"महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 50 श्लोक 1-19": अवतरणों में अंतर

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श्रीकृष्ण द्वारा भीष्मजी के गुण-प्रभाव का सविस्तार वर्णन
श्रीकृष्ण द्वारा भीष्मजी के गुण-प्रभाव का सविस्तार वर्णन


वैषम्पायन जी कहते हैं- राजन्! परशुराम जी का वह अलौकिक कर्म सुनकर राजा युधिष्ठिर बड़ा को आश्चर्य हुआ। वे भगवान् श्रीकृष्ण से बोले-। ‘वृष्णिनन्दन! महात्मा परशुराम का पराक्रम तो इन्द्र के समान अत्यन्त अद्ध्रुत है, जिन्होंने क्रोध करके यह सारी पृथ्वी क्षत्रियों से सूनी कर दी। क्षत्रियों के कुल का भार वहन करने वाले श्रेष्ठ पुरूष परशुरामजी के भय से उद्विग्न हो छिपे हुए थे और गाय, समुंद्र, लंगूर, रीछ तथा वानरों द्वारा उनकी रक्षा हुई थी। ’अहो! यह मनुष्यलोक धन्य है और इस भूतल के मनुष्य बड़े भाग्यवान् हैं, जहाँ द्विजवर परशुरामजी ने ऐसा धर्मसंगत कार्य किया। तात! युधिष्ठिर और श्रीकृष्ण इस प्रकार बातचीत करते हूए उस स्थान जा पहुँचे, जहाँ प्रभावशाली गंगानन्दन भीष्म बाणशय्या पर सोये हुए थे। उन्होनें देखा कि भीष्मजी शरशय्या पर सो रहे हैं और अपनी किरणों से घिरे हुए सायंकालिक सूर्य के समान प्रकाशित होते हैं। जैसे देवता इन्द्र की उपासना करते हैं, उसी प्रकार बहुत-से महर्षि ओघवती नदी के तट पर परम धर्ममय स्थान में उनके पास बैठे हुए थे। श्रीकृष्ण, धर्मपुत्र राजा युधिष्ठिर, अन्य चारों पाण्ड़व तथा कृपाचार्य आदि सब लोग दूर से ही उन्हें देखकर अपने-अपने रथ से उतर गये और चंचल मन को काबू में करके सम्पूर्ण इन्द्रियों को एकाग्र कर वहाँ बैठे हुए महामुनियों की सेवा में उपस्थित हुए। श्रीकृष्ण, सात्यकि तथा अन्य राजाओं ने व्यास आदि महर्षियों को प्रणाम करके गंगानन्दन भीष्म को मस्तक झुकाया। तदनन्तर वे सभी यदुवंशी और कौरव नरश्रेष्ठ बूढे़ गंगानन्दन भीष्मजी का दर्शन करके उन्हें चारो ओर से घेरकर बैठ गये। इसके बाद भगवान् श्रीकृष्ण ने मन-ही-मन कुछ दुखी हो बुझती हुई आग के समान दिखायी देनेवाले गंगानन्दन भीष्म को सुनाकर इस प्रकार कहाँ-। ’वक्ताओं में श्रेष्ठ भीष्म जी! क्या आपकी सारी ज्ञानेन्द्रियाँ पहले की ही भाँति प्रसन्न हैं? आपकी बुद्धि व्याकुल तो नहीं हुई है? ’आपको बाणों की चोट सहने का जो कष्ट उठाना पड़ा है उससे आपके शरीर में विशेष पीड़ा तो नहीं हो रही है? क्योंकि मानसिक दुःख से शारीरिक दुःख अधिक प्रबल होता है-उसे सहना कठिन हो जाता है। ’प्रभो! आपने निरन्तर धर्म में तत्पर रहने वाले पिता शान्तनु के वरदान से मृत्यु को अपने अधीन कर लिया है। जब आपकी इच्छा हो तभी मृत्यु हो सकती है अन्यथा नहीं। यह आपके