"महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 341 श्लोक 1-19": अवतरणों में अंतर
[अनिरीक्षित अवतरण] | [अनिरीक्षित अवतरण] |
Bharatkhoj (वार्ता | योगदान) छो (Text replace - "भगवान् " to "भगवान ") |
Bharatkhoj (वार्ता | योगदान) No edit summary |
||
पंक्ति १: | पंक्ति १: | ||
== | ==एकचत्वारिंशदधिकत्रिशततम (341) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)== | ||
<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">महाभारत: शान्ति पर्व: एकचत्वारिंशदधिकत्रिशततम अध्याय: श्लोक 1-19 का हिन्दी अनुवाद</div> | |||
<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">महाभारत: | |||
भगवान श्रीकृष्ण का अर्जुन को अपने प्रभाव का वर्णन करते हुए अपने नामों की व्युत्पत्ति एवं माहात्म्य बताना | भगवान श्रीकृष्ण का अर्जुन को अपने प्रभाव का वर्णन करते हुए अपने नामों की व्युत्पत्ति एवं माहात्म्य बताना | ||
जनमेजय ने कहा - भगवन् ! शिष्यों सहित महर्षि व्यास ने जिन नाना प्रकार के नामों द्वारा इन मधुसूदन का स्तवन किया था, उनका निर्वचन (व्युत्पत्ति) मुझे बताने की कृपा करें। मैं प्रजापतियों के पति भगवान श्रीहरि के नामों की व्याख्या सुनना चाहता हूँ; क्योंकि उन्हें सुनकर मैं शच्चन्द्र के समान निर्मल एवं पवित्र हो | जनमेजय ने कहा - भगवन् ! शिष्यों सहित महर्षि व्यास ने जिन नाना प्रकार के नामों द्वारा इन मधुसूदन का स्तवन किया था, उनका निर्वचन (व्युत्पत्ति) मुझे बताने की कृपा करें। मैं प्रजापतियों के पति भगवान श्रीहरि के नामों की व्याख्या सुनना चाहता हूँ; क्योंकि उन्हें सुनकर मैं शच्चन्द्र के समान निर्मल एवं पवित्र हो जाऊँगा। | ||
वैशम्पायनजी ने कहा - राजन् ! भगवान श्रीहरि ने अर्जुन पर प्रसन्न होकर उनसे गुण और कर्म के अनुसार स्वयं अपने नामों की जैसी व्याख्या की थी, वही तुम्हें सुना रहा हूँ, सुनो।नरेश्वर ! जिन नामों के द्वारा उन महात्मा केशव का कीर्तन किया जाता है, शत्रुवीरों का संहार करने वाले अर्जुन ने श्रीकृष्णसे उनके विषय में इस प्रकार पूछा। | वैशम्पायनजी ने कहा - राजन् ! भगवान श्रीहरि ने अर्जुन पर प्रसन्न होकर उनसे गुण और कर्म के अनुसार स्वयं अपने नामों की जैसी व्याख्या की थी, वही तुम्हें सुना रहा हूँ, सुनो।नरेश्वर ! जिन नामों के द्वारा उन महात्मा केशव का कीर्तन किया जाता है, शत्रुवीरों का संहार करने वाले अर्जुन ने श्रीकृष्णसे उनके विषय में इस प्रकार पूछा। | ||
पंक्ति ११: | पंक्ति १०: | ||
अर्जुन बोले - भूत, वर्तमान और भविष्य - तीनों कालों के स्वामी, सम्पूर्ण भूतों के स्रष्टा, अविनाशी, जगदाधर तथा सम्पूर्ण लोकों को अभय देने वाले जगन्नाथ, भगवन्, नारायणदेव ! महर्षियों ने आपके जो-जो नाम कहे हैं तथा पुराणों और वेदों में कर्मानुसार जो-जो गोपनीय नाम पढ़े गये हैं, उन सबकी व्याख्या मैं आपके मुँह से सुनना चाहता हूँ। प्रभो ! केशव ! आपके सिवा दूसरा कोई उन नामों की व्युत्पत्ति नहीं