"श्रीमद्भागवत महापुराण दशम स्कन्ध अध्याय 32 श्लोक 12-18": अवतरणों में अंतर

अद्‌भुत भारत की खोज
नेविगेशन पर जाएँ खोज पर जाएँ
[अनिरीक्षित अवतरण][अनिरीक्षित अवतरण]
('== दशम स्कन्ध: द्वात्रिंशोऽध्यायः (32) (पूर्वाध)== <div style="text-...' के साथ नया पन्ना बनाया)
 
छो (Text replace - "भगवान् " to "भगवान ")
 
(इसी सदस्य द्वारा किया गया बीच का एक अवतरण नहीं दर्शाया गया)
पंक्ति १: पंक्ति १:
== दशम स्कन्ध: द्वात्रिंशोऽध्यायः (32) (पूर्वाध)==
== दशम स्कन्ध: द्वात्रिंशोऽध्यायः (32) (पूर्वार्ध)==


<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: द्वात्रिंशोऽध्यायः श्लोक 12-18 का हिन्दी अनुवाद </div>
<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: द्वात्रिंशोऽध्यायः श्लोक 12-18 का हिन्दी अनुवाद </div>


शरत्पूर्णिमा के चन्द्रमा की चाँदनी अपनी निराली ही छटा दिखला रही थी। उसके कारण रात्रि के अन्धकार का तो कहीं पता ही न था, सर्वत्र आनन्द-मंगल का ही साम्राज्य छाया था। वह पुलिन क्या था, यमुनाजी ने स्वयं अपनी लहरों के हाथों भगवान् की लीला के लिये सुकोमल बालुका का रंगमंच बना रखा था । परीक्षित्! भगवान् श्रीकृष्ण के दर्शन से गोपियों के ह्रदय में इतने आनन्द और इतने रस का उल्लास हुआ कि उनके ह्रदय की सारी आधि-व्याधि मिट गयी। जैसे कर्मकाण्ड की श्रुतियाँ उनका वर्णन करते-करते अन्त में ज्ञानकाण्ड का प्रतिपादन करने लगती हैं और फिर वे समस्त मनोरथों से ऊपर उठ जाती हैं, कृतकृत्य हो जाती हैं—वैसे ही गोपियाँ भी पूर्णकाम हो गयीं। अब उन्होंने अपने वक्षःस्थल पर लगी हुई रोली-केसर से चिन्हित ओढ़नी को अपने परम प्यारे सुहृद् श्रीकृष्ण के विराजने के लिये बिछा दिया । बड़े-बड़े योगेश्वरों अपने योगसाधन से पवित्र किये हुए ह्रदय में जिनके लिये आसन की कल्पना करते रहते हैं, किन्तु फिर भी अपने ह्रदय-सिंहासन पर बिठा नहीं पाते, वही सर्वशक्तिमान् भगवान् यमुनाजी की रेती में गोपियों की ओढ़नी पर बैठ गये। सहस्त्र-सहस्त्र गोपियों के बीच में उनसे पूजित होकर भगवान् बड़े ही शोभायमान हो रहे थे। परीक्षित्! तीनों लोकों में—तीनों कालों में जितना भी सौन्दर्य प्रकाशित होता है, वह सब तो भगवान् के बिन्दुमात्र सौन्दर्य का आभास भर है। वे उनके एकमात्र आश्रय हैं । भगवान् श्रीकृष्ण अपने इस अलौकिक सौन्दर्य के द्वारा उनके प्रेम और आकांक्षा को और भी उभाड़ रहे थे। गोपियों ने अपनी मन्द-मन्द मुसकान, विलासपूर्ण चितवन और तिरछी भौंहों से उनका सम्मान किया। किसी ने उनके चरणकमलों को अपनी गोद में रख लिया, तो किसी ने उनके करकमलों को। वे उनके संस्पर्श का आनन्द लेती हुई कभी-कभी कह उठती थीं—कितना सुकुमार है, कितना मधुर है! इसके बाद श्रीकृष्ण के छिप जाने से मन-ही-मन तनिक रूठकर उनके मुँह से ही उनका दोष स्वीकार कराने के लिये वे कहने लगीं ।  
शरत्पूर्णिमा के चन्द्रमा की चाँदनी अपनी निराली ही छटा दिखला रही थी। उसके कारण रात्रि के अन्धकार का तो कहीं पता ही न था, सर्वत्र आनन्द-मंगल का ही साम्राज्य छाया था। वह पुलिन क्या था, यमुनाजी ने स्वयं अपनी लहरों के हाथों भगवान  की लीला के लिये सुकोमल बालुका का रंगमंच बना रखा था । परीक्षित्! भगवान  श्रीकृष्ण के दर्शन से गोपियों के ह्रदय में इतने आनन्द और इतने रस का उल्लास हुआ कि उनके ह्रदय की सारी आधि-व्याधि मिट गयी। जैसे कर्मकाण्ड की श्रुतियाँ उनका वर्णन करते-करते अन्त में ज्ञानकाण्ड का प्रतिपादन करने लगती हैं और फिर वे समस्त मनोरथों से ऊपर उठ जाती हैं, कृतकृत्य हो जाती हैं—वैसे ही गोपियाँ भी पूर्णकाम हो गयीं। अब उन्होंने अपने वक्षःस्थल पर लगी हुई रोली-केसर से चिन्हित ओढ़नी को अपने परम प्यारे सुहृद् श्रीकृष्ण के विराजने के लिये बिछा दिया । बड़े-बड़े योगेश्वरों अपने योगसाधन से पवित्र किये हुए ह्रदय में जिनके लिये आसन की कल्पना करते रहते हैं, किन्तु फिर भी अपने ह्रदय-सिंहासन पर बिठा नहीं पाते, वही सर्वशक्तिमान् भगवान  यमुनाजी की रेती में गोपियों की ओढ़नी पर बैठ गये। सहस्त्र-सहस्त्र गोपियों के बीच में उनसे पूजित होकर भगवान  बड़े ही शोभायमान हो रहे थे। परीक्षित्! तीनों लोकों में—तीनों कालों में जितना भी सौन्दर्य प्रकाशित होता है, वह सब तो भगवान  के बिन्दुमात्र सौन्दर्य का आभास भर है। वे उनके एकमात्र आश्रय हैं । भगवान  श्रीकृष्ण अपने इस अलौकिक सौन्दर्य के द्वारा उनके प्रेम और आकांक्षा को और भी उभाड़ रहे थे। गोपियों ने अपनी मन्द-मन्द मुसकान, विलासपूर्ण चितवन और तिरछी भौंहों से उनका सम्मान किया। किसी ने उनके चरणकमलों को अपनी गोद में रख लिया, तो किसी ने उनके करकमलों को। वे उनके संस्पर्श का आनन्द लेती हुई कभी-कभी कह उठती थीं—कितना सुकुमार है, कितना मधुर है! इसके बाद श्रीकृष्ण के छिप जाने से मन-ही-मन तनिक रूठकर उनके मुँह से ही उनका दोष स्वीकार कराने के लिये वे कहने लगीं ।  


