"महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 348 श्लोक 20-41": अवतरणों में अंतर

अद्‌भुत भारत की खोज
नेविगेशन पर जाएँ खोज पर जाएँ
[अनिरीक्षित अवतरण][अनिरीक्षित अवतरण]
छो (Text replace - "बुद्धिमान् " to "बुद्धिमान ")
 
(इसी सदस्य द्वारा किए गए बीच के २ अवतरण नहीं दर्शाए गए)
पंक्ति १: पंक्ति १:
==तीन सौ अड़तालीसवाँ अध्याय: शान्तिपर्व (मोक्षधर्मपर्व)==
==अष्टचत्वारिंशदधिकत्रिशततम (348) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)==
<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">महाभारत: शान्तिपर्व : तीन सौ अड़तालीसवाँ अध्याय: श्लोक 34-64 का हिन्दी अनुवाद</div>
<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">महाभारत: शान्ति पर्व: अष्टचत्वारिंशदधिकत्रिशततम अध्याय: श्लोक 20-41 का हिन्दी अनुवाद</div>


राजन् ! जब भगवान  की वाणी से ब्रह्माजी का तीसरा महत्त्वपूर्ण जन्म हुआ, तब फिर साक्षात् नारायण से ही यह धर्म प्रकट हुआ। सुपर्ण नामक ऋषि ने इन्द्रियसंयम और मनोनिग्रह पूर्वक भली-भाँति तपस्या करके भगवान  पुरुषोत्तम से इस धर्म को प्राप्त किया। सुपर्ण ने प्रतिदिन इस उत्तम णर्म की तीन आवृत्ति की थी, इसलिये इस व्रत या धर्म को यहाँ ‘त्रिसौपर्ण’ कहते हैं। यह दुष्कर धर्म ऋग्वेद के पाठ में स्पष्ट रूप से पढ़ा गया है। नरश्रेश्ठ ! सुपर्ण से उस सनातन धर्म को इस जगत् के प्राणस्वरूप वायु ने प्राप्त किया।  वायु से विघसशी ऋष्सियों ने इस धर्म का उपदेश ग्रहण किया। उनसे महोदधि को इस उत्तम धर्म की प्राप्ति हुई। तत्पश्चात् यह धर्म फिर लुप्त होकर भगवान  नारायण में विलीन हो गया। पुरुष्सिंह ! जब पुनः भगवान  के कानों से महात्मा ब्रह्माजी की चैथी बार उत्पत्ति हुई, तब जिस प्रकार इस धर्म का प्रादुर्भाव हुआ था, वह बताता हूँ, सुनो। कहा जाता है, चिन्तन करते समय भगवान  के दोनों कानों से ऐ पुरुष का प्रादुर्भाव हुआ। वही प्रजा की सृष्टि करने वाला ब्रह्मा हुआ। जगदीश्वर नारायण ने ब्रह्मा से कहा- ‘बंटा ! तुम अपने मुख से लेकर पैर तक के अंगों से समस्त प्रजाकी सृष्टि करो। ‘उत्तम व्रत का पालन करने वाले पुत्र ! मैं तुम्हारा कल्याण करूँगा और तुम्हारे भीतर तेज एवं बल की वृद्धि करता रहूँगा तुम मुझसे इस सात्वत नामक धर्म को ग्रहण करो और उसके द्वारा विधिपूर्वक सत्ययुग की सृष्टि करके उसकी स्थापना करो’। तदनन्तर ब्रह्मा ने भगवान  श्रीहरि को नमस्कार किया और उन्हीं नारायण देव के मुख से प्रकट आरण्यक, रहस्य तथा संग्रह सहित उस श्रेष्ठ धर्म का उपदेश ग्रहण किया। अमित लेजस्वी ब्रह्मा को इस धर्म का उपदेश देकर उस समय भगवान्ने उनसे कहा- ‘तुम निष्काम भाव से सारे कर्म करते हुए युगधर्मों के प्रवर्तक बनो’। यह आदेश देकर वे अज्ञानान्धकार से परे विराजमान अपने परम अव्यक्त धाम को चले गये। तदनन्तर वरदायक देवता लोकपितामह ब्रह्मा ने सम्पूर्ण चराचर लोकों की सृष्टि की।