बता सकता। | अर्जुन बोले - भूत, वर्तमान और भविष्य - तीनों कालों के स्वामी, सम्पूर्ण भूतों के स्रष्टा, अविनाशी, जगदाधर तथा सम्पूर्ण लोकों को अभय देने वाले जगन्नाथ, भगवन्, नारायणदेव ! महर्षियों ने आपके जो-जो नाम कहे हैं तथा पुराणों और वेदों में कर्मानुसार जो-जो गोपनीय नाम पढ़े गये हैं, उन सबकी व्याख्या मैं आपके मुँह से सुनना चाहता हूँ। प्रभो ! केशव ! आपके सिवा दूसरा कोई उन नामों की व्युत्पत्ति नहीं बता सकता। | ||
श्रीभगवान ने कहा - अर्जुन ! ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद, अथर्ववेद, उपनिषद्, पुराण, ज्योतिष, सांख्यशास्त्र, योगशास्त्रतथा आयुर्वेद में महर्षियों ने मेरे बहुत से नाम कहे हैं। उनमें कुछ नाम तो गुणों के अनुसार हें और कुद कर्मोें से हुए हैं। निष्पाप अर्जुन ! तुम पहले एकाग्रचित्त होकर मेरे कर्मजनित नामों की व्याख्या सुनो। तात ! मैं तुमसे उन नामों की व्युत्पत्ति बताता हूँ, क्योंकि पूर्वकाल से ही तुम मेरे आधे शरीर माने गये हो। जो समस्त देहधारियों के उत्कृष्ट आत्मा हैं, उन महायशस्वी, निर्गुण, सगुणरूप विश्वात्मा भगवान नारायणदेव को नमस्कार है। जिनके प्रसाद से ब्रह्मा और क्रोध से रुद्र प्रकट हुए हैं, वे श्रीहरि ही सम्पूर्ण चराचर जगत् की उत्पत्ति के कारण हैं। बुद्धिमानों में श्रेष्ठ अर्जुन ! अठारह<ref>प्रीति, प्रकाश, उत्कर्ष, हलकापन, सुख, कृपणता का अभाव, रोष का अभाव, संतोष, श्रद्धा, क्षमा, धृति, अहिंसा, शौच, अक्रोध, सरलता, समता, सत्य तथा दोषदृष्टि का अभाव - ये सत्त्व के अठारह गुण हैं।</ref>गुणोंवाला जो सत्त्व है अर्थात् आदिपुरुष है, वही मेरी परा प्रकृति है। पृथ्वी और आकाश की आत्मस्वरूपा वह योगबल से समस्त लोकों को धारण करने वाली है। वही ऋता (कर्मफलभूत गतिस्वरूपा), सत्या (त्रिकालाबाधित ब्रह्मरूपा) अमर, अजेय तथा सम्पूर्ण लोकों की आत्मा है। उसी से सृष्टि और प्रलय आदि सम्पूर्ण विकार प्रकट होते हैं। वही तप, यज्ञ और यजमान है, वही पुरातन विराट् पुरुष है, उसे ही अनिरुद्ध कहा गया है। उसी से लोकों की सृष्टि और प्रलय होते हैं। जब प्रलय की रात व्यतीत हुई थी, उस समय उन अमित तेजस्वी अनिरुद्ध की कृपा से एक कमल प्रकट हुआ। कमलनयन अर्जुन ! उसी कमल से ब्रह्माजी का प्रादुर्भाव हुआ। वे ब्रह्मा भगवान अनिरुद्ध के प्रसाद से ही उत्पन्न हुए हैं। ब्रह्मा का दिन बीतने पर क्रोध में आये हुए उस देव के ललाट से उसके पुत्ररूप में संहारकारी रुद्र प्रकट हुए। ये दोनों श्रेष्ठ देवता - ब्रह्मा और रुद्र भगवान के प्रसाद और क्रोध से प्रकट हुए हैं तथा उन्हीं के बताये हुए मार्ग का आश्रय ले सृष्टि और संहार का कार्य पूर्ण करते हैं। | श्रीभगवान ने कहा - अर्जुन ! ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद, अथर्ववेद, उपनिषद्, पुराण, ज्योतिष, सांख्यशास्त्र, योगशास्त्रतथा आयुर्वेद में महर्षियों ने मेरे बहुत से नाम कहे हैं। उनमें कुछ नाम तो गुणों के अनुसार हें और कुद कर्मोें से हुए हैं। निष्पाप अर्जुन ! तुम पहले एकाग्रचित्त होकर मेरे कर्मजनित नामों की व्याख्या सुनो। तात ! मैं तुमसे उन नामों की व्युत्पत्ति बताता हूँ, क्योंकि पूर्वकाल से ही तुम मेरे आधे शरीर माने गये हो। जो समस्त देहधारियों के उत्कृष्ट आत्मा हैं, उन महायशस्वी, निर्गुण, सगुणरूप विश्वात्मा भगवान नारायणदेव को नमस्कार है। जिनके प्रसाद से ब्रह्मा और क्रोध से रुद्र प्रकट हुए हैं, वे श्रीहरि ही सम्पूर्ण चराचर जगत् की उत्पत्ति के कारण हैं। बुद्धिमानों में श्रेष्ठ अर्जुन ! अठारह<ref>प्रीति, प्रकाश, उत्कर्ष, हलकापन, सुख, कृपणता का अभाव, रोष का अभाव, संतोष, श्रद्धा, क्षमा, धृति, अहिंसा, शौच, अक्रोध, सरलता, समता, सत्य तथा दोषदृष्टि का अभाव - ये सत्त्व के अठारह गुण हैं।</ref>गुणोंवाला जो सत्त्व है अर्थात् आदिपुरुष है, वही मेरी परा प्रकृति है। पृथ्वी और आकाश की आत्मस्वरूपा वह योगबल से समस्त लोकों को धारण करने वाली है। वही ऋता (कर्मफलभूत गतिस्वरूपा), सत्या (त्रिकालाबाधित ब्रह्मरूपा) अमर, अजेय तथा सम्पूर्ण लोकों की आत्मा है। उसी से सृष्टि और प्रलय आदि सम्पूर्ण विकार प्रकट होते हैं। वही तप, यज्ञ और यजमान है, वही पुरातन विराट् पुरुष है, उसे ही अनिरुद्ध कहा गया है। उसी से लोकों की सृष्टि और प्रलय होते हैं। जब प्रलय की रात व्यतीत हुई थी, उस समय उन अमित तेजस्वी अनिरुद्ध की कृपा से एक कमल प्रकट हुआ। कमलनयन अर्जुन ! उसी कमल से ब्रह्माजी का प्रादुर्भाव हुआ। वे ब्रह्मा भगवान अनिरुद्ध के प्रसाद से ही उत्पन्न हुए हैं। ब्रह्मा का दिन बीतने पर क्रोध में आये हुए उस देव के ललाट से उसके पुत्ररूप में संहारकारी रुद्र प्रकट हुए। ये दोनों श्रेष्ठ देवता - ब्रह्मा और रुद्र भगवान के प्रसाद और क्रोध से प्रकट हुए हैं तथा उन्हीं के बताये हुए मार्ग का आश्रय ले सृष्टि और संहार का कार्य पूर्ण करते हैं। | ||
{{लेख क्रम |पिछला=महाभारत | {{लेख क्रम |पिछला=महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 340 श्लोक 101-119|अगला=महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 341 श्लोक 20-37}} | ||
==टीका टिप्पणी और संदर्भ== | ==टीका टिप्पणी और संदर्भ== | ||
<references/> | <references/> |
०४:५४, २ अगस्त २०१५ का अवतरण
एकचत्वारिंशदधिकत्रिशततम (341) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)
भगवान श्रीकृष्ण का अर्जुन को अपने प्रभाव का वर्णन करते हुए अपने नामों की व्युत्पत्ति एवं माहात्म्य बताना
जनमेजय ने कहा - भगवन् ! शिष्यों सहित महर्षि व्यास ने जिन नाना प्रकार के नामों द्वारा इन मधुसूदन का स्तवन किया था, उनका निर्वचन (व्युत्पत्ति) मुझे बताने की कृपा करें। मैं प्रजापतियों के पति भगवान श्रीहरि के नामों की व्याख्या सुनना चाहता हूँ; क्योंकि उन्हें सुनकर मैं शच्चन्द्र के समान निर्मल एवं पवित्र हो जाऊँगा।