गोपियों ने कहा—नटनागर! कुछ लोग तो ऐसे होते हैं, जो प्रेम करने वालों से ही प्रेम करते हैं और कुछ लोग प्रेम न करने वालों से भी प्रेम करते हैं। परन्तु कोई-कोई दोनों से ही प्रेम नहीं करते। प्यारे! इन तीनों में तुम्हें कौन-सा अच्छा लगता है ?  
गोपियों ने कहा—नटनागर! कुछ लोग तो ऐसे होते हैं, जो प्रेम करने वालों से ही प्रेम करते हैं और कुछ लोग प्रेम न करने वालों से भी प्रेम करते हैं। परन्तु कोई-कोई दोनों से ही प्रेम नहीं करते। प्यारे! इन तीनों में तुम्हें कौन-सा अच्छा लगता है ?  


भगवान् श्रीकृष्ण ने कहा—मेरी प्रिय सखियों! जो प्रेम करने पर प्रेम करते हैं, उनका तो सारा उद्दोग स्वार्थ को लेकर है। लेन-देन मात्र है। न तो उनमें सौहार्द है और न तो धर्म। उनका प्रेम केवल स्वार्थ के लिये ही है; इसके अतिरिक्त उनका और कोई प्रयोजन नहीं है । सुन्दरियों! जो लोग प्रेम न करने वाले से भी प्रेम करते हैं—जैसे स्वभाव से ही करुणाशील सज्जन और माता-पिता—उनका ह्रदय सौहार्द से, हितैषिता से भरा रहता है और सच पूछो, तो उनके व्यवहार में निश्छल सत्य एवं पूर्ण धर्म भी है ।
भगवान  श्रीकृष्ण ने कहा—मेरी प्रिय सखियों! जो प्रेम करने पर प्रेम करते हैं, उनका तो सारा उद्दोग स्वार्थ को लेकर है। लेन-देन मात्र है। न तो उनमें सौहार्द है और न तो धर्म। उनका प्रेम केवल स्वार्थ के लिये ही है; इसके अतिरिक्त उनका और कोई प्रयोजन नहीं है । सुन्दरियों! जो लोग प्रेम न करने वाले से भी प्रेम करते हैं—जैसे स्वभाव से ही करुणाशील सज्जन और माता-पिता—उनका ह्रदय सौहार्द से, हितैषिता से भरा रहता है और सच पूछो, तो उनके व्यवहार में निश्छल सत्य एवं पूर्ण धर्म भी है ।