फिर तो सृष्टि के आरम्भ में कल्याणकारी कृतयुग की प्रवृत्ति हुई और तब से सात्वत धर्म सारे संसार में व्याप्त हो गया। लोस्रष्टा ब्रह्मा ने उसी आदिधर्म द्वारा देवेश्वर भगवान् नारायण हरि की आराधना की। फिर इस धर्म की प्रतिष्ठा के लिये समस्त लोकों के हित की कामना से उन्होंने स्वराचिषमुनि को उस समय इस धर्म का उपदेश किया। नरेश्वर ! उन दिनों स्वारोचिष मनु ही सम्पूर्ण लोकों के अधिपति एवं प्रभु थे। उन्होंने शान्तभाव से पहले अपने पुत्र शंखनाद को स्वयं इा धर्म का ज्ञान प्रदान किया। भारत् ! मिर शंखनाद ने भी अपने औरस पुत्र दिक्याल सुवर्णाभ को इस धर्म का अध्ययन कराया। इसके बाद त्रेतायुग प्राप्त होने पर वह धर्म फिर लुप्त हो गया। नृपश्रेष्ठ ! फिर पूर्वकाल में ब्रह्माजी ने नासिका के द्वारा जब पाँचवाँ जन्म ग्रहण किया, तब स्वयं कमलनयन भगवान् नारायण हरि ने ब्रह्माजी के सामने इस धर्म का उपदेश दिया। नरेश्वर ! तत्पश्चात् भगवान् सनत्कुमार ने उनसे उस सात्वत धर्म का उपदेश ग्रहण किया। कुरुश्रेष्ठ ! सनत्कुमार से वीरण प्रजापति ने कृतयुग के आदि में इस धर्म का उपदेश ग्रहण किया। वीरण ने इसका अध्ययन करके रैभ्यमुनि को उपदेश दिया। रैभ्य ने उत्तम व्रत का पालन करने वाले श्रेष्ठ बुद्धि से युक्त धर्मात्मा एवं शुद्ध आचार-विचार वाले अपने पुत्र दिक्पाल कुक्षि को इसका उपदेश दिया। तदनन्तर नारायण के मुख से निकला हुआ यह सात्वत धर्म फिर लुप्त हो गया। इसके बाद जब ब्रह्मजी का छठा जन्म हुआ, तब भगवान् से उत्पन्न हुए ब्रह्माजीके लिये पुनः भगवान् नारायण के मुख से यह धर्म प्रकट हुआ। राजन् ! ब्रह्माजी ने इस धर्म को ग्रहण किया और वे विधिपूर्वक उसे अपने उपयोग में लाये। नरेश्वर ! फिर उन्होंने बर्हिषद् नाम वाले मुनियों को इसका अध्ययन कराया। बर्हिषद् नाक ऋषियों से इस धर्म का उपदेश ज्येष्ठ नाम से प्रसिद्ध एक ब्राह्मण को मिला, जो सामवेद के पारंगत विद्वान थे। ज्येष्ठ साम की उपासना का उन्होंने व्रत ले रखा था। इसलिये वे ज्येष्ठसामव्रती हरि कहलाते हैं। राजन् ! ज्येष्ठ से राजा अविकम्पन को इस धर्म का उपदेश प्राप्त हुआ। प्रभो ! तदनन्तर यह भागवत-धर्म फिर लुप्त हो गया। नरेश्वर ! यह जो ब्रह्माजी का भगवान् के नाभिकमल से सातवाँ जन्म हुआ है, इसमें स्वयं नारायणने ही कल्प के आरम्भ में जगद्धाता शुद्धस्वरूप ब्रह्मा को इस धर्म का उपदेश दिया; फिर ब्रह्माजी ने सबसे पहले प्रजापति दक्ष को इस धर्म की शिक्षा दी। नृपश्रेष्ठ ! इसके बाद दक्ष ने अपने ज्येष्ठ दौहित्र - अदिति के सविता से भी बड़े पुत्र को इस धर्म का उपदेश दिया। उन्हीं से विवस्वान् (सूर्य) ने इस धर्म का उपदेश ग्रहण किया। फिर त्रेता युग के आरम्भ सूर्य ने मनु को और मनु ने सम्पूर्ण तगम् के कल्याण के लिये अपने पुत्र इक्ष्वाकु को इसका उपदेश दिया। इक्ष्वाकु के उपदेश से इस सात्वत धर्म का सम्पूर्ण जगत् मे प्रचार और प्रसार हो गया। नरेश्वर ! कल्पान्त में यह धर्म फिर भगवान् नारायण को ही प्राप्त हो जायगा।। नृपश्रेष्ठ ! यतियों का जो धर्म है, वह मैेंने पहले ही तुम्हें हरिगीता में संक्षेप शैली से बता दिया है। महाराज ! नारदजी ने रहस्य और संग्रहसहित इस धर्म को साक्षात् जगदीश्वर नारायण से भली-भाँति प्राप्त