वैशम्पायनजी ने कहा - राजन् ! भगवान श्रीहरि ने अर्जुन पर प्रसन्न होकर उनसे गुण और कर्म के अनुसार स्वयं अपने नामों की जैसी व्याख्या की थी, वही तुम्हें सुना रहा हूँ, सुनो।नरेश्वर ! जिन नामों के द्वारा उन महात्मा केशव का कीर्तन किया जाता है, शत्रुवीरों का संहार करने वाले अर्जुन ने श्रीकृष्णसे उनके विषय में इस प्रकार पूछा।
अर्जुन बोले - भूत, वर्तमान और भविष्य - तीनों कालों के स्वामी, सम्पूर्ण भूतों के स्रष्टा, अविनाशी, जगदाधर तथा सम्पूर्ण लोकों को अभय देने वाले जगन्नाथ, भगवन्, नारायणदेव ! महर्षियों ने आपके जो-जो नाम कहे हैं तथा पुराणों और वेदों में कर्मानुसार जो-जो गोपनीय नाम पढ़े गये हैं, उन सबकी व्याख्या मैं आपके मुँह से सुनना चाहता हूँ। प्रभो ! केशव ! आपके सिवा दूसरा कोई उन नामों की व्युत्पत्ति नहीं बता सकता।
श्रीभगवान ने कहा - अर्जुन ! ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद, अथर्ववेद, उपनिषद्, पुराण, ज्योतिष, सांख्यशास्त्र, योगशास्त्रतथा आयुर्वेद में महर्षियों ने मेरे बहुत से नाम कहे हैं। उनमें कुछ नाम तो गुणों के अनुसार हें और कुद कर्मोें से हुए हैं। निष्पाप अर्जुन ! तुम पहले एकाग्रचित्त होकर मेरे कर्मजनित नामों की व्याख्या सुनो। तात ! मैं तुमसे उन नामों की व्युत्पत्ति बताता हूँ, क्योंकि पूर्वकाल से ही तुम मेरे आधे शरीर माने गये हो। जो समस्त देहधारियों के उत्कृष्ट आत्मा हैं, उन महायशस्वी, निर्गुण, सगुणरूप विश्वात्मा भगवान नारायणदेव को नमस्कार है। जिनके प्रसाद से ब्रह्मा और क्रोध से रुद्र प्रकट हुए हैं, वे श्रीहरि ही सम्पूर्ण चराचर जगत् की उत्पत्ति के कारण हैं। बुद्धिमानों में श्रेष्ठ अर्जुन ! अठारह[१]गुणोंवाला जो सत्त्व है अर्थात् आदिपुरुष है, वही मेरी परा प्रकृति है। पृथ्वी और आकाश की आत्मस्वरूपा वह योगबल से समस्त लोकों को धारण करने वाली है। वही ऋता (कर्मफलभूत गतिस्वरूपा), सत्या (त्रिकालाबाधित ब्रह्मरूपा) अमर, अजेय तथा सम्पूर्ण लोकों की आत्मा है। उसी से सृष्टि और प्रलय आदि सम्पूर्ण विकार प्रकट होते हैं। वही तप, यज्ञ और यजमान है, वही पुरातन विराट् पुरुष है, उसे ही अनिरुद्ध कहा गया है। उसी से लोकों की सृष्टि और प्रलय होते हैं। जब प्रलय की रात व्यतीत हुई थी, उस समय उन अमित तेजस्वी अनिरुद्ध की कृपा से एक कमल प्रकट हुआ। कमलनयन अर्जुन ! उसी कमल से ब्रह्माजी का प्रादुर्भाव हुआ। वे ब्रह्मा भगवान अनिरुद्ध के प्रसाद से ही उत्पन्न हुए हैं। ब्रह्मा का दिन बीतने पर क्रोध में आये हुए उस देव के ललाट से उसके पुत्ररूप में संहारकारी रुद्र प्रकट हुए। ये दोनों श्रेष्ठ देवता - ब्रह्मा और रुद्र भगवान के प्रसाद और क्रोध से प्रकट हुए हैं तथा उन्हीं के बताये हुए मार्ग का आश्रय ले सृष्टि और संहार का कार्य पूर्ण करते हैं।
« पीछे | आगे » |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ प्रीति, प्रकाश, उत्कर्ष, हलकापन, सुख, कृपणता का अभाव, रोष का अभाव, संतोष, श्रद्धा, क्षमा, धृति, अहिंसा, शौच, अक्रोध, सरलता, समता, सत्य तथा दोषदृष्टि का अभाव - ये सत्त्व के अठारह गुण हैं।