"श्रीमद्भागवत महापुराण दशम स्कन्ध अध्याय 48 श्लोक 25-36": अवतरणों में अंतर

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<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: अष्टचत्वारिंशोऽध्यायः श्लोक 25-36 का हिन्दी अनुवाद </div>
<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: अष्टचत्वारिंशोऽध्यायः श्लोक 25-36 का हिन्दी अनुवाद </div>
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इन्द्रियातीत परमात्मन्! सारे देवता, पिता, भूतगण और राजा आपकी मूर्ति हैं। आपके चरणों की धोवन गंगाजी तीनों लोगों को पवित्र करती हैं। आप सारे जगत् के एकमात्र पिता और शिक्षक हैं। वही आज आप हमारे घर पधारे। इसमें सन्देह नहीं कि आज हमारे घर धन्य-धन्य हो गये। उनके सौभाग्य की सीमा न रही । प्रभो! आप प्रेमी भक्तों के परम प्रियतम, सत्यवक्ता, अकारण हितू और कृतज्ञ हैं—जरा-सी सेवा को भी मान लेते हैं। भला, ऐसा कौन बुद्धिमान पुरुष है जो आपको छोड़कर किसी दूसरे की शरण में जायगा ? आप अपना भजन करने वाले प्रेमी भक्त की समस्त अभिलाषाएँ पूर्ण कर देते हैं। यहाँ तक कि जिसकी कभी क्षति और वृद्धि नहीं होती—जो एकरस है, अपने उस आत्मा का भी आप दान कर देते हैं । भक्तों के कष्ट मिटाने वाले और जन्म-मृत्यु के बन्धन से छुड़ाने वाले प्रभो! बड़े-बड़े योगिराज और देवराज भी आपके स्वरुप को नहीं जान सकते। परन्तु हमें आपका साक्षात् दर्शन हो गया, यह कितने सौभाग्य की बात है। प्रभो! हम स्त्री, पुत्र, धन, स्वजन, गेह और देह आदि के मोह की रस्सी में बँधे हुए हैं। अवश्य ही यह आपकी माया का खेल है। आप कृपा करके इस गाढ़े बन्धन को शीघ्र काट दीजिये’ ।  
इन्द्रियातीत परमात्मन्! सारे देवता, पिता, भूतगण और राजा आपकी मूर्ति हैं। आपके चरणों की धोवन गंगाजी तीनों लोगों को पवित्र करती हैं। आप सारे जगत् के एकमात्र पिता और शिक्षक हैं। वही आज आप हमारे घर पधारे। इसमें सन्देह नहीं कि आज हमारे घर धन्य-धन्य हो गये। उनके सौभाग्य की सीमा न रही । प्रभो! आप प्रेमी भक्तों के परम प्रियतम, सत्यवक्ता, अकारण हितू और कृतज्ञ हैं—जरा-सी सेवा को भी मान लेते हैं। भला, ऐसा कौन बुद्धिमान पुरुष है जो आपको छोड़कर किसी दूसरे की शरण में जायगा ? आप अपना भजन करने वाले प्रेमी भक्त की समस्त अभिलाषाएँ पूर्ण कर देते हैं। यहाँ तक कि जिसकी कभी क्षति और वृद्धि नहीं होती—जो एकरस है, अपने उस आत्मा का भी आप दान कर देते हैं । भक्तों के कष्ट मिटाने वाले और जन्म-मृत्यु के बन्धन से छुड़ाने वाले प्रभो! बड़े-बड़े योगिराज और देवराज भी आपके स्वरुप को नहीं जान सकते। परन्तु हमें आपका साक्षात् दर्शन हो गया, यह कितने सौभाग्य की बात है। प्रभो! हम स्त्री, पुत्र, धन, स्वजन, गेह और देह आदि के मोह की रस्सी में बँधे हुए हैं। अवश्य ही यह आपकी माया का खेल है। आप कृपा करके इस गाढ़े बन्धन को शीघ्र काट दीजिये’ ।  


श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! इस प्रकार भक्त अक्रूरजी ने भगवान् श्रीकृष्ण की पूजा और स्तुति की। इसके बाद भगवान् श्रीकृष्ण ने मुसकराकर अपनी मधुर वाणी से मानो मोहित करते हुए कहा ।  
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! इस प्रकार भक्त अक्रूरजी ने भगवान  श्रीकृष्ण की पूजा और स्तुति की। इसके बाद भगवान  श्रीकृष्ण ने मुसकराकर अपनी मधुर वाणी से मानो मोहित करते हुए कहा ।  


