"महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 354 श्लोक 1-16": अवतरणों में अंतर

अद्‌भुत भारत की खोज
नेविगेशन पर जाएँ खोज पर जाएँ
[अनिरीक्षित अवतरण][अनिरीक्षित अवतरण]
छो (Text replace - "{{महाभारत}}" to "{{सम्पूर्ण महाभारत}}")
No edit summary
 
(इसी सदस्य द्वारा किए गए बीच के ३ अवतरण नहीं दर्शाए गए)
पंक्ति १: पंक्ति १:
==तीन सौ चौवनवाँ अध्याय: शान्तिपर्व (मोक्षधर्मपर्व)==
==चतुःपञ्चाशदधिकत्रिशततम (354) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)==
<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">महाभारत: शान्तिपर्व : तीन सौ चौवनवाँ अध्याय: श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद</div>
<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">महाभारत: शान्ति पर्व: चतुःपञ्चाशदधिकत्रिशततम अध्याय: श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद</div>
 


अतिथि द्वारा स्वर्ग के विभिन्न मार्गों का कथन
अतिथि द्वारा स्वर्ग के विभिन्न मार्गों का कथन
पंक्ति ७: पंक्ति ६:
ब्राह्मण बोला - निष्पाप ! आपकी मीठी बातें सुनकर ही मैं आपके प्रति स्नेह बन्धन से बँध गया हूँ। उसपके ऊपर मेरा मित्रभाव हो गया है; अतः आपसे कुछ कह रहा हूँ, मेरी बात सुनिये। विप्रवर ! मैं गृहस्थ-धर्म को अपने पुत्रों के अधीन करके सर्वश्रेष्ठ धर्म का पालन करना चाहता हूँ। ब्रह्मन् ! बताइये, मेरे लिये कौन सा मार्ग श्रेयस्कर होगा ? कभी मेरी इच्छा होती है कि अकेला ही रहूँ और आत्मा का आश्रय लेकर उसी में स्थित हो जाऊँ। परंतु इन तुच्छ विषयों से बँघा होने के कारण वह इच्छा नष्ट हो जाती है। अब तक की सारी आयु पुत्र से फल पाने की कामना में ही बीत गयी। अब ऐसे धर्ममय धन का संग्रह करना चाहता हूँ, जो परलोक के मार्ग में पाथेय (राहखर्च) का काम दे सके। मुझे इस संसारसागर से पार जाने की इच्छा हुई है, अतः मेरे मन में यह जिज्ञासा हो रही है कि मुझे धर्ममयी नौका कहाँ से प्राप्त होगी ? जब मैं सुनता हूँ कि संसार में विषयों के सम्पर्क में आये हुए सात्त्विक पुरुष भी तरह-तरह की यातनाएँ भोगते हैं तथा जब देखता हूँ कि समसत प्रजा के ऊपर यमराज की ध्वजाएँ फहरा रही हैं, तब भोगकाल में भोगों के प्राप्त होने पर भी उन्हे भोगने की रुचि मेरे मन में नहीं होती है। जब संन्यासियों को भी दूसरे के दरवाजों वा अन्न-वस्त्र की भीख माँगते देखता हूँ, तब उस संन्यास धर्म में भी मेरा मन नहीं लगता है; अतः अतिथिदेव ! आप अपनी ही बुद्धि के बल से अब मुणे धर्म द्वारा धर्म में लगाइये।  धर्मयुक्त वचन बोलने वाले उस ब्राह्मण की बात सुनकर उस विद्वान् अतिथि ने मधुर वाणी में यह उत्तम वचन कहा।
ब्राह्मण बोला - निष्पाप ! आपकी मीठी बातें सुनकर ही मैं आपके प्रति स्नेह बन्धन से बँध गया हूँ। उसपके ऊपर मेरा मित्रभाव हो गया है; अतः आपसे कुछ कह रहा हूँ, मेरी बात सुनिये। विप्रवर ! मैं गृहस्थ-धर्म को अपने पुत्रों के अधीन करके सर्वश्रेष्ठ धर्म का पालन करना चाहता हूँ। ब्रह्मन् ! बताइये, मेरे लिये कौन सा मार्ग श्रेयस्कर होगा ? कभी मेरी इच्छा होती है कि अकेला ही रहूँ और आत्मा का आश्रय लेकर उसी में स्थित हो जाऊँ। परंतु इन तुच्छ विषयों से बँघा होने के कारण वह इच्छा नष्ट हो जाती है। अब तक की सारी आयु पुत्र से फल पाने की कामना में ही बीत गयी। अब ऐसे धर्ममय धन का संग्रह करना चाहता हूँ, जो परलोक के मार्ग में पाथेय (राहखर्च) का काम दे सके। मुझे इस संसारसागर से पार जाने की इच्छा हुई है, अतः मेरे मन में यह जिज्ञासा हो रही है कि मुझे धर्ममयी नौका कहाँ से प्राप्त होगी ? जब मैं सुनता हूँ कि संसार में विषयों के सम्पर्क में आये हुए सात्त्विक पुरुष भी तरह-तरह की यातनाएँ भोगते हैं तथा जब देखता हूँ कि समसत प्रजा के ऊपर यमराज की ध्वजाएँ फहरा रही हैं, तब भोगकाल में भोगों के प्राप्त होने पर भी उन्हे भोगने की रुचि मेरे मन में नहीं होती है। जब संन्यासियों को भी दूसरे के दरवाजों वा अन्न-वस्त्र की भीख माँगते देखता हूँ, तब उस संन्यास धर्म में भी मेरा मन नहीं लगता है; अतः अतिथिदेव ! आप अपनी ही बुद्धि के बल से अब मुणे धर्म द्वारा धर्म में लगाइये।  धर्मयुक्त वचन बोलने वाले उस ब्राह्मण की बात सुनकर उस विद्वान् अतिथि ने मधुर वाणी में यह उत्तम वचन कहा।


