"श्रीमद्भागवत महापुराण दशम स्कन्ध अध्याय 37 श्लोक 22-34": अवतरणों में अंतर

अद्‌भुत भारत की खोज
नेविगेशन पर जाएँ खोज पर जाएँ
[अनिरीक्षित अवतरण][अनिरीक्षित अवतरण]
('== दशम स्कन्ध: सप्तत्रिंशोऽध्यायः (37) (पूर्वाध)== <div style="text-...' के साथ नया पन्ना बनाया)
 
छो (Text replace - "भगवान् " to "भगवान ")
 
(इसी सदस्य द्वारा किया गया बीच का एक अवतरण नहीं दर्शाया गया)
पंक्ति १: पंक्ति १:
== दशम स्कन्ध: सप्तत्रिंशोऽध्यायः (37) (पूर्वाध)==
== दशम स्कन्ध: सप्तत्रिंशोऽध्यायः (37) (पूर्वार्ध)==


<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: सप्तत्रिंशोऽध्यायः श्लोक 22-34 का हिन्दी अनुवाद </div>
<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: सप्तत्रिंशोऽध्यायः श्लोक 22-34 का हिन्दी अनुवाद </div>
पंक्ति ५: पंक्ति ५:
इसके बाद आप पृथ्वी का भार उतारने के लिये कालरूप से अर्जुन के सारथि बनेंगे और अनेक अक्षौहिणी सेना का संहार करेंगे। यह सब मैं अपनी आँखों से देखूँगा ।
इसके बाद आप पृथ्वी का भार उतारने के लिये कालरूप से अर्जुन के सारथि बनेंगे और अनेक अक्षौहिणी सेना का संहार करेंगे। यह सब मैं अपनी आँखों से देखूँगा ।


प्रभो! आप विशुद्ध वज्ञानघन हैं। आपके स्वरुप में और किसी का अस्तित्व है ही नहीं। आप नित्य-निरन्तर अपने परमानन्दस्वरुप में स्थित रहते हैं। इसलिये सारे पदार्थ आपको नित्य प्राप्त ही हैं। आपका संकल्प अमोघ है। आपकी चिन्मयी शक्ति के सामने माया और माया से होने वाला यह त्रिगुणमय संसार-चक्र नित्यनिवृत है—कभी हुआ ही नहीं। ऐसे आप अखण्ड, एकरस, सच्चिंदानंदस्वरुप, निरतिशय ऐश्वर्यसम्पन्न भगवान् की मैं शरण ग्रहण करता हूँ ।  
प्रभो! आप विशुद्ध वज्ञानघन हैं। आपके स्वरुप में और किसी का अस्तित्व है ही नहीं। आप नित्य-निरन्तर अपने परमानन्दस्वरुप में स्थित रहते हैं। इसलिये सारे पदार्थ आपको नित्य प्राप्त ही हैं। आपका संकल्प अमोघ है। आपकी चिन्मयी शक्ति के सामने माया और माया से होने वाला यह त्रिगुणमय संसार-चक्र नित्यनिवृत है—कभी हुआ ही नहीं। ऐसे आप अखण्ड, एकरस, सच्चिंदानंदस्वरुप, निरतिशय ऐश्वर्यसम्पन्न भगवान  की मैं शरण ग्रहण करता हूँ ।  


आप सबके अन्तर्यामी और नियन्ता हैं। अपने-आपमें स्थित, परम स्वतन्त्र हैं। जगत् और उसके अशेष विशेषों—भाव-अभावरूप सारे भेद-विभेदों की कल्पना केवल आपकी माया से ही हुई है। इस समय आपने अपनी लीला प्रकट करने के लिये मनुष्य का-सा श्रीविग्रह प्रकट किया है और आप यदु, वृष्णि तथा सात्वतवंशियों के शिरोमणि बने हैं। प्रभो! मैं आपको नमस्कार करता हूँ’।
आप सबके अन्तर्यामी और नियन्ता हैं। अपने-आपमें स्थित, परम स्वतन्त्र हैं। जगत् और उसके अशेष विशेषों—भाव-अभावरूप सारे भेद-विभेदों की कल्पना केवल आपकी माया से ही हुई है। इस समय आपने अपनी लीला प्रकट करने के लिये मनुष्य का-सा श्रीविग्रह प्रकट किया है और आप यदु, वृष्णि तथा सात्वतवंशियों के शिरोमणि बने हैं। प्रभो! मैं आपको नमस्कार करता हूँ’।


श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! भगवान् के परमप्रेमी भक्त देवर्षि नारदजी ने इस प्रकार भगवान् की स्तुति और प्रणाम किया। भगवान् के दर्शनों के आह्लाद से नारदजी का रोम-रोम खिल उठा। तदनन्तर उनकी आज्ञा प्राप्त करके वे चले गये ।  
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! भगवान  के परमप्रेमी भक्त देवर्षि नारदजी ने इस प्रकार भगवान  की स्तुति और प्रणाम किया। भगवान  के दर्शनों के आह्लाद से नारदजी का रोम-रोम खिल उठा। तदनन्तर उनकी आज्ञा प्राप्त करके वे चले गये ।  


