"महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 342 श्लोक 111-131": अवतरणों में अंतर
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== | ==द्विचत्वारिंशदधिकत्रिशततम (342) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)== | ||
<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">महाभारत: शान्ति पर्व: द्विचत्वारिंशदधिकत्रिशततम अध्याय: श्लोक 111-131 का हिन्दी अनुवाद</div> | |||
पार्थ ! उस समय नारायण की छाती में वह त्रिशूल बड़े वेग से जा लगा। उससे निकलते हुए तेज की लपेट में आकर नाराया के केश मूँज के समान रंगवाले हो गये। इससे मेरा नाम ‘मुन्जकेश’ हो गया। तब महात्मा नारायण ने हुंकार ध्वनि के द्वारा उस त्रियाूल को पीछे हटा दिया। नारायण के हुकार से प्रतिहत होकर वह शंकरजी के हाथ में चला गया।।113।। यह देख रुद्र तपस्या में लगे हुए उन ऋषियों पर टूट पड़े। तब विश्वात्मा नारायण ने अपने हाथ से उन आक्रमणकारी रुद्रदेव का गला पकड़ लिया। इसी से उनका कण्ठ नीला हो जाने के कारण वे ‘नीलकण्ठ’ के नाम से प्रसिद्ध हुए। इसी समय रुद्र का विनाश करने के लिये नर ने सींक निकाली और उसे मन्त्रों से अभिमन्त्रित करके शीघ्र ही छोड़ दिया। वह सींक उक बहुत बड़े परशु के रूप में परिणत हो गयी। नर का चलाया हुआ व परशु सहसा रुद्र के द्वारा खण्डित कर दिया गया। मेरे परशु का खण्डन हो जाने से मैं ‘खण्डपरशु’ कहलाया। अर्जुन ने पूछा - वृष्णिनन्दन ! त्रिलोकी का संहार करने वाले उस युद्ध के उपस्थित होने पर वहाँ रुद्र और नारायण में से किसको विजय प्राप्त हुई ? जनार्दन ! आप यह बात मुझे बताईये। | |||
श्रीभगवान बोले - अर्जुन ! रुद्र और नारायण जब इस प्रकार परस्पर युद्ध में संलग्न हो गये, उस समय सम्पूर्ण लोकों के समस्त प्राणी सहसा उद्विग्न हो उठे। अग्निदेव यज्ञों में विधि पूर्वक होम किये गये विशुद्ध हविष्य को भी ग्रहण नहीं कर पाते थे। पवित्रात्मा ऋषियों को व्रदों का स्मरण नहीं हो पाता था। उस समय देवताओं में रजागुण और तमोगुण का आवेश हो गया था। पृथ्वी काँपने लगी, आकाश विचलित हो गया। समस्त तेजस्वी पदार्थ (ग्रह-नक्षत्र आदि) निष्प्रभ हो गये। ब्रह्मा अपने आसन से गिर पड़े। समुद्र सूखने लगा और हिमालय पर्वत विदीर्ण होने लगा। पाण्डुनन्दन ! ऐसे अपशकुन प्रकट होने पर ब्रह्माजी देवताओं तथा महात्मा ऋषियों को साथ ले याीघ्र उस स्थान पर आये, जहाँ वह युद्ध हो रहा था। निरुक्तगम्य भगवान चतुर्मुख ने हाथ जोड़कर रुद्रदेव से कहा- ‘प्रभो ! समस्त लोकों का कल्याण हो। विश्वश्वर ! आप जगत् के हित की कामना से अपने हथियार रख दीजिये। ‘जो सम्पूर्ण जगत् का उत्पादक, अविनाशी ौर अव्यक्त ईश्वर है, जिन्हें ज्ञानी पुरुष कुटस्थ, निद्र्वन्द्व, कर्ता और अकर्ता मानते हैं, व्यक्त-भाव को प्राप्त हुए उन्हीं परमेश्वर की यह एक कल्याणमयी मूर्ति है।। ‘धर्मकुल उत्पन्न हुए ये दोनों महाव्रती देवश्रेष्ठ नद और नारायण महान् तपस्या से युक्त हैं। ‘किसी निमित्त से उन्हीं नारायण के कृपाप्रसाद से मेरा जन्म हुआ है। तात ! आप भी पूर्वसर्ग में उन्हीं भगवान के क्रोध से उत्पन्न हुए सनातन पुरुष हैं। ‘वरद ! आप देवताओं और महर्षियों के तथा मेरे साथ शीघ्र इन भगवान को प्रसन्न कीजिये, जिससे सम्पूर्ण जगत् में शीघ्र ही शान्ति स्थापित हो’। ब्रह्माजी के एंसा कहने पर रुद्रदेव ने अपनी क्रोधाग्नि का त्याग किया। फिर आदिदेव, वरेण्य, वादायक, सर्वसमर्थ भगवान नारायण को प्रसन्न किया और उनकी शरण ली तब क्रोध और इन्द्रियों को जीत लेने वाले वरदायक देवता नारायण वहाँ बड़े प्रसन्न हुए और रुद्रदेव से गले मिले। | |||