पिता के वरदान का ही प्रभाव हैं, मेरा नहीं। ’राजन् ! यदि शरीर मे कोई महीन-से-महीन भी काँटा गड़ जाये तो वह भारी वेदना पैदा करता हैं। फिर जो बाणों के समूह से चुन दिया गया है, उस आपके शरीर की पीड़ा के विषय में तो कहना ही क्या हैं। ’भरतनन्दन! अवश्य ही आपके सामने यह कहना उचित न होगा कि’सभी प्राणियों के जन्म और मरण प्रारब्ध के अनुसार नियत हैं। अतः आपको दैव का विधान समझकर अपने मन में कोई दुःख नहीं मानना चाहिये।’ आपको कोई क्या उपदेश देगा? आप तो देवताओं को भी उपदेश देने में समर्थ हैं। ’पुरूषप्रवर भीष्म! आप ज्ञान में सबसे बढ़े-चढ़े हैं। आपकी बुद्धि में भूत, भविष्य और वर्तमान् सब कुछ प्रतिष्ठित है। ’महामते! प्राणियों का संहार कब होता हैं? धर्म का क्या फल हैं? और उसका उदय कब होता है? ये सारी बातें आपको ज्ञात है; क्योंकि आप धर्म के प्रचुर भण्ड़ार हैं। आप एक समृद्धिशाली राज्य के अधिकारी थे, आपके संपूर्ण अंग ठीक थे, किसी अंग में कोई न्यूनता नहीं थी; आपको कोई रोग भी नहीं था और आप हजारों स्त्रियों के बीच में रहतें थे, तो भी मैं आपको ऊध्र्वरेता (अखण्ड़ ब्रह्मचर्य सम्पन्न)) ही देखता हूँ। तात !पृथ्वीनाथ ! मैंने तीनों लोकों में सत्यवादी, एकमात्र धर्म में तत्पर, शूरवीर, महापराक्रमी तथा बाणशय्या पर शयन करनें वाले आप शान्तनुनन्दन भीष्म के सिवाय दूसरे किसी ऐसे प्राणी को ऐसा नहीं सुना है, जिसने शरीर के लिये स्वभावसिद्ध मृत्यु को अपनी तपस्या से रोक दिया हों।
वैषम्पायन जी कहते हैं- राजन्! परशुराम जी का वह अलौकिक कर्म सुनकर राजा युधिष्ठिर बड़ा को आश्चर्य हुआ। वे भगवान  श्रीकृष्ण से बोले-। ‘वृष्णिनन्दन! महात्मा परशुराम का पराक्रम तो इन्द्र के समान अत्यन्त अद्ध्रुत है, जिन्होंने क्रोध करके यह सारी पृथ्वी क्षत्रियों से सूनी कर दी। क्षत्रियों के कुल का भार वहन करने वाले श्रेष्ठ पुरूष परशुरामजी के भय से उद्विग्न हो छिपे हुए थे और गाय, समुंद्र, लंगूर, रीछ तथा वानरों द्वारा उनकी रक्षा हुई थी। ’अहो! यह मनुष्यलोक धन्य है और इस भूतल के मनुष्य बड़े भाग्यवान् हैं, जहाँ द्विजवर परशुरामजी ने ऐसा धर्मसंगत कार्य किया। तात! युधिष्ठिर और श्रीकृष्ण इस प्रकार बातचीत करते हूए उस स्थान जा पहुँचे, जहाँ प्रभावशाली गंगानन्दन भीष्म बाणशय्या पर सोये हुए थे। उन्होनें देखा कि भीष्मजी शरशय्या पर सो रहे हैं और अपनी किरणों से घिरे हुए सायंकालिक सूर्य के समान प्रकाशित होते हैं। जैसे देवता इन्द्र की उपासना करते हैं, उसी प्रकार बहुत-से महर्षि ओघवती नदी के तट पर परम धर्ममय स्थान में उनके पास बैठे हुए थे। श्रीकृष्ण, धर्मपुत्र राजा युधिष्ठिर, अन्य चारों पाण्ड़व तथा कृपाचार्य