फिर तो सृष्टि के आरम्भ में कल्याणकारी कृतयुग की प्रवृत्ति हुई और तब से सात्वत धर्म सारे संसार में व्याप्त हो गया। लोस्रष्टा ब्रह्मा ने उसी आदिधर्म द्वारा देवेश्वर भगवान  नारायण हरि की आराधना की। फिर इस धर्म की प्रतिष्ठा के लिये समस्त लोकों के हित की कामना से उन्होंने स्वराचिषमुनि को उस समय इस धर्म का उपदेश किया। नरेश्वर ! उन दिनों स्वारोचिष मनु ही सम्पूर्ण लोकों के अधिपति एवं प्रभु थे। उन्होंने शान्तभाव से पहले अपने पुत्र शंखनाद को स्वयं इा धर्म का ज्ञान प्रदान किया। भारत् ! मिर शंखनाद ने भी अपने औरस पुत्र दिक्याल सुवर्णाभ को इस धर्म का अध्ययन कराया। इसके बाद त्रेतायुग प्राप्त होने पर वह धर्म फिर लुप्त हो गया। नृपश्रेष्ठ ! फिर पूर्वकाल में ब्रह्माजी ने नासिका के द्वारा जब पाँचवाँ जन्म ग्रहण किया, तब स्वयं कमलनयन भगवान  नारायण हरि ने ब्रह्माजी के सामने इस धर्म का उपदेश दिया। नरेश्वर ! तत्पश्चात् भगवान  सनत्कुमार ने उनसे उस सात्वत धर्म का उपदेश ग्रहण किया। कुरुश्रेष्ठ ! सनत्कुमार से वीरण प्रजापति ने कृतयुग के आदि में इस धर्म का उपदेश ग्रहण किया।
किया था। राजन् ! इस प्रकार यह आदि एवं महान् धर्म सनातन काल से चला आ रहा है। यह इूसरों के लिए दुज्र्ञेय और दुष्कर है। भगवान् के भक्त सदा ही इस धर्म को धारण करते हैं। इस धर्म को जानने से और अहिंसा भाव से युक्त इस सात्वत धर्म को क्रियारूप से आचरण में लाने से जगदीश्वर श्रीहरि प्रसन्न होते हैं। भगवान् वासुदेव भक्तो द्वारा कभी केवल एक व्यूह- भगवान् वासुदेव की, कभी दो व्यूह- वासुदेव और संकर्रूा की, कभी प्रद्युम्न सहि तीन व्यूहों की और कभी अनिरुद्ध सहित चार व्यूहों ही उपासना देखी जाती है।। भगवान् श्रीहरि ही ज्ञेत्रज्ञ हैं, ममतारहित और निष्कल हैं। ये ही सम्पूर्ण भेतों में पान्चभौतिक गुणों से अतीत जीवात्मा रूप से विराजमान हैं। राजन् ! पाँचों इन्द्रियों का प्रेरक जो विख्यात मन है, वह भी श्रीहरि ही हैं। ये बुद्धिमान श्रीहरि ही सम्पूर्ण जगत् के प्रेरक और स्रष्टा हैं। नरेश्वर ! ये अविनाशी पुरुष नारायण ही अकर्ता, कर्ता, कार्य तथा कारण हैं। ये जैसा चाहते हैं, वैसे ही क्रीड़ा करते हैं। नृपश्रेष्ठ ! यह मैंने तुमसये गुरुकृपा से ज्ञात हुए अनन्य भक्तिरूप धर्म का वर्णन किया है। जिनका अन्तःकरण पवित्र नहीं है, ऐसे लोगों के लिये इस धर्म का ज्ञान होना बहुत ही कठिन है। नरेश्वर ! भगवान् के अनन्य भक्त दुर्लभ हैं, क्योंकि ऐसे पुरुष बहुत नहीं हुआ करते। कुरुनन्दन ! यदि सम्पूर्ण भूतों के हित में तत्पर रहने वाले, आत्मज्ञानी, अहिंसक एवं अनन्य भक्तों से जगत् भर जाय तो यहाँ सर्वत्र सत्ययुग ही छा जाय और कहीं भी सकाम कर्मों का अनुष्ठा न हो। प्रजानाथ ! इस प्रकार मेरे धर्मज्ञ गुरु द्विजश्रेष्ठ व्यास ने श्रीकृष्ण और भीष्म के सुनते हुए ऋषि मुनियों के समीप धर्मराज को इस धर्म का उपदेश किया था।
 
