"महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 161 श्लोक 1-13": अवतरणों में अंतर
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भीष्मजी ने कहा- राजन्! इस सम्पूर्ण जगत् का मूल कारण तप ही है, ऐसा विद्वान् पुरूष कहते हैं। जिस मूढ़ने तपस्या नहीं की है, उसे अपने शुभ कर्मों का फल नहीं मिलता है। | भीष्मजी ने कहा- राजन्! इस सम्पूर्ण जगत् का मूल कारण तप ही है, ऐसा विद्वान् पुरूष कहते हैं। जिस मूढ़ने तपस्या नहीं की है, उसे अपने शुभ कर्मों का फल नहीं मिलता है। भगवान प्रजापति ने तपसे ही इस समस्त संसार की सृष्टि की है तथा ॠषियों ने तप से ही वेदों का ज्ञान प्राप्त किया है। जो–जो फल, मूल और अन्न हैं, उनको विधाता ने तपसे ही उतपन्न किया है। तपस्या से सिद्ध हुए एकग्रचित महात्मा पुरूष तीनों लोकों को प्रत्यक्ष देखते हैं। औषध, आरोग्य आदि की प्राप्ति तथा नाना प्रकार की क्रियाएं तपस्या से ही सिद्ध होती है; क्योंकि प्रत्येक साधन की जड़ तपस्या ही है। संसार में जो कुछ भी दुर्लभ वस्तु हो, वह सब तपस्या से सुलभ हो सकती है। ॠषियों ने तपस्या से ही अणिमा आदि अष्टविध ऐश्वर्य को प्राप्त किया है, इसमें संशय नहीं है। शराबी, किसी की सम्मति के बिना ही उसकी वस्तु उठा लेनेवाला (चोर), गर्भहत्यारा और गुरूपत्नीगामी मनुष्य भी अच्छी तरह की हुई तपस्या द्वारा ही पाप से छुटकारा पाता है। तपस्या के अनेक रूप है और भिन्न–भिन्न साधनों एवं उपायों द्वारा मनुष्य उसमें प्रवृत होता है; परंतु जो निवृतिमार्ग से चल रहा है, उसके लिये उपवास से बढ़कर दूसरा कोई तप नहीं है। महाराज! अहिंसा, सत्यभाषण, दान और इन्द्रिय–संयम- इन सबसे बढ़कर तप है और उपवास से बड़ी कोई तपस्या नहीं है। दान से बढ़कर कोई दुष्कर धर्म नहीं है, माता की सेवा से बड़ा कोई दूसरा आश्रय नहीं है, तीनों वेदों के विद्वानों से श्रेष्ठ कोई विद्वान् नहीं है और संन्यास सबसे बड़ा तप है। इस संसार में धार्मिक पुरूष स्वर्ग के साधनभूत धर्मकी रक्षा के लिये इन्द्रियों को सुरक्षित (संयमशील बनाये) रखते हैं। रखते हैं। परंतु धर्म और अर्थ दोनों की सिद्धि के लिये तप ही श्रेष्ठ साधन है और उपवास से बढ़कर कोई तपस्या नहीं है। ॠषि, पितर, देवता, मनुष्य, पशु–पक्षी तथा दूसरे जो चराचर प्राणी हैं, वे सब तपस्या में ही तत्पर रहते हैं। तपस्या से ही उन्हें सिद्धि प्राप्त होती है। इसी प्रकार देवताओं ने भी तपस्या से ही महत्वपूर्ण पद प्राप्त किया है। ये जो भिन्न–भिन्न अभीष्ट फल कहे गये हैं, वे सब सदा तपस्या से ही सुलभ होते हैं। तपस्या से निश्चय ही देवत्व भी प्राप्त किया जा सकता है। | ||
<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्व के अन्तर्गत आपद्धर्मपर्व में तपस्या की प्रशंसाविषयक एक सौ इकसठवां अध्याय पूरा हुआ।</div> | <div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्व के अन्तर्गत आपद्धर्मपर्व में तपस्या की प्रशंसाविषयक एक सौ इकसठवां अध्याय पूरा हुआ।</div> | ||
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१२:२०, २९ जुलाई २०१५ के समय का अवतरण
एकषष्टयधिकशततम (161) अध्याय: शान्ति पर्व (आपद्धर्म पर्व)
तप की महिमा
भीष्मजी ने कहा- राजन्! इस सम्पूर्ण जगत् का मूल कारण तप ही है, ऐसा विद्वान् पुरूष कहते हैं। जिस मूढ़ने तपस्या नहीं की है, उसे अपने शुभ कर्मों का फल नहीं मिलता है। भगवान प्रजापति ने तपसे ही इस समस्त संसार की सृष्टि की है तथा ॠषियों ने तप से ही वेदों का ज्ञान प्राप्त किया है। जो–जो फल, मूल और अन्न हैं, उनको विधाता ने तपसे ही उतपन्न किया है। तपस्या से सिद्ध हुए एकग्रचित महात्मा पुरूष तीनों लोकों को प्रत्यक्ष देखते हैं। औषध, आरोग्य आदि की प्राप्ति तथा नाना प्रकार की क्रियाएं तपस्या से ही सिद्ध होती है; क्योंकि प्रत्येक साधन की जड़ तपस्या ही है। संसार में जो कुछ भी दुर्लभ वस्तु हो, वह सब तपस्या से सुलभ हो सकती है। ॠषियों ने तपस्या से ही अणिमा आदि अष्टविध ऐश्वर्य को प्राप्त किया है, इसमें संशय नहीं है। शराबी, किसी की सम्मति के बिना ही उसकी वस्तु उठा लेनेवाला (चोर), गर्भहत्यारा और गुरूपत्नीगामी मनुष्य भी अच्छी तरह की हुई तपस्या द्वारा ही पाप से छुटकारा पाता है। तपस्या के अनेक रूप है और भिन्न–भिन्न साधनों एवं उपायों द्वारा मनुष्य उसमें प्रवृत होता है; परंतु जो निवृतिमार्ग से चल रहा है, उसके लिये उपवास से बढ़कर दूसरा कोई तप नहीं है। महाराज! अहिंसा, सत्यभाषण, दान और इन्द्रिय–संयम- इन सबसे बढ़कर तप है और उपवास से बड़ी कोई तपस्या नहीं है। दान से बढ़कर कोई दुष्कर धर्म नहीं है, माता की सेवा से बड़ा कोई दूसरा आश्रय नहीं है, तीनों वेदों के विद्वानों से श्रेष्ठ कोई विद्वान् नहीं है और संन्यास सबसे बड़ा तप है। इस संसार में धार्मिक पुरूष स्वर्ग के साधनभूत धर्मकी रक्षा के लिये इन्द्रियों को सुरक्षित (संयमशील बनाये) रखते हैं। रखते हैं। परंतु धर्म और अर्थ दोनों की सिद्धि के लिये तप ही श्रेष्ठ साधन है और उपवास से बढ़कर कोई तपस्या नहीं है। ॠषि, पितर, देवता, मनुष्य, पशु–पक्षी तथा दूसरे जो चराचर प्राणी हैं, वे सब तपस्या में ही तत्पर रहते हैं। तपस्या से ही उन्हें सिद्धि प्राप्त होती है। इसी प्रकार देवताओं ने भी तपस्या से ही महत्वपूर्ण पद प्राप्त किया है। ये जो भिन्न–भिन्न अभीष्ट फल कहे गये हैं, वे सब सदा तपस्या से ही सुलभ होते हैं। तपस्या से निश्चय ही देवत्व भी प्राप्त किया जा सकता है।
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