१२:३५, २९ जुलाई २०१५ के समय का अवतरण

दशम स्कन्ध: द्वात्रिंशोऽध्यायः (32) (पूर्वार्ध)

श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: द्वात्रिंशोऽध्यायः श्लोक 12-18 का हिन्दी अनुवाद

शरत्पूर्णिमा के चन्द्रमा की चाँदनी अपनी निराली ही छटा दिखला रही थी। उसके कारण रात्रि के अन्धकार का तो कहीं पता ही न था, सर्वत्र आनन्द-मंगल का ही साम्राज्य छाया था। वह पुलिन क्या था, यमुनाजी ने स्वयं अपनी लहरों के हाथों भगवान की लीला के लिये सुकोमल बालुका का रंगमंच बना रखा था । परीक्षित्! भगवान श्रीकृष्ण के दर्शन से गोपियों के ह्रदय में इतने आनन्द और इतने रस का उल्लास हुआ कि उनके ह्रदय की सारी आधि-व्याधि मिट गयी। जैसे कर्मकाण्ड की श्रुतियाँ उनका वर्णन करते-करते अन्त में ज्ञानकाण्ड का प्रतिपादन करने लगती हैं और फिर वे समस्त मनोरथों से ऊपर उठ जाती हैं, कृतकृत्य हो जाती हैं—वैसे ही गोपियाँ भी पूर्णकाम हो गयीं। अब उन्होंने अपने वक्षःस्थल पर लगी हुई रोली-केसर से चिन्हित ओढ़नी को अपने परम प्यारे सुहृद् श्रीकृष्ण के विराजने के लिये बिछा दिया । बड़े-बड़े योगेश्वरों अपने योगसाधन से पवित्र किये हुए ह्रदय में जिनके लिये आसन की कल्पना करते रहते हैं, किन्तु फिर भी अपने ह्रदय-सिंहासन पर बिठा नहीं पाते, वही सर्वशक्तिमान् भगवान यमुनाजी की रेती में गोपियों की ओढ़नी पर बैठ गये। सहस्त्र-सहस्त्र गोपियों के बीच में उनसे पूजित होकर भगवान बड़े ही शोभायमान हो रहे थे। परीक्षित्! तीनों लोकों में—तीनों कालों में जितना भी सौन्दर्य प्रकाशित होता है, वह सब तो भगवान के बिन्दुमात्र सौन्दर्य का आभास भर है। वे उनके एकमात्र आश्रय हैं । भगवान श्रीकृष्ण अपने इस अलौकिक सौन्दर्य के द्वारा उनके प्रेम और आकांक्षा को और भी उभाड़ रहे थे। गोपियों ने अपनी मन्द-मन्द मुसकान, विलासपूर्ण चितवन और तिरछी भौंहों से उनका सम्मान किया। किसी ने उनके चरणकमलों को अपनी गोद में रख लिया, तो किसी ने उनके करकमलों को। वे उनके संस्पर्श का आनन्द लेती हुई कभी-कभी कह उठती थीं—कितना सुकुमार है, कितना मधुर है! इसके बाद श्रीकृष्ण के छिप जाने से मन-ही-मन तनिक रूठकर उनके मुँह से ही उनका दोष स्वीकार कराने के लिये वे कहने लगीं ।

गोपियों ने कहा—नटनागर! कुछ लोग तो ऐसे होते हैं, जो प्रेम करने वालों से ही प्रेम करते हैं और कुछ लोग प्रेम न करने वालों से भी प्रेम करते हैं। परन्तु कोई-कोई दोनों से ही प्रेम नहीं करते। प्यारे! इन तीनों में तुम्हें कौन-सा अच्छा लगता है ?

भगवान श्रीकृष्ण ने कहा—मेरी प्रिय सखियों! जो प्रेम करने पर प्रेम करते हैं, उनका तो सारा उद्दोग स्वार्थ को लेकर है। लेन-देन मात्र है। न तो उनमें सौहार्द है और न तो धर्म। उनका प्रेम केवल स्वार्थ के लिये ही है; इसके अतिरिक्त उनका और कोई प्रयोजन नहीं है । सुन्दरियों! जो लोग प्रेम न करने वाले से भी प्रेम करते हैं—जैसे स्वभाव से ही करुणाशील सज्जन और माता-पिता—उनका ह्रदय सौहार्द से, हितैषिता से भरा रहता है और सच पूछो, तो उनके व्यवहार में निश्छल सत्य एवं पूर्ण धर्म भी है ।



« पीछे आगे »

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

-