आदि सब लोग दूर से ही उन्हें देखकर अपने-अपने रथ से उतर गये और चंचल मन को काबू में करके सम्पूर्ण इन्द्रियों को एकाग्र कर वहाँ बैठे हुए महामुनियों की सेवा में उपस्थित हुए। श्रीकृष्ण, सात्यकि तथा अन्य राजाओं ने व्यास आदि महर्षियों को प्रणाम करके गंगानन्दन भीष्म को मस्तक झुकाया। तदनन्तर वे सभी यदुवंशी और कौरव नरश्रेष्ठ बूढे़ गंगानन्दन भीष्मजी का दर्शन करके उन्हें चारो ओर से घेरकर बैठ गये। इसके बाद भगवान  श्रीकृष्ण ने मन-ही-मन कुछ दुखी हो बुझती हुई आग के समान दिखायी देनेवाले गंगानन्दन भीष्म को सुनाकर इस प्रकार कहाँ-। ’वक्ताओं में श्रेष्ठ भीष्म जी! क्या आपकी सारी ज्ञानेन्द्रियाँ पहले की ही भाँति प्रसन्न हैं? आपकी बुद्धि व्याकुल तो नहीं हुई है? ’आपको बाणों की चोट सहने का जो कष्ट उठाना पड़ा है उससे आपके शरीर में विशेष पीड़ा तो नहीं हो रही है? क्योंकि मानसिक दुःख से शारीरिक दुःख अधिक प्रबल होता है-उसे सहना कठिन हो जाता है। ’प्रभो! आपने निरन्तर धर्म में तत्पर रहने वाले पिता शान्तनु के वरदान से मृत्यु को अपने अधीन कर लिया है। जब आपकी इच्छा हो तभी मृत्यु हो सकती है अन्यथा नहीं। यह आपके पिता के वरदान का ही प्रभाव हैं, मेरा नहीं। ’राजन् ! यदि शरीर मे कोई महीन-से-महीन भी काँटा गड़ जाये तो वह भारी वेदना पैदा करता हैं। फिर जो बाणों के समूह से चुन दिया गया है, उस आपके शरीर की पीड़ा के विषय में तो कहना ही क्या हैं। ’भरतनन्दन! अवश्य ही आपके सामने यह कहना उचित न होगा कि’सभी प्राणियों के जन्म और मरण प्रारब्ध के अनुसार नियत हैं। अतः आपको दैव का विधान समझकर अपने मन में कोई दुःख नहीं मानना चाहिये।’ आपको कोई क्या उपदेश देगा? आप तो देवताओं को भी उपदेश देने में समर्थ हैं। ’पुरूषप्रवर भीष्म! आप ज्ञान में सबसे बढ़े-चढ़े हैं। आपकी बुद्धि में भूत, भविष्य और वर्तमान् सब कुछ प्रतिष्ठित है। ’महामते! प्राणियों का संहार कब होता हैं? धर्म का क्या फल हैं? और उसका उदय कब होता है? ये सारी बातें आपको ज्ञात है; क्योंकि आप धर्म के प्रचुर भण्ड़ार हैं। आप एक समृद्धिशाली राज्य के अधिकारी थे, आपके संपूर्ण अंग ठीक थे, किसी अंग में कोई न्यूनता नहीं थी; आपको कोई रोग भी नहीं था और आप हजारों स्त्रियों के बीच में रहतें थे, तो भी मैं आपको ऊध्र्वरेता (अखण्ड़ ब्रह्मचर्य सम्पन्न)) ही देखता हूँ। तात !पृथ्वीनाथ ! मैंने तीनों लोकों में सत्यवादी, एकमात्र धर्म में तत्पर, शूरवीर, महापराक्रमी तथा बाणशय्या पर शयन करनें वाले आप शान्तनुनन्दन भीष्म के सिवाय दूसरे किसी ऐसे प्राणी को ऐसा नहीं सुना है, जिसने शरीर के लिये स्वभावसिद्ध मृत्यु को अपनी तपस्या से रोक दिया हों।