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==टीका टिप्पणी और संदर्भ== | ==टीका टिप्पणी और संदर्भ== |
०७:१८, २ अगस्त २०१५ का अवतरण
द्विचत्वारिंशदधिकत्रिशततम (342) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)
पार्थ ! उस समय नारायण की छाती में वह त्रिशूल बड़े वेग से जा लगा। उससे निकलते हुए तेज की लपेट में आकर नाराया के केश मूँज के समान रंगवाले हो गये। इससे मेरा नाम ‘मुन्जकेश’ हो गया। तब महात्मा नारायण ने हुंकार ध्वनि के द्वारा उस त्रियाूल को पीछे हटा दिया। नारायण के हुकार से प्रतिहत होकर वह शंकरजी के हाथ में चला गया।।113।। यह देख रुद्र तपस्या में लगे हुए उन ऋषियों पर टूट पड़े। तब विश्वात्मा नारायण ने अपने हाथ से उन आक्रमणकारी रुद्रदेव का गला पकड़ लिया। इसी से उनका कण्ठ नीला हो जाने के कारण वे ‘नीलकण्ठ’ के नाम से प्रसिद्ध हुए। इसी समय रुद्र का विनाश करने के लिये नर ने सींक निकाली और उसे मन्त्रों से अभिमन्त्रित करके शीघ्र ही छोड़ दिया। वह सींक उक बहुत बड़े परशु के रूप में परिणत हो गयी। नर का चलाया हुआ व परशु सहसा रुद्र के द्वारा खण्डित कर दिया गया। मेरे परशु का खण्डन हो जाने से मैं ‘खण्डपरशु’ कहलाया। अर्जुन ने पूछा - वृष्णिनन्दन ! त्रिलोकी का संहार करने वाले उस युद्ध के उपस्थित होने पर वहाँ रुद्र और नारायण में से किसको विजय प्राप्त हुई ? जनार्दन ! आप यह बात मुझे बताईये।
श्रीभगवान बोले - अर्जुन ! रुद्र और नारायण जब इस प्रकार परस्पर युद्ध में संलग्न हो गये, उस समय सम्पूर्ण लोकों के समस्त प्राणी सहसा उद्विग्न हो उठे। अग्निदेव यज्ञों में विधि पूर्वक होम किये गये विशुद्ध हविष्य को भी ग्रहण नहीं कर पाते थे। पवित्रात्मा ऋषियों को व्रदों का स्मरण नहीं हो पाता था। उस समय देवताओं में रजागुण और तमोगुण का आवेश हो गया था। पृथ्वी काँपने लगी, आकाश विचलित हो गया। समस्त तेजस्वी पदार्थ (ग्रह-नक्षत्र आदि) निष्प्रभ हो गये। ब्रह्मा अपने आसन से गिर पड़े। समुद्र सूखने लगा और हिमालय पर्वत विदीर्ण होने लगा। पाण्डुनन्दन ! ऐसे अपशकुन प्रकट होने पर ब्रह्माजी देवताओं तथा महात्मा ऋषियों को साथ ले याीघ्र उस स्थान पर आये, जहाँ वह युद्ध हो रहा था। निरुक्तगम्य भगवान चतुर्मुख ने हाथ जोड़कर रुद्रदेव से कहा- ‘प्रभो ! समस्त लोकों का कल्याण हो। विश्वश्वर ! आप जगत् के हित की कामना से अपने हथियार रख दीजिये। ‘जो सम्पूर्ण जगत् का उत्पादक, अविनाशी ौर अव्यक्त ईश्वर है, जिन्हें ज्ञानी पुरुष कुटस्थ, निद्र्वन्द्व, कर्ता और अकर्ता मानते हैं, व्यक्त-भाव को प्राप्त हुए उन्हीं परमेश्वर की यह एक कल्याणमयी मूर्ति है।। ‘धर्मकुल उत्पन्न हुए ये दोनों महाव्रती देवश्रेष्ठ नद और नारायण महान् तपस्या से युक्त हैं। ‘किसी निमित्त से उन्हीं नारायण के कृपाप्रसाद से मेरा जन्म हुआ है। तात ! आप भी पूर्वसर्ग में उन्हीं भगवान के क्रोध से उत्पन्न हुए सनातन पुरुष हैं। ‘वरद ! आप देवताओं और महर्षियों के तथा मेरे साथ शीघ्र इन भगवान को प्रसन्न कीजिये, जिससे सम्पूर्ण जगत् में शीघ्र ही शान्ति स्थापित हो’। ब्रह्माजी के एंसा कहने पर रुद्रदेव ने अपनी क्रोधाग्नि का त्याग किया। फिर आदिदेव, वरेण्य, वादायक, सर्वसमर्थ भगवान नारायण को प्रसन्न किया और उनकी शरण ली तब क्रोध और इन्द्रियों को जीत लेने वाले वरदायक देवता नारायण वहाँ बड़े प्रसन्न हुए और रुद्रदेव से गले मिले।
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