भगवान् श्रीकृष्ण ने कहा—‘तात! आप हमारे गुरु—हितोपदेशक और चाचा हैं। हमारे वंश में अत्यन्त प्रशंसनीय तथा हमारे सदा के हितैषी हैं। हम तो आपके बालक हैं और सदा ही आपकी रक्षा, पालन और कृपा के पात्र हैं ।  
भगवान  श्रीकृष्ण ने कहा—‘तात! आप हमारे गुरु—हितोपदेशक और चाचा हैं। हमारे वंश में अत्यन्त प्रशंसनीय तथा हमारे सदा के हितैषी हैं। हम तो आपके बालक हैं और सदा ही आपकी रक्षा, पालन और कृपा के पात्र हैं ।  


अपना परम कल्याण चाहने वाले मनुष्यों को आप-जैसे परम पूजनीय और महाभाग्यवान् संतों की सर्वदा सेवा करनी चाहिये। आप-जैसे संत देवताओं से भी बढ़कर हैं; क्योंकि देवताओं में तो स्वार्थ रहता है, परन्तु संतों में नहीं ।
अपना परम कल्याण चाहने वाले मनुष्यों को आप-जैसे परम पूजनीय और महाभाग्यवान् संतों की सर्वदा सेवा करनी चाहिये। आप-जैसे संत देवताओं से भी बढ़कर हैं; क्योंकि देवताओं में तो स्वार्थ रहता है, परन्तु संतों में नहीं ।
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आप जानते हैं कि राजा धृतराष्ट्र एक तो अंधे हैं और दूसरे उनमें मनोबल की कमी है। उसका पुत्र दुर्योधन बहुत दुष्ट है और उसके अधीन होने कर कारण वे पाण्डवों के साथ अपने पुत्र-जैसा—समान व्यवहार नहीं कर पाते ।
आप जानते हैं कि राजा धृतराष्ट्र एक तो अंधे हैं और दूसरे उनमें मनोबल की कमी है। उसका पुत्र दुर्योधन बहुत दुष्ट है और उसके अधीन होने कर कारण वे पाण्डवों के साथ अपने पुत्र-जैसा—समान व्यवहार नहीं कर पाते ।


इसलिये आप वहाँ जाइये और मालूम कीजिये कि उनकी स्थिति अच्छी है या बुरी। आपके द्वारा उसका समाचार जानकर मैं ऐसा उपाय करूँगा, जिससे उन सुहृदों को सुख मिले’ । सर्वशक्तिमान् भगवान् श्रीकृष्ण अक्रूरजी को इस प्रकार आदेश देकर बलरामजी और उद्धवजी के साथ वहाँ से अपने घर लौट आये ।
इसलिये आप वहाँ जाइये और मालूम कीजिये कि उनकी स्थिति अच्छी है या बुरी। आपके द्वारा उसका समाचार जानकर मैं ऐसा उपाय करूँगा, जिससे उन सुहृदों को सुख मिले’ । सर्वशक्तिमान् भगवान  श्रीकृष्ण अक्रूरजी को इस प्रकार आदेश देकर बलरामजी और उद्धवजी के साथ वहाँ से अपने घर लौट आये ।


{{लेख क्रम |पिछला=श्रीमद्भागवत महापुराण दशम स्कन्ध अध्याय 48 श्लोक 12-24 |अगला=श्रीमद्भागवत महापुराण दशम स्कन्ध अध्याय 49 श्लोक 1-14}}
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१२:३२, २९ जुलाई २०१५ के समय का अवतरण

दशम स्कन्ध: अष्टचत्वारिंशोऽध्यायः (48) (पूर्वार्ध)

श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: अष्टचत्वारिंशोऽध्यायः श्लोक 25-36 का हिन्दी अनुवाद