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१२:२५, २९ जुलाई २०१५ का अवतरण

पचासवाँ अध्याय: शान्तिपर्व (राजधर्मानुशासनपर्व)

महाभारत: शान्तिपर्व : पचासवाँ अध्याय: श्लोक 1-22 का हिन्दी अनुवाद

श्रीकृष्ण द्वारा भीष्मजी के गुण-प्रभाव का सविस्तार वर्णन

वैषम्पायन जी कहते हैं- राजन्! परशुराम जी का वह अलौकिक कर्म सुनकर राजा युधिष्ठिर बड़ा को आश्चर्य हुआ। वे भगवान श्रीकृष्ण से बोले-। ‘वृष्णिनन्दन! महात्मा परशुराम का पराक्रम तो इन्द्र के समान अत्यन्त अद्ध्रुत है, जिन्होंने क्रोध करके यह सारी पृथ्वी क्षत्रियों से सूनी कर दी। क्षत्रियों के कुल का भार वहन करने वाले श्रेष्ठ पुरूष परशुरामजी के भय से उद्विग्न हो छिपे हुए थे और गाय, समुंद्र, लंगूर, रीछ तथा वानरों द्वारा उनकी रक्षा हुई थी। ’अहो! यह मनुष्यलोक धन्य है और इस भूतल के मनुष्य बड़े भाग्यवान् हैं, जहाँ द्विजवर परशुरामजी ने ऐसा धर्मसंगत कार्य किया। तात! युधिष्ठिर और श्रीकृष्ण इस प्रकार बातचीत करते हूए उस स्थान जा पहुँचे, जहाँ प्रभावशाली गंगानन्दन भीष्म बाणशय्या पर सोये हुए थे। उन्होनें देखा कि भीष्मजी शरशय्या पर सो रहे हैं और अपनी किरणों से घिरे हुए सायंकालिक सूर्य के समान प्रकाशित होते हैं। जैसे देवता इन्द्र की उपासना करते हैं, उसी प्रकार बहुत-से महर्षि ओघवती नदी के तट पर परम धर्ममय स्थान में उनके पास बैठे हुए थे। श्रीकृष्ण, धर्मपुत्र राजा युधिष्ठिर, अन्य चारों पाण्ड़व तथा कृपाचार्य आदि सब लोग दूर से ही उन्हें देखकर अपने-अपने रथ से उतर गये और चंचल मन को काबू में करके सम्पूर्ण इन्द्रियों को एकाग्र कर वहाँ बैठे हुए महामुनियों की सेवा में उपस्थित हुए। श्रीकृष्ण, सात्यकि तथा अन्य राजाओं ने व्यास आदि महर्षियों को प्रणाम करके गंगानन्दन भीष्म को मस्तक झुकाया। तदनन्तर वे सभी यदुवंशी और कौरव नरश्रेष्ठ बूढे़ गंगानन्दन भीष्मजी का दर्शन करके उन्हें चारो ओर से घेरकर बैठ गये। इसके बाद भगवान श्रीकृष्ण ने मन-ही-मन कुछ दुखी हो बुझती हुई आग के समान दिखायी देनेवाले गंगानन्दन भीष्म को सुनाकर इस प्रकार कहाँ-। ’वक्ताओं में श्रेष्ठ भीष्म जी! क्या आपकी सारी ज्ञानेन्द्रियाँ पहले की ही भाँति प्रसन्न हैं? आपकी बुद्धि व्याकुल तो नहीं हुई है? ’आपको बाणों की चोट सहने का जो कष्ट उठाना पड़ा है उससे आपके शरीर में विशेष पीड़ा तो नहीं हो रही है? क्योंकि मानसिक दुःख से शारीरिक दुःख अधिक प्रबल होता है-उसे सहना कठिन हो जाता है। ’प्रभो! आपने निरन्तर धर्म में तत्पर रहने वाले पिता शान्तनु के वरदान से मृत्यु को अपने अधीन कर लिया है। जब आपकी इच्छा हो तभी मृत्यु हो सकती है अन्यथा नहीं। यह आपके पिता के वरदान का ही प्रभाव हैं, मेरा नहीं। ’राजन् ! यदि शरीर मे कोई महीन-से-महीन भी काँटा गड़ जाये तो वह भारी वेदना पैदा करता हैं। फिर जो बाणों के समूह से चुन दिया गया है, उस आपके शरीर की पीड़ा के विषय में तो कहना ही क्या हैं। ’भरतनन्दन! अवश्य ही आपके सामने यह कहना उचित न होगा कि’सभी प्राणियों के जन्म और मरण प्रारब्ध के अनुसार नियत हैं। अतः आपको दैव का विधान समझकर अपने मन में कोई दुःख नहीं मानना चाहिये।’ आपको कोई क्या उपदेश देगा? आप तो देवताओं को भी उपदेश देने में समर्थ हैं। ’पुरूषप्रवर भीष्म! आप ज्ञान में सबसे बढ़े-चढ़े हैं। आपकी बुद्धि में भूत, भविष्य और वर्तमान् सब कुछ प्रतिष्ठित है। ’महामते! प्राणियों का संहार कब होता हैं? धर्म का क्या फल हैं? और उसका उदय कब होता है? ये सारी बातें आपको ज्ञात है; क्योंकि आप धर्म के प्रचुर भण्ड़ार हैं। आप एक समृद्धिशाली राज्य के अधिकारी थे, आपके संपूर्ण अंग ठीक थे, किसी अंग में कोई न्यूनता नहीं थी; आपको कोई रोग भी नहीं था और आप हजारों स्त्रियों के बीच में रहतें थे, तो भी मैं आपको ऊध्र्वरेता (अखण्ड़ ब्रह्मचर्य सम्पन्न)) ही देखता हूँ। तात !पृथ्वीनाथ ! मैंने तीनों लोकों में सत्यवादी, एकमात्र धर्म में तत्पर, शूरवीर, महापराक्रमी तथा बाणशय्या पर शयन करनें वाले आप शान्तनुनन्दन भीष्म के सिवाय दूसरे किसी ऐसे प्राणी को ऐसा नहीं सुना है, जिसने शरीर के लिये स्वभावसिद्ध मृत्यु को अपनी तपस्या से रोक दिया हों।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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