अतिथि ने कहा - विप्रवर ! मेरा भी ऐसा ही मनोरथ है। मैं भी आपके ही भाँति श्रेष्ठ धर्म का आरय लेना चाहता हूँ, परंतु मुझे भी इस विषय में मोह ही बना हुआ है। स्वर्ग के अनेक द्वार (साधन) हैं, अतः किसका आश्रय लिया जाय , इसका निश्चय में भी नहीं कर पाता हूँ। कोई द्विज मोक्ष की प्रशंसा करता है तो कोई यज्ञफल की। कोई वानप्रस्थ-धर्म का आश्रय लेते हैं तो कोई गाईस्थ-धर्म का। कोई राजधर्म, कोई आत्मज्ञान, कोई गुरुशुश्रूषा और कोई मौनव्रत का ही आश्रय लिये बैइे हैं। कुछ लोग माता-पिता की सेवा करके ही स्वर्ग में चले गये। कोई अहिंसा से और कोई सत्य से ही स्वर्गलोक के भागी हुए हैं। कुछ वीर पुरुष युद्ध में शत्रुओं का सामना करते हुए मारे जाकर स्वर्गलोक में जा पहुँचे हैं। कितने ही मनुष्य उन्छवृत्ति के द्वारा सिद्धि प्राप्त करके स्वर्गगामी हुए हैं। कुछ बुद्धिमान् पुरुष संतुष्टचित्त और जितेन्द्रिय हो वेदोक्त च्रत का पालन तथा स्वाध्याय करते हुए शुभसम्पन्न हो स्वर्गलोक में स्थान प्रापत कर चुके हैं। कितने ही सरल और शुद्धात्मा पुरुष सरलता से ही संयुक्त हो कुअिल मनुष्यों द्वारा मारे गये और स्वर्गलोक में प्रतिष्ठित हुए हैं। इस प्रकार लोक में धर्म के विविध एवं बहुत से दरवाजे खुले हुए हैं, उनसे मेार बुद्धि भी उसी प्रकार उद्विग्न एवं चंचल हो उठी है, जैसे वायु से मेघों की घटा।  
अतिथि ने कहा - विप्रवर ! मेरा भी ऐसा ही मनोरथ है। मैं भी आपके ही भाँति श्रेष्ठ धर्म का आरय लेना चाहता हूँ, परंतु मुझे भी इस विषय में मोह ही बना हुआ है। स्वर्ग के अनेक द्वार (साधन) हैं, अतः किसका आश्रय लिया जाय , इसका निश्चय में भी नहीं कर पाता हूँ। कोई द्विज मोक्ष की प्रशंसा करता है तो कोई यज्ञफल की। कोई वानप्रस्थ-धर्म का आश्रय लेते हैं तो कोई गाईस्थ-धर्म का। कोई राजधर्म, कोई आत्मज्ञान, कोई गुरुशुश्रूषा और कोई मौनव्रत का ही आश्रय लिये बैइे हैं। कुछ लोग माता-पिता की सेवा करके ही स्वर्ग में चले गये। कोई अहिंसा से और कोई सत्य से ही स्वर्गलोक के भागी हुए हैं। कुछ वीर पुरुष युद्ध में शत्रुओं का सामना करते हुए मारे जाकर स्वर्गलोक में जा पहुँचे हैं। कितने ही मनुष्य उन्छवृत्ति के द्वारा सिद्धि प्राप्त करके स्वर्गगामी हुए हैं। कुछ बुद्धिमान पुरुष संतुष्टचित्त और जितेन्द्रिय हो वेदोक्त च्रत का पालन तथा स्वाध्याय करते हुए शुभसम्पन्न हो स्वर्गलोक में स्थान प्रापत कर चुके हैं। कितने ही सरल और शुद्धात्मा पुरुष सरलता से ही संयुक्त हो कुअिल मनुष्यों द्वारा मारे गये और स्वर्गलोक में प्रतिष्ठित हुए हैं। इस प्रकार लोक में धर्म के विविध एवं बहुत से दरवाजे खुले हुए हैं, उनसे मेार बुद्धि भी उसी प्रकार उद्विग्न एवं चंचल हो उठी है, जैसे वायु से मेघों की घटा।  
<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">इस प्रकार श्रीमहाभारत शानितपर्व के अन्तर्गत मोक्षधर्मपर्व में उन्छवृत्ति का उपाख्यान विषयक तीन सौ चौवनवाँ अध्याय पूरा हुआ।</div>  
<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">इस प्रकार श्रीमहाभारत शानितपर्व के अन्तर्गत मोक्षधर्मपर्व में उन्छवृत्ति का उपाख्यान विषयक तीन सौ चौवनवाँ अध्याय पूरा हुआ।</div>  