{{लेख क्रम |पिछला=महाभारत शान्तिपर्व अध्याय 348 श्लोक 1-33|अगला=महाभारत शान्तिपर्व अध्याय 348 श्लोक 65-88}}


{{लेख क्रम |पिछला=महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 348 श्लोक 1-19|अगला=महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 348 श्लोक 42-60}}


==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
==टीका टिप्पणी और संदर्भ==

१२:५३, २ अगस्त २०१५ के समय का अवतरण

अष्टचत्वारिंशदधिकत्रिशततम (348) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)

महाभारत: शान्ति पर्व: अष्टचत्वारिंशदधिकत्रिशततम अध्याय: श्लोक 20-41 का हिन्दी अनुवाद

राजन् ! जब भगवान की वाणी से ब्रह्माजी का तीसरा महत्त्वपूर्ण जन्म हुआ, तब फिर साक्षात् नारायण से ही यह धर्म प्रकट हुआ। सुपर्ण नामक ऋषि ने इन्द्रियसंयम और मनोनिग्रह पूर्वक भली-भाँति तपस्या करके भगवान पुरुषोत्तम से इस धर्म को प्राप्त किया। सुपर्ण ने प्रतिदिन इस उत्तम णर्म की तीन आवृत्ति की थी, इसलिये इस व्रत या धर्म को यहाँ ‘त्रिसौपर्ण’ कहते हैं। यह दुष्कर धर्म ऋग्वेद के पाठ में स्पष्ट रूप से पढ़ा गया है। नरश्रेश्ठ ! सुपर्ण से उस सनातन धर्म को इस जगत् के प्राणस्वरूप वायु ने प्राप्त किया। वायु से विघसशी ऋष्सियों ने इस धर्म का उपदेश ग्रहण किया। उनसे महोदधि को इस उत्तम धर्म की प्राप्ति हुई। तत्पश्चात् यह धर्म फिर लुप्त होकर भगवान नारायण में विलीन हो गया। पुरुष्सिंह ! जब पुनः भगवान के कानों से महात्मा ब्रह्माजी की चैथी बार उत्पत्ति हुई, तब जिस प्रकार इस धर्म का प्रादुर्भाव हुआ था, वह बताता हूँ, सुनो। कहा जाता है, चिन्तन करते समय भगवान के दोनों कानों से ऐ पुरुष का प्रादुर्भाव हुआ। वही प्रजा की सृष्टि करने वाला ब्रह्मा हुआ। जगदीश्वर नारायण ने ब्रह्मा से कहा- ‘बंटा ! तुम अपने मुख से लेकर पैर तक के अंगों से समस्त प्रजाकी सृष्टि करो। ‘उत्तम व्रत का पालन करने वाले पुत्र ! मैं तुम्हारा कल्याण करूँगा