"श्रीमद्भागवत महापुराण दशम स्कन्ध अध्याय 79 श्लोक 17-28": अवतरणों में अंतर

अद्‌भुत भारत की खोज
नेविगेशन पर जाएँ खोज पर जाएँ
[अनिरीक्षित अवतरण][अनिरीक्षित अवतरण]
('== दशम स्कन्ध: एकोनाशीतितमोऽध्यायः(79) (उत्तरार्ध)== <div styl...' के साथ नया पन्ना बनाया)
 
छो (Text replace - "भगवान् " to "भगवान ")
 
पंक्ति ४: पंक्ति ४:




वहाँ पर विराजमान अगस्त्य मुनि को को उन्होंने नमस्कार और अभिवादन किया। अगस्त्यजी ने आशीर्वाद और अनुमति प्राप्त परके बलरामजी ने दक्षिण समुद्र की यात्रा की। वहाँ उन्होंने दुर्गादेवी का कन्याकुमारी के रूप में दर्शन किया । इसके बाद वे फाल्गुन तीर्थ—अनन्तशयन क्षेत्र में गये और वहाँ के सर्वश्रेष्ठ पंचाप्सरस तीर्थ में स्नान किया। उस तीर्थ में सर्वदा विष्णु भगवान् का सान्निध्य रहता है। वहाँ बलरामजी ने दस हजार गौएँ दान कीं ।  
वहाँ पर विराजमान अगस्त्य मुनि को को उन्होंने नमस्कार और अभिवादन किया। अगस्त्यजी ने आशीर्वाद और अनुमति प्राप्त परके बलरामजी ने दक्षिण समुद्र की यात्रा की। वहाँ उन्होंने दुर्गादेवी का कन्याकुमारी के रूप में दर्शन किया । इसके बाद वे फाल्गुन तीर्थ—अनन्तशयन क्षेत्र में गये और वहाँ के सर्वश्रेष्ठ पंचाप्सरस तीर्थ में स्नान किया। उस तीर्थ में सर्वदा विष्णु भगवान  का सान्निध्य रहता है। वहाँ बलरामजी ने दस हजार गौएँ दान कीं ।  
अब भगवान् बलराम वहाँ से चलकर केरल और त्रिगर्त देशों में होकर भगवान् शंकर के क्षेत्र गोकर्ण तीर्थ में आये। वहाँ सदा-सर्वदा भगवान् शंकर विराजमान रहते हैं । वहाँ से जल से घिरे द्वीप में निवास करने वाली आर्यादेवी का दर्शन करने गये और फिर उस द्वीप से चलकर शूर्पारक-क्षेत्र की यात्रा की, इसके बाद तापी, पयोष्णी और निर्विन्ध्या नदियों में स्नान करके वे दण्डकारण्य में आये । वहाँ होकर वे नर्मदाजी के तट पर गये। पर इस पवित्र नदी के तट पर ही माहिष्मतीपुरी है। वहाँ मनुतीर्थ में स्नान करके वे फिर प्रभासक्षेत्र में चले आये । वहीँ उन्होंने ब्राम्हणों से सुना कि कौरव और पाण्डवों के युद्ध में अधिकांश क्षत्रियों का संहार हो गया। उन्होंने ऐसा अनुभव किया कि अब पृथ्वी का बहुत-सा भार उतर गया । जिस दिन रणभूमि में भीमसेन और दुर्योधन गदायुद्ध कर रहे थे, उसी दिन बलरामजी उन्हें रोकने के लिये कुरुक्षेत्र जा पहुँचे ।  
