"श्रीमद्भागवत महापुराण दशम स्कन्ध अध्याय 27 श्लोक 11-24" के अवतरणों में अंतर

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आपने जीवों के समान कर्मवश होकर नहीं, स्वन्त्रता से अपने भक्तों की तथा अपनी इच्छा के अनुसार शरीर स्वीकार किया है। आपका यह शरीर ही विशुद्ध-ज्ञानस्वरुप है। आप सब कूछ हैं, सबके कारण हैं और सबके आत्मा हैं। मैं आपको बार-बार नमस्कार करता हूँ । भगवन्! मेरे अभिमान का अन्त नहीं है और मेरा क्रोध भी बहुत ही तीव्र, मेरे वश के बाहर है। जब मैंने देखा कि मेरा यज्ञ तो नष्ट कर दिया गया, तब मैंने मुसलधार वर्षा और आँधी के द्वारा सारे व्रजमण्डल को नष्ट कर देना चाहा । परन्तु प्रभो! आपने मुझपर बहुत ही अनुग्रह किया। मेरी चेष्टा व्यर्थ होने से मेरे घमंड जड़ उखड गयी। आप मेरे स्वामी हैं, गुरु हैं और मेरे आत्मा हैं। मैं आपकी शरण में हूँ ।
 
आपने जीवों के समान कर्मवश होकर नहीं, स्वन्त्रता से अपने भक्तों की तथा अपनी इच्छा के अनुसार शरीर स्वीकार किया है। आपका यह शरीर ही विशुद्ध-ज्ञानस्वरुप है। आप सब कूछ हैं, सबके कारण हैं और सबके आत्मा हैं। मैं आपको बार-बार नमस्कार करता हूँ । भगवन्! मेरे अभिमान का अन्त नहीं है और मेरा क्रोध भी बहुत ही तीव्र, मेरे वश के बाहर है। जब मैंने देखा कि मेरा यज्ञ तो नष्ट कर दिया गया, तब मैंने मुसलधार वर्षा और आँधी के द्वारा सारे व्रजमण्डल को नष्ट कर देना चाहा । परन्तु प्रभो! आपने मुझपर बहुत ही अनुग्रह किया। मेरी चेष्टा व्यर्थ होने से मेरे घमंड जड़ उखड गयी। आप मेरे स्वामी हैं, गुरु हैं और मेरे आत्मा हैं। मैं आपकी शरण में हूँ ।
  
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! जब देवराज इन्द्र ने भगवान् श्रीकृष्ण की इस प्रकार स्तुति की, तब उन्होंने हँसते हुए मेघ के समान गम्भीर वाणी से इन्द्र को सम्बोधन करके कहा—
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श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! जब देवराज इन्द्र ने भगवान  श्रीकृष्ण की इस प्रकार स्तुति की, तब उन्होंने हँसते हुए मेघ के समान गम्भीर वाणी से इन्द्र को सम्बोधन करके कहा—
  
श्रीभगवान् ने कहा—इन्द्र! तुम ऐश्वर्य और धन-सम्पत्ति के मद से पूरे-पूरे मतवाले हो रह थे। इसलिये तुम पर अनुग्रह करके ही मैंने तुम्हारा यज्ञ भंग किया है। यह इसलिये कि अब तुम मुझे नित्य-निरन्तर स्मरण रख सको । जो ऐश्वर्य और धन-सम्पत्ति के मद से अंधा हो जाता है, वह यह नहीं देखता कि मैं कालरूप परमेश्वर हाथ में दण्ड लेकर उसके सिरपर सवार हूँ। मैं जिस पर अनुग्रह करना चाहता हूँ, उसे ऐश्वर्यभ्रष्ट कर देता हूँ । इन्द्र! तुम्हारा मंगल हो। अब तुम अपनी राजधानी अमरावती में जाओ और मेरी आज्ञा का पालन करो। अब कभी घमंड न करना। नित्य-निरन्तर मेरी सन्निधिका, मेरे संयोग का अनुभव करते रहना और अपने अधिकार के अनुसार उचित रीति से मर्यादा का पालन करना ।
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श्रीभगवान  ने कहा—इन्द्र! तुम ऐश्वर्य और धन-सम्पत्ति के मद से पूरे-पूरे मतवाले हो रह थे। इसलिये तुम पर अनुग्रह करके ही मैंने तुम्हारा यज्ञ भंग किया है। यह इसलिये कि अब तुम मुझे नित्य-निरन्तर स्मरण रख सको । जो ऐश्वर्य और धन-सम्पत्ति के मद से अंधा हो जाता है, वह यह नहीं देखता कि मैं कालरूप परमेश्वर हाथ में दण्ड लेकर उसके सिरपर सवार हूँ। मैं जिस पर अनुग्रह करना चाहता हूँ, उसे ऐश्वर्यभ्रष्ट कर देता हूँ । इन्द्र! तुम्हारा मंगल हो। अब तुम अपनी राजधानी अमरावती में जाओ और मेरी आज्ञा का पालन करो। अब कभी घमंड न करना। नित्य-निरन्तर मेरी सन्निधिका, मेरे संयोग का अनुभव करते रहना और अपने अधिकार के अनुसार उचित रीति से मर्यादा का पालन करना ।
  
