"महाभारत द्रोणपर्व अध्याय 153 श्लोक 1-15": अवतरणों में अंतर

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==त्रिपण्चाशदधिकशततम (153) अध्याय: द्रोणपर्व (जयद्रथवध पर्व )==
==त्रिपण्चाशदधिकशततम (153) अध्याय: द्रोणपर्व (घटोत्कचवध पर्व )==
<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">महाभारत: द्रोणपर्व: त्रिपण्चाशदधिकशततम अध्याय: श्लोक 1-15 का हिन्दी अनुवाद</div>
<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">महाभारत: द्रोणपर्व: त्रिपण्चाशदधिकशततम अध्याय: श्लोक 1-15 का हिन्दी अनुवाद</div>


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संजय उवाच
संजय उवाच
संजय कहते हैं- जनेश्‍वर ! आपकी प्रचण्ड गजसेना पाण्डव सेना का उलग्घन करके सब और फैलकर युद्ध करने लगी ।
संजय कहते हैं- जनेश्‍वर ! आपकी प्रचण्ड गजसेना पाण्डव सेना का उलग्घन करके सब और फैलकर युद्ध करने लगी ।
पाण्जाल और कौरव योद्धा महान् यमराज्य एवं परलोक की दीक्षा लेकर परस्पर युद्ध करने लगे । एक पक्ष के शूरवीर दूसरे पक्ष के शूरवीरों से भिडकर बाण, तोमर और शक्तियों में समरभूमि में एक-दूसरे को चोट पहुंचाने और यमलोक भेजने लगे । परस्पर प्रहार करनेवाले रथियों का रथियों के साथ महान् युद्ध होने लगा, जो खून की धारा बहाने के कारण अत्यन्त भयंकर जान पडता था । महाराज ! अत्यन्त क्रोध में भरे हुए मदमत हाथी परस्पर भिडकर दांतों के प्रहार से एक-दूसरे को विदीर्ण करने लगे ।। उस भयंकर युद्ध में महान् यश की अभिलाषा रखते हुए घुडसवार घुडसवारों को प्राप्त, शक्ति और फरसों द्वारा घायल कर रहे थे । राजन् ! हाथों में शस्त्र लिये सैकडों पैदल सैनिक सदा पराक्रम के लिये प्रयत्नशील हो एक दूसरे पर चोट कर रहे थे । आर्य ! नाम, गोत्र और कुलों का परिचय सुनकर ही हम लोग उस समय कौरवों के साथ युद्ध करनेवाले पाण्जालों-को पहचान पाते थे । उस समंरागण में वे समस्त योद्धा निर्भय-से विचरते हुए बाण, शक्ति और फरसों की मार से एक दूसरे को परलोक भेज रहे थे ।‘ राजन् ! सूर्यास्त हो जाने के कारण उन योद्धाओं के छोडे हुए सहस्त्रों बाण दसों दिशाओं में फैलकर अच्छी तरह प्रकाशित नहीं हो पाते थे । भरतवंशी महाराज ! जब इस प्रकार पाण्डव-सैनिक युद्ध कर रहे थे, उस समय दुर्योधन ने उस सेना में प्रवेश किया । वह सिंधुराज के वधसे बहुत दुखी हो गया था। अतः मरने का ही निश्‍चय करके उसने शत्रुओं की सेना में प्रवेश किया ।। अपने रथ की घरघराहट से दिशाओं को प्रतिध्वनित करता और पृथ्वी को कंपाता हुआ सा आपका पुत्र पाण्डवसेना के सम्मुख आया । भारत ! पाण्डव सैनिकों तथा दुर्योधन का वह भंयकर संग्राम समस्त सेनाओं का महान् विनाश करने वाला था ।
पाण्जाल और कौरव योद्धा महान् यमराज्य एवं परलोक की दीक्षा लेकर परस्पर युद्ध करने लगे । एक पक्ष के शूरवीर दूसरे पक्ष के शूरवीरों से भिडकर बाण, तोमर और शक्तियों में समरभूमि में एक-दूसरे को चोट पहुंचाने और यमलोक भेजने लगे । परस्पर प्रहार करनेवाले रथियों का रथियों के साथ महान् युद्ध होने लगा, जो खून की धारा बहाने के कारण अत्यन्त भयंकर जान पडता था । महाराज ! अत्यन्त क्रोध में भरे हुए मदमत हाथी परस्पर भिडकर दांतों के प्रहार से एक-दूसरे को विदीर्ण करने लगे ।। उस भयंकर युद्ध में महान् यश की अभिलाषा रखते हुए घुडसवार घुडसवारों को प्राप्त, शक्ति और फरसों द्वारा घायल कर रहे थे । राजन् ! हाथों में शस्त्र लिये सैकडों पैदल सैनिक सदा पराक्रम के लिये प्रयत्नशील हो एक दूसरे पर चोट कर रहे थे । आर्य ! नाम, गोत्र और कुलों का परिचय सुनकर ही हम लोग उस समय कौरवों के साथ युद्ध करनेवाले पाण्जालों-को पहचान पाते थे । उस समंरागण में वे समस्त योद्धा निर्भय-से विचरते हुए बाण, शक्ति और फरसों की मार से एक दूसरे को परलोक भेज रहे थे ।‘ राजन् ! सूर्यास्त हो जाने के कारण उन योद्धाओं के छोडे हुए सहस्त्रों बाण दसों दिशाओं में फैलकर अच्छी तरह प्रकाशित नहीं हो पाते थे । भरतवंशी महाराज ! जब इस प्रकार पाण्डव-सैनिक युद्ध कर रहे थे, उस समय दुर्योधन ने उस सेना में प्रवेश किया । वह सिंधुराज के वधसे बहुत दुखी हो गया था। अतः मरने का ही निश्‍चय करके उसने शत्रुओं की सेना में प्रवेश किया ।। अपने रथ की घरघराहट से दिशाओं को प्रतिध्वनित करता और पृथ्वी को कंपाता हुआ सा आपका पुत्र पाण्डवसेना के सम्मुख आया । भारत ! पाण्डव सैनिकों तथा दुर्योधन का वह भंयकर संग्राम समस्त सेनाओं का महान् विनाश करने वाला था ।
(धृतराष्ट्र उवाच)
(धृतराष्ट्र उवाच)
धृतराष्ट्र ने पूछा- द्रोण, कर्ण, कृप तथा सात्वतवंशी कृतवर्मा-ये तो राजा के चाहनेवालों में से हैं, इन्होंने उसे युद्ध में जाने से रोका क्यों नही ?  युद्ध में सभी उपायों से राजा की रक्षा करनी चाहिये। महषिर्यों ने युद्धविषयक इसी सर्वोतम नीतिका साक्षात्कार किया है । संजय ! जब मेरा पुत्र शत्रुओं की विशाल सेना में घुस गया, उस समय मेरे पक्ष के श्रेष्ठ रथियों ने क्या किया ?  
धृतराष्ट्र ने पूछा- द्रोण, कर्ण, कृप तथा सात्वतवंशी कृतवर्मा-ये तो राजा के चाहनेवालों में से हैं, इन्होंने उसे युद्ध में जाने से रोका क्यों नही ?  युद्ध में सभी उपायों से राजा की रक्षा करनी चाहिये। महषिर्यों ने युद्धविषयक इसी सर्वोतम नीतिका साक्षात्कार किया है । संजय ! जब मेरा पुत्र शत्रुओं की विशाल सेना में घुस गया, उस समय मेरे पक्ष के श्रेष्ठ रथियों ने क्या किया ?  
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{{लेख क्रम |पिछला=महाभारत द्रोणपर्व अध्याय 152 श्लोक 17-34|अगला=महाभारत द्रोणपर्व अध्याय 153 श्लोक 16-34}}
{{लेख क्रम |पिछला=महाभारत द्रोणपर्व अध्याय 152 श्लोक 17-34|अगला=महाभारत द्रोणपर्व अध्याय 153 श्लोक 16-36}}