अब भगवान  बलराम वहाँ से चलकर केरल और त्रिगर्त देशों में होकर भगवान  शंकर के क्षेत्र गोकर्ण तीर्थ में आये। वहाँ सदा-सर्वदा भगवान  शंकर विराजमान रहते हैं । वहाँ से जल से घिरे द्वीप में निवास करने वाली आर्यादेवी का दर्शन करने गये और फिर उस द्वीप से चलकर शूर्पारक-क्षेत्र की यात्रा की, इसके बाद तापी, पयोष्णी और निर्विन्ध्या नदियों में स्नान करके वे दण्डकारण्य में आये । वहाँ होकर वे नर्मदाजी के तट पर गये। पर इस पवित्र नदी के तट पर ही माहिष्मतीपुरी है। वहाँ मनुतीर्थ में स्नान करके वे फिर प्रभासक्षेत्र में चले आये । वहीँ उन्होंने ब्राम्हणों से सुना कि कौरव और पाण्डवों के युद्ध में अधिकांश क्षत्रियों का संहार हो गया। उन्होंने ऐसा अनुभव किया कि अब पृथ्वी का बहुत-सा भार उतर गया । जिस दिन रणभूमि में भीमसेन और दुर्योधन गदायुद्ध कर रहे थे, उसी दिन बलरामजी उन्हें रोकने के लिये कुरुक्षेत्र जा पहुँचे ।  
महाराज युधिष्ठिर, नकुल, सहदेव, भगवान् श्रीकृष्ण और अर्जुन ने बलरामजी को देखकर प्रणाम किया तथा चुप हो रहे। वे डरते हुए मन-ही-मन सोचने लगे कि ये जाने क्या कहने के लिये यहाँ पधारे हैं ?   
महाराज युधिष्ठिर, नकुल, सहदेव, भगवान  श्रीकृष्ण और अर्जुन ने बलरामजी को देखकर प्रणाम किया तथा चुप हो रहे। वे डरते हुए मन-ही-मन सोचने लगे कि ये जाने क्या कहने के लिये यहाँ पधारे हैं ?   
उस समय भीमसेन और दुर्योधन दोनों ही हाथ में गदा लेकर एक-दूसरे को जीतने के लिये क्रोध से भरकर भाँति-भाँति के पैंतरे बदल रहे थे। उन्हें देखकर बलरामजी ने कहा—  ‘राजा दुर्योधन और भीमसेन! तुम दोनों वीर हो। तुम दोनों में बल-पौरुष भी समान है। मैं ऐसा समझता हूँ कि भीमसेन में बल अधिक है और दुर्योधन ने गदा युद्ध में शिक्षा अधिक पायी है ।  
उस समय भीमसेन और दुर्योधन दोनों ही हाथ में गदा लेकर एक-दूसरे को जीतने के लिये क्रोध से भरकर भाँति-भाँति के पैंतरे बदल रहे थे। उन्हें देखकर बलरामजी ने कहा—  ‘राजा दुर्योधन और भीमसेन! तुम दोनों वीर हो। तुम दोनों में बल-पौरुष भी समान है। मैं ऐसा समझता हूँ कि भीमसेन में बल अधिक है और दुर्योधन ने गदा युद्ध में शिक्षा अधिक पायी है ।  
इसलिये तुम लोगों-जैसे समान बलशालियों में किसी एक की जय या पराजय नहीं होती दीखती। अतः तुम लोग व्यर्थ का युद्ध मत करो, अब इसे बंद कर दो’ । परीक्षित्! बलरामजी की बात दोनों के लिये हितकर थी। परन्तु उन दोनों का वैरभाव इतना दृढ़ मूल हो गया था कि उन्होंने बलरामजी की बात न मानी। वे एक-दूसरे की कटुवाणी और दुर्व्यवहारों का स्मरण करके उन्मत्त-से हो रहे थे।
इसलिये तुम लोगों-जैसे समान बलशालियों में किसी एक की जय या पराजय नहीं होती दीखती। अतः तुम लोग व्यर्थ का युद्ध मत करो, अब इसे बंद कर दो’ । परीक्षित्! बलरामजी की बात दोनों के लिये हितकर थी। परन्तु उन दोनों का वैरभाव इतना दृढ़ मूल हो गया था कि उन्होंने बलरामजी की बात न मानी। वे एक-दूसरे की कटुवाणी और दुर्व्यवहारों का स्मरण करके उन्मत्त-से हो रहे थे।