परीक्षित्! भगवान् इस प्रकार आज्ञा दे ही रहे थे कि मनस्विनी कामधेनु ने अपनी सन्तानों के साथ गोपवेषधारी परमेश्वर श्रीकृष्ण की वन्दना की और उनको सम्बोधित करके कहा—
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परीक्षित्! भगवान  इस प्रकार आज्ञा दे ही रहे थे कि मनस्विनी कामधेनु ने अपनी सन्तानों के साथ गोपवेषधारी परमेश्वर श्रीकृष्ण की वन्दना की और उनको सम्बोधित करके कहा—
  
 
कामधेनु ने कहा—सच्चिदानंदस्वरुप श्रीकृष्ण! आप महायोगी—योगेश्वर हैं। आप स्वयं विश्व हैं, विश्व के परम कारण हैं, अच्युत हैं। सम्पूर्ण विश्व के स्वामी आपको अपने रक्षक के रूप में प्राप्तकर हम सनाथ हो गयी । आप जगत् के स्वामी हैं, परन्तु हमारे तो परम पूजनीय आराध्यदेव ही हैं। प्रभो! इन्द्र त्रिलोकी के इन्द्र हुआ करें, परन्तु इन्द्र तो आप ही हैं। अतः आप ही गौ, ब्राम्हण, देवता और साधुजनों की रक्षा के लिये हमारे इन्द्र बन जाइये । हम गौएँ ब्रम्हाजी की प्रेरणा से आपको अपना इन्द्र मानकर अभिषेक करेंगी। विश्वात्मन्! आपने पृथ्वी का भार उतारने के लिये ही अवतार धारण किया है ।
 
कामधेनु ने कहा—सच्चिदानंदस्वरुप श्रीकृष्ण! आप महायोगी—योगेश्वर हैं। आप स्वयं विश्व हैं, विश्व के परम कारण हैं, अच्युत हैं। सम्पूर्ण विश्व के स्वामी आपको अपने रक्षक के रूप में प्राप्तकर हम सनाथ हो गयी । आप जगत् के स्वामी हैं, परन्तु हमारे तो परम पूजनीय आराध्यदेव ही हैं। प्रभो! इन्द्र त्रिलोकी के इन्द्र हुआ करें, परन्तु इन्द्र तो आप ही हैं। अतः आप ही गौ, ब्राम्हण, देवता और साधुजनों की रक्षा के लिये हमारे इन्द्र बन जाइये । हम गौएँ ब्रम्हाजी की प्रेरणा से आपको अपना इन्द्र मानकर अभिषेक करेंगी। विश्वात्मन्! आपने पृथ्वी का भार उतारने के लिये ही अवतार धारण किया है ।
  
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! भगवान् श्रीकृष्ण से ऐसा कहकर कामधेनु अपने दूध से और देवमाताओं की प्रेरणा से देवराज इन्द्र ने ऐरावत की सूँड के द्वारा लाये हुए आकाशगंगा के जल से देवर्षियों के साथ यदुनाथ श्रीकृष्ण का अभिषेक किया और उन्हें ‘गोविन्द’ नाम से सम्बोधित किया । उस समय वहाँ नारद, तुम्बुरु आदि गन्धर्व, विद्याधर, सिद्ध और चरण पहले से ही आ गये थे। वे समस्त संसार के पाप-ताप को मिटा देने वाले भगवान् के लोकमलापह यश गान करने लगे और अप्सराएँ आनन्द से भरकर नृत्य करने लगीं ।  
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श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! भगवान  श्रीकृष्ण से ऐसा कहकर कामधेनु अपने दूध से और देवमाताओं की प्रेरणा से देवराज इन्द्र ने ऐरावत की सूँड के द्वारा लाये हुए आकाशगंगा के जल से देवर्षियों के साथ यदुनाथ श्रीकृष्ण का अभिषेक किया और उन्हें ‘गोविन्द’ नाम से सम्बोधित किया । उस समय वहाँ नारद, तुम्बुरु आदि गन्धर्व, विद्याधर, सिद्ध और चरण पहले से ही आ गये थे। वे समस्त संसार के पाप-ताप को मिटा देने वाले भगवान  के लोकमलापह यश गान करने लगे और अप्सराएँ आनन्द से भरकर नृत्य करने लगीं ।  
  
  

१२:३५, २९ जुलाई २०१५ के समय का अवतरण

दशम स्कन्ध: सप्तविंशोऽध्यायः (27) (पूर्वार्ध)