इन्द्रियातीत परमात्मन्! सारे देवता, पिता, भूतगण और राजा आपकी मूर्ति हैं। आपके चरणों की धोवन गंगाजी तीनों लोगों को पवित्र करती हैं। आप सारे जगत् के एकमात्र पिता और शिक्षक हैं। वही आज आप हमारे घर पधारे। इसमें सन्देह नहीं कि आज हमारे घर धन्य-धन्य हो गये। उनके सौभाग्य की सीमा न रही । प्रभो! आप प्रेमी भक्तों के परम प्रियतम, सत्यवक्ता, अकारण हितू और कृतज्ञ हैं—जरा-सी सेवा को भी मान लेते हैं। भला, ऐसा कौन बुद्धिमान पुरुष है जो आपको छोड़कर किसी दूसरे की शरण में जायगा ? आप अपना भजन करने वाले प्रेमी भक्त की समस्त अभिलाषाएँ पूर्ण कर देते हैं। यहाँ तक कि जिसकी कभी क्षति और वृद्धि नहीं होती—जो एकरस है, अपने उस आत्मा का भी आप दान कर देते हैं । भक्तों के कष्ट मिटाने वाले और जन्म-मृत्यु के बन्धन से छुड़ाने वाले प्रभो! बड़े-बड़े योगिराज और देवराज भी आपके स्वरुप को नहीं जान सकते। परन्तु हमें आपका साक्षात् दर्शन हो गया, यह कितने सौभाग्य की बात है। प्रभो! हम स्त्री, पुत्र, धन, स्वजन, गेह और देह आदि के मोह की रस्सी में बँधे हुए हैं। अवश्य ही यह आपकी माया का खेल है। आप कृपा करके इस गाढ़े बन्धन को शीघ्र काट दीजिये’ ।

श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! इस प्रकार भक्त अक्रूरजी ने भगवान श्रीकृष्ण की पूजा और स्तुति की। इसके बाद भगवान श्रीकृष्ण ने मुसकराकर अपनी मधुर वाणी से मानो मोहित करते हुए कहा ।

भगवान श्रीकृष्ण ने कहा—‘तात! आप हमारे गुरु—हितोपदेशक और चाचा हैं। हमारे वंश में अत्यन्त प्रशंसनीय तथा हमारे सदा के हितैषी हैं। हम तो आपके बालक हैं और सदा ही आपकी रक्षा, पालन और कृपा के पात्र हैं ।

अपना परम कल्याण चाहने वाले मनुष्यों को आप-जैसे परम पूजनीय और महाभाग्यवान् संतों की सर्वदा सेवा करनी चाहिये। आप-जैसे संत देवताओं से भी बढ़कर हैं; क्योंकि देवताओं में तो स्वार्थ रहता है, परन्तु संतों में नहीं ।

केवल जल के तीर्थ (नदी, सरोवर आदि) ही तीर्थ नहीं हैं, केवल मृत्तिका और शिला आदि की बनी हुई मूर्तियाँ ही देवता नहीं हैं। चाचाजी! उनकी तो बहुत दिनों तक श्रद्धा से सेवा की जाय, तब वे पवित्र करते हैं। परन्तु संत पुरुष तो अपने दर्शन मात्र से पवित्र कर देते हैं ।

चाचाजी! आप हमारे हितैषी सुहृदों में सर्वश्रेष्ठ हैं। इसलिये आप पाण्डवों का हित करने के लिये तथा उनका कुशल-मंगल जानने के लिये हस्तिनापुर जाइये ।

हमने ऐसा सुना है कि राजा पाण्डु के मर पर जाने पर अपनी माता कुन्ती के साथ युधिष्ठिर आदि पाण्डव बड़े दुःख में पड़ गये थे। अब राजा धृतराष्ट्र उन्हें अपनी राजधानी हस्तिनापुर में ले आये हैं और वे वहीं रहते हैं ।

आप जानते हैं कि राजा धृतराष्ट्र एक तो अंधे हैं और दूसरे उनमें मनोबल की कमी है। उसका पुत्र दुर्योधन बहुत दुष्ट है और उसके अधीन होने कर कारण वे पाण्डवों के साथ अपने पुत्र-जैसा—समान व्यवहार नहीं कर पाते ।

इसलिये आप वहाँ जाइये और मालूम कीजिये कि उनकी स्थिति अच्छी है या बुरी। आपके द्वारा उसका समाचार जानकर मैं ऐसा उपाय करूँगा, जिससे उन सुहृदों को सुख मिले’ । सर्वशक्तिमान् भगवान श्रीकृष्ण अक्रूरजी को इस प्रकार आदेश देकर बलरामजी और उद्धवजी के साथ वहाँ से अपने घर लौट आये ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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