कर दिया था और उसी के द्वारा मुझे अपने विशाल परिवार का भरण-पोषण करना था । वह नाग जब दीर्घायु हो गया, तब अब मैं उसके बदले में दूसरे की हिंसा नहीं कर सकता । देवराज ! आप स्वेच्छाचार को अपनाकर मनमाने खेल कर रहे हैं । वासव ! अब मैं प्राण त्याग दूंगा । मेरे परिवार में तथा मेरे घर में जो भरण-पोषण करने योग्य प्राणी हैं, वे भी भोजन के अभाव में प्राण दे देंगे । अब आप अकेले संतुष्ट होइए । बल और वृत्रासुर का वध करनेवाले देवराज ! मैं इसी व्यवहार के योग्य हूँ; क्योंकि तीनों लोकों का शासन करने में समर्थ होकर भी मैंने दूसरे की सेवा स्वीकार की है । देवेश्वर ! त्रिलोकीनाथ ! आपके रहते भगवान  विष्णु भी मेरी जीविका रोकने में कारण नहीं हो सकते; क्योंकि वासव ! तीनों लोकों के राज्य का भार सदा आपके ही ऊपर है । मेरी माता भी प्रजापति दक्ष की पुत्री है । मेरे पिता भी महर्षि कश्यप ही है । मैं भी अनायास ही सम्पूर्ण लोकों का भार वहन कर सकता हूँ । मुझमें भी वह विशाल बल है, जिसे समस्त प्राणी एक साथ मिलकर भी सह नहीं सकते । मैंने भी दैत्यों के साथ युद्ध छिड़ने पर महान् पराक्रम प्रकट किया है । मैंने भी श्रुतश्री, श्रुतसेन, विवस्वान, रोचनामुख, प्रसृत और कालकाक्ष नामक दैत्यों को मारा है । तथापि मैं जो रथ की ध्वजा में रहकर यत्नपूर्वक आपके छोटे भाई ( विष्णु ) की सेवा करता और उनको वहन करता हूँ, इसीसे आप मेरी अवहेलना करते हैं । मेरे सिवा दूसरा कौन है, जो भगवान विष्णु का महान् भार सह सके ? कौन मुझसे अधिक बलवान है ? मैं सबसे विशिष्ट शक्तिशाली होकर भी बंधु-बांधवों सहित इन विष्णु भगवान  का भार सहन करता हूँ । वासव ! आपने मेरी अवज्ञा करके जो मेरा भोजन छिन लिया है, उसके कारण मेरा सारा गौरव नष्ट हो गया तथा इसमें कारण हुए हैं आप और ये श्रीहरि । विष्णो ! अदिति के गर्भ से जो ये बल और पराक्रम से सुशोभित देवता उत्पन्न हुए हैं, इन सबमें बल की दृष्टि से अधिक शक्तिशाली आप ही हैं । तात ! आपको मैं अपनी पांख के एक देश में बिठाकर बिना किसी थकावट के ढोता रहता हूँ । धीरे से आप ही विचार करें कि यहाँ कौन सबसे अधिक बलवान है ?  
  
  

१२:१०, २९ जुलाई २०१५ का अवतरण

पञ्चधिकशततम (105) अध्‍याय: उद्योग पर्व (भगवादयान पर्व)

महाभारत: उद्योग पर्व: पञ्चधिकशततम अध्याय: श्लोक 1-17 का हिन्दी अनुवाद

भगवान विष्णु के द्वारा गरुड़ का गर्वभंजन तथा दुर्योधन द्वारा कणव मुनि के उपदेश की अवहेलना