और तुम्हारे भीतर तेज एवं बल की वृद्धि करता रहूँगा तुम मुझसे इस सात्वत नामक धर्म को ग्रहण करो और उसके द्वारा विधिपूर्वक सत्ययुग की सृष्टि करके उसकी स्थापना करो’। तदनन्तर ब्रह्मा ने भगवान श्रीहरि को नमस्कार किया और उन्हीं नारायण देव के मुख से प्रकट आरण्यक, रहस्य तथा संग्रह सहित उस श्रेष्ठ धर्म का उपदेश ग्रहण किया। अमित लेजस्वी ब्रह्मा को इस धर्म का उपदेश देकर उस समय भगवान्ने उनसे कहा- ‘तुम निष्काम भाव से सारे कर्म करते हुए युगधर्मों के प्रवर्तक बनो’। यह आदेश देकर वे अज्ञानान्धकार से परे विराजमान अपने परम अव्यक्त धाम को चले गये। तदनन्तर वरदायक देवता लोकपितामह ब्रह्मा ने सम्पूर्ण चराचर लोकों की सृष्टि की।

फिर तो सृष्टि के आरम्भ में कल्याणकारी कृतयुग की प्रवृत्ति हुई और तब से सात्वत धर्म सारे संसार में व्याप्त हो गया। लोस्रष्टा ब्रह्मा ने उसी आदिधर्म द्वारा देवेश्वर भगवान नारायण हरि की आराधना की। फिर इस धर्म की प्रतिष्ठा के लिये समस्त लोकों के हित की कामना से उन्होंने स्वराचिषमुनि को उस समय इस धर्म का उपदेश किया। नरेश्वर ! उन दिनों स्वारोचिष मनु ही सम्पूर्ण लोकों के अधिपति एवं प्रभु थे। उन्होंने शान्तभाव से पहले अपने पुत्र शंखनाद को स्वयं इा धर्म का ज्ञान प्रदान किया। भारत् ! मिर शंखनाद ने भी अपने औरस पुत्र दिक्याल सुवर्णाभ को इस धर्म का अध्ययन कराया। इसके बाद त्रेतायुग प्राप्त होने पर वह धर्म फिर लुप्त हो गया। नृपश्रेष्ठ ! फिर पूर्वकाल में ब्रह्माजी ने नासिका के द्वारा जब पाँचवाँ जन्म ग्रहण किया, तब स्वयं कमलनयन भगवान नारायण हरि ने ब्रह्माजी के सामने इस धर्म का उपदेश दिया। नरेश्वर ! तत्पश्चात् भगवान सनत्कुमार ने उनसे उस सात्वत धर्म का उपदेश ग्रहण किया। कुरुश्रेष्ठ ! सनत्कुमार से वीरण प्रजापति ने कृतयुग के आदि में इस धर्म का उपदेश ग्रहण किया।


« पीछे आगे »

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

साँचा:सम्पूर्ण महाभारत अभी निर्माणाधीन है।