इधर भगवान् श्रीकृष्ण केशी को लड़ाई में मारकर फिर अपने प्रेमी एवं प्रसन्नचित्त ग्वाल-बालों के साथ पूर्ववत् पशु-पालन के काम में लग गये तथा व्रजवासियों को परमानन्द वितरण करने लगे ।
इधर भगवान  श्रीकृष्ण केशी को लड़ाई में मारकर फिर अपने प्रेमी एवं प्रसन्नचित्त ग्वाल-बालों के साथ पूर्ववत् पशु-पालन के काम में लग गये तथा व्रजवासियों को परमानन्द वितरण करने लगे ।


एक समय वे ग्वालबाल पहाड़ी की चोटियों पर गाय आदि पशुओं को चरा रहे थे तथा कुछ चोर और कुछ रक्षक बनकर छिपने-छिपाने का—लुका-लुकी का खेल खेल रहे थे ।
एक समय वे ग्वालबाल पहाड़ी की चोटियों पर गाय आदि पशुओं को चरा रहे थे तथा कुछ चोर और कुछ रक्षक बनकर छिपने-छिपाने का—लुका-लुकी का खेल खेल रहे थे ।
पंक्ति १९: पंक्ति १९:
उसी समय ग्वाल का वेष धारण करके व्योमासुर वहाँ आया। वह मायावियों के आचार्य मयासुर का पुत्र था और स्वयं भी बड़ा मायावी था। वह खेल में बहुधा चोर ही बनता और भेड़ बने हुए बहुत-से बालकों को चुराकर छिपा आता ।
उसी समय ग्वाल का वेष धारण करके व्योमासुर वहाँ आया। वह मायावियों के आचार्य मयासुर का पुत्र था और स्वयं भी बड़ा मायावी था। वह खेल में बहुधा चोर ही बनता और भेड़ बने हुए बहुत-से बालकों को चुराकर छिपा आता ।


वह महान् असुर बार-बार उन्हें ले जाकर एक पहाड़ की गुफा में डाल देता और उनका दरवाजा एक बड़ी चट्टान से ढक देता। इस प्रकार ग्वालबालों में केवल चार-पाँच बालक ही बच रहे । भक्तवत्सल भगवान् उसकी यह करतूत जान गये। जिस समय वह ग्वालबालों को लिये जा रहा था, उसी समय उन्होंने, जैसे सिंह भेड़िये को दबोच ले उसी प्रकार, उसे धर दबाया। व्योमासुर बड़ा बली था। उसने पहाड़ के समान अपना असली रूप प्रकट कर दिया और चाहा कि अपने को छुड़ा लूँ। परन्तु भगवान् ने उसको इस प्रकार अपने शिकंजे में फाँस लिया था कि वह अपने को छुड़ा न सका।
वह महान् असुर बार-बार उन्हें ले जाकर एक पहाड़ की गुफा में डाल देता और उनका दरवाजा एक बड़ी चट्टान से ढक देता। इस प्रकार ग्वालबालों में केवल चार-पाँच बालक ही बच रहे । भक्तवत्सल भगवान  उसकी यह करतूत जान गये। जिस समय वह ग्वालबालों को लिये जा रहा था, उसी समय उन्होंने, जैसे सिंह भेड़िये को दबोच ले उसी प्रकार, उसे धर दबाया। व्योमासुर बड़ा बली था। उसने पहाड़ के समान अपना असली रूप प्रकट कर दिया और चाहा कि अपने को छुड़ा लूँ। परन्तु भगवान  ने उसको इस प्रकार अपने शिकंजे में फाँस लिया था कि वह अपने को छुड़ा न सका।


तब भगवान् श्रीकृष्ण ने अपने दोनों हाथों से जकड़कर उसे भूमिपर गिरा दिया और पशु की भाँति गला घोंटकर मार डाला। देवता लोग विमानों पर चढ़कर उनकी यह लीला देख रहे थे ।  
तब भगवान  श्रीकृष्ण ने अपने दोनों हाथों से जकड़कर उसे भूमिपर गिरा दिया और पशु की भाँति गला घोंटकर मार डाला। देवता लोग विमानों पर चढ़कर उनकी यह लीला देख रहे थे ।  


अब भगवान् श्रीकृष्ण ने गुफा के द्वार पर लगे हुए चट्टानों के पिहान तोड़ डाले और ग्वालबालों को उस संकटपूर्ण स्थान से निकाल लिया। बड़े-बड़े देवता और ग्वालबाल उनकी स्तुति करने लगे और भगवान् श्रीकृष्ण व्रज में चले आये ।  
अब भगवान  श्रीकृष्ण ने गुफा के द्वार पर लगे हुए चट्टानों के पिहान तोड़ डाले और ग्वालबालों को उस संकटपूर्ण स्थान से निकाल लिया। बड़े-बड़े देवता और ग्वालबाल उनकी स्तुति करने लगे और भगवान  श्रीकृष्ण व्रज में चले आये ।  