कणव मुनि कहते हैं – भारत ! महाबली गरुड़ ने यह सारा वृतांत यथार्थरूप से सुना कि इन्द्र ने सुमुख नाग को दीर्घायु प्रदान की है । यह सुनते ही आकाशचारी गरुड़ अत्यंत क्रुद्ध हो अपने पंखों की प्रचंड वायु से तीनों लोकों को कंपित करते हुए इन्द्र के समीप दौड़ आए । गरुड़ बोले – भगवन् ! आपने अवहेलना करके मेरी जीविका में क्यों बाधा पहुंचाई है ? एक बार मुझे इच्छानुसार कार्य करने का वरदान देकर अब फिर उससे विचलित क्यों हुये हैं ? समस्त प्राणियों के स्वामी विधाता ने सम्पूर्ण प्राणियों की सृष्टि करते समय मेरा आहार निश्चित कर दिया था । फिर आप किसलिए उसमें बाधा उपस्थित करते हैं ? देव ! मैंने उस महानाग को अपने भोजन के लिए चुन लिया था । इसके लिए समय भी निश्चित कर दिया था और उसी के द्वारा मुझे अपने विशाल परिवार का भरण-पोषण करना था । वह नाग जब दीर्घायु हो गया, तब अब मैं उसके बदले में दूसरे की हिंसा नहीं कर सकता । देवराज ! आप स्वेच्छाचार को अपनाकर मनमाने खेल कर रहे हैं । वासव ! अब मैं प्राण त्याग दूंगा । मेरे परिवार में तथा मेरे घर में जो भरण-पोषण करने योग्य प्राणी हैं, वे भी भोजन के अभाव में प्राण दे देंगे । अब आप अकेले संतुष्ट होइए । बल और वृत्रासुर का वध करनेवाले देवराज ! मैं इसी व्यवहार के योग्य हूँ; क्योंकि तीनों लोकों का शासन करने में समर्थ होकर भी मैंने दूसरे की सेवा स्वीकार की है । देवेश्वर ! त्रिलोकीनाथ ! आपके रहते भगवान विष्णु भी मेरी जीविका रोकने में कारण नहीं हो सकते; क्योंकि वासव ! तीनों लोकों के राज्य का भार सदा आपके ही ऊपर है । मेरी माता भी प्रजापति दक्ष की पुत्री है । मेरे पिता भी महर्षि कश्यप ही है । मैं भी अनायास ही सम्पूर्ण लोकों का भार वहन कर सकता हूँ । मुझमें भी वह विशाल बल है, जिसे समस्त प्राणी एक साथ मिलकर भी सह नहीं सकते । मैंने भी दैत्यों के साथ युद्ध छिड़ने पर महान् पराक्रम प्रकट किया है । मैंने भी श्रुतश्री, श्रुतसेन, विवस्वान, रोचनामुख, प्रसृत और कालकाक्ष नामक दैत्यों को मारा है । तथापि मैं जो रथ की ध्वजा में रहकर यत्नपूर्वक आपके छोटे भाई ( विष्णु ) की सेवा करता और उनको वहन करता हूँ, इसीसे आप मेरी अवहेलना करते हैं । मेरे सिवा दूसरा कौन है, जो भगवान विष्णु का महान् भार सह सके ? कौन मुझसे अधिक बलवान है ? मैं सबसे विशिष्ट शक्तिशाली होकर भी बंधु-बांधवों सहित इन विष्णु भगवान का भार सहन करता हूँ । वासव ! आपने मेरी अवज्ञा करके जो मेरा भोजन छिन लिया है, उसके कारण मेरा सारा गौरव नष्ट हो गया तथा इसमें कारण हुए हैं आप और ये श्रीहरि । विष्णो ! अदिति के गर्भ से जो ये बल और पराक्रम से सुशोभित देवता उत्पन्न हुए हैं, इन सबमें बल की दृष्टि से अधिक शक्तिशाली आप ही हैं । तात ! आपको मैं अपनी पांख के एक देश में बिठाकर बिना किसी थकावट के ढोता रहता हूँ । धीरे से आप ही विचार करें कि यहाँ कौन सबसे अधिक बलवान है ?



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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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