"श्रीमद्भागवत महापुराण दशम स्कन्ध अध्याय 19 श्लोक 12-16": अवतरणों में अंतर
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<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: एकोनविंशोऽध्यायः श्लोक 12-16 का हिन्दी अनुवाद </div> | <div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: एकोनविंशोऽध्यायः श्लोक 12-16 का हिन्दी अनुवाद </div> | ||
भगवान की आज्ञा सुनकर उन ग्वालबालों ने कहा ‘बहुत अच्छा’ और अपनी आँखें मूँद लीं। तब योगेश्वर भगवान [[कृष्ण|श्रीकृष्ण]] ने उस भयंकर आग को अपने मुँह में पी लिया<ref> | |||
#भगवान श्रीकृष्ण भक्तों के द्वारा अर्पित प्रेम-भक्ति-सुधा-रस का पान करते हैं। अग्नि के मन में उसी का स्वाद लेने की लालसा हो आयी। इसलिये उसने स्वयं ही मुख में प्रवेश किया।<br /> | |||
#विषाग्नि, मुंजाग्नि और दावाग्नि—तीनों का पान करके भगवान ने अपनी त्रिताप नाश की शक्ति व्यक्त की।<br /> | |||
#पहले रात्रि में अग्नि पान किया था, दूसरी बार दिन में। भगवान अपने भक्तजनों का ताप हरने के लिये सदा तत्पर रहते हैं।<br /> | |||
#पहली बार सबके सामने और दूसरी बार सबकी आँखें बंद कराके श्रीकृष्ण ने अग्निपान किया। इसका अभिप्राय यह है कि भगवान परोक्ष और अपरोक्ष दोनों ही प्रकार से वे भक्तजनों का हित करते हैं।</ref>। इसके बाद जब ग्वालबालों ने अपनी-अपनी आँखें खोलकर देखा तब अपने को भाण्डीर वट पास पाया। इस प्रकार अपने-आपको और गौओं को दावानल बचा देख वे ग्वालबाल बहुत ही विस्मित हुए । श्रीकृष्ण की इस योगसिद्धि तथा योगमाया के प्रभाव को एवं दावा-नल से अपनी रक्षा को देखकर उन्होंने यही समझा कि श्रीकृष्ण कोई देवता हैं । | |||
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==टीका टिप्पणी और संदर्भ== | ==टीका टिप्पणी और संदर्भ== |
१२:३४, २९ जुलाई २०१५ के समय का अवतरण
दशम स्कन्ध: एकोनविंशोऽध्यायः (19) (पूर्वार्ध)
भगवान की आज्ञा सुनकर उन ग्वालबालों ने कहा ‘बहुत अच्छा’ और अपनी आँखें मूँद लीं। तब योगेश्वर भगवान श्रीकृष्ण ने उस भयंकर आग को अपने मुँह में पी लिया[१]। इसके बाद जब ग्वालबालों ने अपनी-अपनी आँखें खोलकर देखा तब अपने को भाण्डीर वट पास पाया। इस प्रकार अपने-आपको और गौओं को दावानल बचा देख वे ग्वालबाल बहुत ही विस्मित हुए । श्रीकृष्ण की इस योगसिद्धि तथा योगमाया के प्रभाव को एवं दावा-नल से अपनी रक्षा को देखकर उन्होंने यही समझा कि श्रीकृष्ण कोई देवता हैं ।
परीक्षित! सायंकाल होने पर बलरामजी के साथ भगवान श्रीकृष्ण ने गौएँ लौतायीं और वंशी बजाते हुए उनके पीछे-पीछे व्रज की यात्रा की। उस समय ग्वालबाल उनकी स्तुति करते आ रहे थे । इधर व्रज में गोपियों को श्रीकृष्ण के बिना एक-एक क्षण सौ-सौ युग के समान हो रहा था। जब भगवान श्रीकृष्ण लौटे तब उनका दर्शन करके वे परमानन्द में मग्न हो गयीं ।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑
- भगवान श्रीकृष्ण भक्तों के द्वारा अर्पित प्रेम-भक्ति-सुधा-रस का पान करते हैं। अग्नि के मन में उसी का स्वाद लेने की लालसा हो आयी। इसलिये उसने स्वयं ही मुख में प्रवेश किया।
- विषाग्नि, मुंजाग्नि और दावाग्नि—तीनों का पान करके भगवान ने अपनी त्रिताप नाश की शक्ति व्यक्त की।
- पहले रात्रि में अग्नि पान किया था, दूसरी बार दिन में। भगवान अपने भक्तजनों का ताप हरने के लिये सदा तत्पर रहते हैं।
- पहली बार सबके सामने और दूसरी बार सबकी आँखें बंद कराके श्रीकृष्ण ने अग्निपान किया। इसका अभिप्राय यह है कि भगवान परोक्ष और अपरोक्ष दोनों ही प्रकार से वे भक्तजनों का हित करते हैं।
- भगवान श्रीकृष्ण भक्तों के द्वारा अर्पित प्रेम-भक्ति-सुधा-रस का पान करते हैं। अग्नि के मन में उसी का स्वाद लेने की लालसा हो आयी। इसलिये उसने स्वयं ही मुख में प्रवेश किया।
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