श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: सप्तविंशोऽध्यायः श्लोक 11-24 का हिन्दी अनुवाद

आपने जीवों के समान कर्मवश होकर नहीं, स्वन्त्रता से अपने भक्तों की तथा अपनी इच्छा के अनुसार शरीर स्वीकार किया है। आपका यह शरीर ही विशुद्ध-ज्ञानस्वरुप है। आप सब कूछ हैं, सबके कारण हैं और सबके आत्मा हैं। मैं आपको बार-बार नमस्कार करता हूँ । भगवन्! मेरे अभिमान का अन्त नहीं है और मेरा क्रोध भी बहुत ही तीव्र, मेरे वश के बाहर है। जब मैंने देखा कि मेरा यज्ञ तो नष्ट कर दिया गया, तब मैंने मुसलधार वर्षा और आँधी के द्वारा सारे व्रजमण्डल को नष्ट कर देना चाहा । परन्तु प्रभो! आपने मुझपर बहुत ही अनुग्रह किया। मेरी चेष्टा व्यर्थ होने से मेरे घमंड जड़ उखड गयी। आप मेरे स्वामी हैं, गुरु हैं और मेरे आत्मा हैं। मैं आपकी शरण में हूँ ।

श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! जब देवराज इन्द्र ने भगवान श्रीकृष्ण की इस प्रकार स्तुति की, तब उन्होंने हँसते हुए मेघ के समान गम्भीर वाणी से इन्द्र को सम्बोधन करके कहा—

श्रीभगवान ने कहा—इन्द्र! तुम ऐश्वर्य और धन-सम्पत्ति के मद से पूरे-पूरे मतवाले हो रह थे। इसलिये तुम पर अनुग्रह करके ही मैंने तुम्हारा यज्ञ भंग किया है। यह इसलिये कि अब तुम मुझे नित्य-निरन्तर स्मरण रख सको । जो ऐश्वर्य और धन-सम्पत्ति के मद से अंधा हो जाता है, वह यह नहीं देखता कि मैं कालरूप परमेश्वर हाथ में दण्ड लेकर उसके सिरपर सवार हूँ। मैं जिस पर अनुग्रह करना चाहता हूँ, उसे ऐश्वर्यभ्रष्ट कर देता हूँ । इन्द्र! तुम्हारा मंगल हो। अब तुम अपनी राजधानी अमरावती में जाओ और मेरी आज्ञा का पालन करो। अब कभी घमंड न करना। नित्य-निरन्तर मेरी सन्निधिका, मेरे संयोग का अनुभव करते रहना और अपने अधिकार के अनुसार उचित रीति से मर्यादा का पालन करना ।

परीक्षित्! भगवान इस प्रकार आज्ञा दे ही रहे थे कि मनस्विनी कामधेनु ने अपनी सन्तानों के साथ गोपवेषधारी परमेश्वर श्रीकृष्ण की वन्दना की और उनको सम्बोधित करके कहा—

कामधेनु ने कहा—सच्चिदानंदस्वरुप श्रीकृष्ण! आप महायोगी—योगेश्वर हैं। आप स्वयं विश्व हैं, विश्व के परम कारण हैं, अच्युत हैं। सम्पूर्ण विश्व के स्वामी आपको अपने रक्षक के रूप में प्राप्तकर हम सनाथ हो गयी । आप जगत् के स्वामी हैं, परन्तु हमारे तो परम पूजनीय आराध्यदेव ही हैं। प्रभो! इन्द्र त्रिलोकी के इन्द्र हुआ करें, परन्तु इन्द्र तो आप ही हैं। अतः आप ही गौ, ब्राम्हण, देवता और साधुजनों की रक्षा के लिये हमारे इन्द्र बन जाइये । हम गौएँ ब्रम्हाजी की प्रेरणा से आपको अपना इन्द्र मानकर अभिषेक करेंगी। विश्वात्मन्! आपने पृथ्वी का भार उतारने के लिये ही अवतार धारण किया है ।

श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! भगवान श्रीकृष्ण से ऐसा कहकर कामधेनु अपने दूध से और देवमाताओं की प्रेरणा से देवराज इन्द्र ने ऐरावत की सूँड के द्वारा लाये हुए आकाशगंगा के जल से देवर्षियों के साथ यदुनाथ श्रीकृष्ण का अभिषेक किया और उन्हें ‘गोविन्द’ नाम से सम्बोधित किया । उस समय वहाँ नारद, तुम्बुरु आदि गन्धर्व, विद्याधर, सिद्ध और चरण पहले से ही आ गये थे। वे समस्त संसार के पाप-ताप को मिटा देने वाले भगवान के लोकमलापह यश गान करने लगे और अप्सराएँ आनन्द से भरकर नृत्य करने लगीं ।



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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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