 
{{लेख क्रम |पिछला=महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 353 श्लोक 1-9|अगला=महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 355 श्लोक 1-11}}
 
 
{{लेख क्रम |पिछला=महाभारत शान्तिपर्व अध्याय 353 श्लोक 1-9|अगला=महाभारत शान्तिपर्व अध्याय 355 श्लोक 1-11}}
 


==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
पंक्ति २१: पंक्ति १६:
{{सम्पूर्ण महाभारत}}
{{सम्पूर्ण महाभारत}}


[[Category:कृष्ण कोश]] [[Category:महाभारत]][[Category:महाभारत शान्तिपर्व]]
[[Category:कृष्ण कोश]] [[Category:महाभारत]][[Category:महाभारत शान्ति पर्व]]
__INDEX__
__INDEX__

०५:४२, ३ अगस्त २०१५ के समय का अवतरण

चतुःपञ्चाशदधिकत्रिशततम (354) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)

महाभारत: शान्ति पर्व: चतुःपञ्चाशदधिकत्रिशततम अध्याय: श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद

अतिथि द्वारा स्वर्ग के विभिन्न मार्गों का कथन

ब्राह्मण बोला - निष्पाप ! आपकी मीठी बातें सुनकर ही मैं आपके प्रति स्नेह बन्धन से बँध गया हूँ। उसपके ऊपर मेरा मित्रभाव हो गया है; अतः आपसे कुछ कह रहा हूँ, मेरी बात सुनिये। विप्रवर ! मैं गृहस्थ-धर्म को अपने पुत्रों के अधीन करके सर्वश्रेष्ठ धर्म का पालन करना चाहता हूँ। ब्रह्मन् ! बताइये, मेरे लिये कौन सा मार्ग श्रेयस्कर होगा ? कभी मेरी इच्छा होती है कि अकेला ही रहूँ और आत्मा का आश्रय लेकर उसी में स्थित हो जाऊँ। परंतु इन तुच्छ विषयों से बँघा होने के कारण वह इच्छा नष्ट हो जाती है। अब तक की सारी आयु पुत्र से फल पाने की कामना में ही बीत गयी। अब ऐसे धर्ममय धन का संग्रह करना चाहता हूँ, जो परलोक के मार्ग में पाथेय (राहखर्च) का काम दे सके। मुझे इस संसारसागर से पार जाने की इच्छा हुई है, अतः मेरे मन में यह जिज्ञासा हो रही है कि मुझे धर्ममयी नौका कहाँ से प्राप्त होगी ? जब मैं सुनता हूँ कि संसार में विषयों के सम्पर्क में आये हुए सात्त्विक पुरुष भी तरह-तरह की यातनाएँ भोगते हैं तथा जब देखता हूँ कि समसत प्रजा के ऊपर यमराज की ध्वजाएँ फहरा रही