१२:२१, २९ जुलाई २०१५ के समय का अवतरण

दशम स्कन्ध: सप्तत्रिंशोऽध्यायः (37) (पूर्वार्ध)

श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: सप्तत्रिंशोऽध्यायः श्लोक 22-34 का हिन्दी अनुवाद

इसके बाद आप पृथ्वी का भार उतारने के लिये कालरूप से अर्जुन के सारथि बनेंगे और अनेक अक्षौहिणी सेना का संहार करेंगे। यह सब मैं अपनी आँखों से देखूँगा ।

प्रभो! आप विशुद्ध वज्ञानघन हैं। आपके स्वरुप में और किसी का अस्तित्व है ही नहीं। आप नित्य-निरन्तर अपने परमानन्दस्वरुप में स्थित रहते हैं। इसलिये सारे पदार्थ आपको नित्य प्राप्त ही हैं। आपका संकल्प अमोघ है। आपकी चिन्मयी शक्ति के सामने माया और माया से होने वाला यह त्रिगुणमय संसार-चक्र नित्यनिवृत है—कभी हुआ ही नहीं। ऐसे आप अखण्ड, एकरस, सच्चिंदानंदस्वरुप, निरतिशय ऐश्वर्यसम्पन्न भगवान की मैं शरण ग्रहण करता हूँ ।

आप सबके अन्तर्यामी और नियन्ता हैं। अपने-आपमें स्थित, परम स्वतन्त्र हैं। जगत् और उसके अशेष विशेषों—भाव-अभावरूप सारे भेद-विभेदों की कल्पना केवल आपकी माया से ही हुई है। इस समय आपने अपनी लीला प्रकट करने के लिये मनुष्य का-सा श्रीविग्रह प्रकट किया है और आप यदु, वृष्णि तथा सात्वतवंशियों के शिरोमणि बने हैं। प्रभो! मैं आपको नमस्कार करता हूँ’।

श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! भगवान के परमप्रेमी भक्त देवर्षि नारदजी ने इस प्रकार भगवान की स्तुति और प्रणाम किया। भगवान के दर्शनों के आह्लाद से नारदजी का रोम-रोम खिल उठा। तदनन्तर उनकी आज्ञा प्राप्त करके वे चले गये ।

इधर भगवान श्रीकृष्ण केशी को लड़ाई में मारकर फिर अपने प्रेमी एवं प्रसन्नचित्त ग्वाल-बालों के साथ पूर्ववत् पशु-पालन के काम में लग गये तथा व्रजवासियों को परमानन्द वितरण करने लगे ।

एक समय वे ग्वालबाल पहाड़ी की चोटियों पर गाय आदि पशुओं को चरा रहे थे तथा कुछ चोर और कुछ रक्षक बनकर छिपने-छिपाने का—लुका-लुकी का खेल खेल रहे थे ।

राजन्! उन लोगों में से कुछ तो चोर और कुछ रक्षक तथा कुछ भेड़ बन गये थे। इस प्रकार वे निर्भय होकर खेल में रम गये थे ।

उसी समय ग्वाल का वेष धारण करके व्योमासुर वहाँ आया। वह मायावियों के आचार्य मयासुर का पुत्र था और स्वयं भी बड़ा मायावी था। वह खेल में बहुधा चोर ही बनता और भेड़ बने हुए बहुत-से बालकों को चुराकर छिपा आता ।

वह महान् असुर बार-बार उन्हें ले जाकर एक पहाड़ की गुफा में डाल देता और उनका दरवाजा एक बड़ी चट्टान से ढक देता। इस प्रकार ग्वालबालों में केवल चार-पाँच बालक ही बच रहे । भक्तवत्सल भगवान उसकी यह करतूत जान गये। जिस समय वह ग्वालबालों को लिये जा रहा था, उसी समय उन्होंने, जैसे सिंह भेड़िये को दबोच ले उसी प्रकार, उसे धर दबाया। व्योमासुर बड़ा बली था। उसने पहाड़ के समान अपना असली रूप प्रकट कर दिया और चाहा कि अपने को छुड़ा लूँ। परन्तु भगवान ने उसको इस प्रकार अपने शिकंजे में फाँस लिया था कि वह अपने को छुड़ा न सका।

तब भगवान श्रीकृष्ण ने अपने दोनों हाथों से जकड़कर उसे भूमिपर गिरा दिया और पशु की भाँति गला घोंटकर मार डाला। देवता लोग विमानों पर चढ़कर उनकी यह लीला देख रहे थे ।

अब भगवान श्रीकृष्ण ने गुफा के द्वार पर लगे हुए चट्टानों के पिहान तोड़ डाले और ग्वालबालों को उस संकटपूर्ण स्थान से निकाल लिया। बड़े-बड़े देवता और ग्वालबाल उनकी स्तुति करने लगे और भगवान श्रीकृष्ण व्रज में चले आये ।



« पीछे आगे »

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

-