१२:४३, २९ जुलाई २०१५ के समय का अवतरण

दशम स्कन्ध: एकोनाशीतितमोऽध्यायः(79) (उत्तरार्ध)

श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: एकोनाशीतितमोऽध्यायः श्लोक 17-28 का हिन्दी अनुवाद


वहाँ पर विराजमान अगस्त्य मुनि को को उन्होंने नमस्कार और अभिवादन किया। अगस्त्यजी ने आशीर्वाद और अनुमति प्राप्त परके बलरामजी ने दक्षिण समुद्र की यात्रा की। वहाँ उन्होंने दुर्गादेवी का कन्याकुमारी के रूप में दर्शन किया । इसके बाद वे फाल्गुन तीर्थ—अनन्तशयन क्षेत्र में गये और वहाँ के सर्वश्रेष्ठ पंचाप्सरस तीर्थ में स्नान किया। उस तीर्थ में सर्वदा विष्णु भगवान का सान्निध्य रहता है। वहाँ बलरामजी ने दस हजार गौएँ दान कीं । अब भगवान बलराम वहाँ से चलकर केरल और त्रिगर्त देशों में होकर भगवान शंकर के क्षेत्र गोकर्ण तीर्थ में आये। वहाँ सदा-सर्वदा भगवान शंकर विराजमान रहते हैं । वहाँ से जल से घिरे द्वीप में निवास करने वाली आर्यादेवी का दर्शन करने गये और फिर उस द्वीप से चलकर शूर्पारक-क्षेत्र की यात्रा की, इसके बाद तापी, पयोष्णी और निर्विन्ध्या नदियों में स्नान करके वे दण्डकारण्य में आये । वहाँ होकर वे नर्मदाजी के तट पर गये। पर इस पवित्र नदी के तट पर ही माहिष्मतीपुरी है। वहाँ मनुतीर्थ में स्नान करके वे फिर प्रभासक्षेत्र में चले आये । वहीँ उन्होंने ब्राम्हणों से सुना कि कौरव और पाण्डवों के युद्ध में अधिकांश क्षत्रियों का संहार हो गया। उन्होंने ऐसा अनुभव किया कि अब पृथ्वी का बहुत-सा भार उतर गया । जिस दिन रणभूमि में भीमसेन और दुर्योधन गदायुद्ध कर रहे थे, उसी दिन बलरामजी उन्हें रोकने के लिये कुरुक्षेत्र जा पहुँचे । महाराज युधिष्ठिर, नकुल, सहदेव, भगवान श्रीकृष्ण और अर्जुन ने बलरामजी को देखकर प्रणाम किया तथा चुप हो रहे। वे डरते हुए मन-ही-मन सोचने लगे कि ये जाने क्या कहने के लिये यहाँ पधारे हैं ? उस समय भीमसेन और दुर्योधन दोनों ही हाथ में गदा लेकर एक-दूसरे को जीतने के लिये क्रोध से भरकर भाँति-भाँति के पैंतरे बदल रहे थे। उन्हें देखकर बलरामजी ने कहा— ‘राजा दुर्योधन और भीमसेन! तुम दोनों वीर हो। तुम दोनों में बल-पौरुष भी समान है। मैं ऐसा समझता हूँ कि भीमसेन में बल अधिक है और दुर्योधन ने गदा युद्ध में शिक्षा अधिक पायी है । इसलिये तुम लोगों-जैसे समान बलशालियों में किसी एक की जय या पराजय नहीं होती दीखती। अतः तुम लोग व्यर्थ का युद्ध मत करो, अब इसे बंद कर दो’ । परीक्षित्! बलरामजी की बात दोनों के लिये हितकर थी। परन्तु उन दोनों का वैरभाव इतना दृढ़ मूल हो गया था कि उन्होंने बलरामजी की बात न मानी। वे एक-दूसरे की कटुवाणी और दुर्व्यवहारों का स्मरण करके उन्मत्त-से हो रहे थे।







« पीछे आगे »

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

-