हैं, तब भोगकाल में भोगों के प्राप्त होने पर भी उन्हे भोगने की रुचि मेरे मन में नहीं होती है। जब संन्यासियों को भी दूसरे के दरवाजों वा अन्न-वस्त्र की भीख माँगते देखता हूँ, तब उस संन्यास धर्म में भी मेरा मन नहीं लगता है; अतः अतिथिदेव ! आप अपनी ही बुद्धि के बल से अब मुणे धर्म द्वारा धर्म में लगाइये। धर्मयुक्त वचन बोलने वाले उस ब्राह्मण की बात सुनकर उस विद्वान् अतिथि ने मधुर वाणी में यह उत्तम वचन कहा।

अतिथि ने कहा - विप्रवर ! मेरा भी ऐसा ही मनोरथ है। मैं भी आपके ही भाँति श्रेष्ठ धर्म का आरय लेना चाहता हूँ, परंतु मुझे भी इस विषय में मोह ही बना हुआ है। स्वर्ग के अनेक द्वार (साधन) हैं, अतः किसका आश्रय लिया जाय , इसका निश्चय में भी नहीं कर पाता हूँ। कोई द्विज मोक्ष की प्रशंसा करता है तो कोई यज्ञफल की। कोई वानप्रस्थ-धर्म का आश्रय लेते हैं तो कोई गाईस्थ-धर्म का। कोई राजधर्म, कोई आत्मज्ञान, कोई गुरुशुश्रूषा और कोई मौनव्रत का ही आश्रय लिये बैइे हैं। कुछ लोग माता-पिता की सेवा करके ही स्वर्ग में चले गये। कोई अहिंसा से और कोई सत्य से ही स्वर्गलोक के भागी हुए हैं। कुछ वीर पुरुष युद्ध में शत्रुओं का सामना करते हुए मारे जाकर स्वर्गलोक में जा पहुँचे हैं। कितने ही मनुष्य उन्छवृत्ति के द्वारा सिद्धि प्राप्त करके स्वर्गगामी हुए हैं। कुछ बुद्धिमान पुरुष संतुष्टचित्त और जितेन्द्रिय हो वेदोक्त च्रत का पालन तथा स्वाध्याय करते हुए शुभसम्पन्न हो स्वर्गलोक में स्थान प्रापत कर चुके हैं। कितने ही सरल और शुद्धात्मा पुरुष सरलता से ही संयुक्त हो कुअिल मनुष्यों द्वारा मारे गये और स्वर्गलोक में प्रतिष्ठित हुए हैं। इस प्रकार लोक में धर्म के विविध एवं बहुत से दरवाजे खुले हुए हैं, उनसे मेार बुद्धि भी उसी प्रकार उद्विग्न एवं चंचल हो उठी है, जैसे वायु से मेघों की घटा।

इस प्रकार श्रीमहाभारत शानितपर्व के अन्तर्गत मोक्षधर्मपर्व में उन्छवृत्ति का उपाख्यान विषयक तीन सौ चौवनवाँ अध्याय पूरा हुआ।


« पीछे आगे »

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

साँचा:सम्पूर्ण महाभारत अभी निर्माणाधीन है।