==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
==टीका टिप्पणी और संदर्भ==

०५:१२, ५ अगस्त २०१५ के समय का अवतरण

त्रिपण्चाशदधिकशततम (153) अध्याय: द्रोणपर्व (घटोत्कचवध पर्व )

महाभारत: द्रोणपर्व: त्रिपण्चाशदधिकशततम अध्याय: श्लोक 1-15 का हिन्दी अनुवाद

कौरव-पाण्डव-सेना का युद्ध, दुर्योधन और युधिष्ठिर का संग्राम तथा दुर्योधन की पराजय संजय उवाच संजय कहते हैं- जनेश्‍वर ! आपकी प्रचण्ड गजसेना पाण्डव सेना का उलग्घन करके सब और फैलकर युद्ध करने लगी । पाण्जाल और कौरव योद्धा महान् यमराज्य एवं परलोक की दीक्षा लेकर परस्पर युद्ध करने लगे । एक पक्ष के शूरवीर दूसरे पक्ष के शूरवीरों से भिडकर बाण, तोमर और शक्तियों में समरभूमि में एक-दूसरे को चोट पहुंचाने और यमलोक भेजने लगे । परस्पर प्रहार करनेवाले रथियों का रथियों के साथ महान् युद्ध होने लगा, जो खून की धारा बहाने के कारण अत्यन्त भयंकर जान पडता था । महाराज ! अत्यन्त क्रोध में भरे हुए मदमत हाथी परस्पर भिडकर दांतों के प्रहार से एक-दूसरे को विदीर्ण करने लगे ।। उस भयंकर युद्ध में महान् यश की अभिलाषा रखते हुए घुडसवार घुडसवारों को प्राप्त, शक्ति और फरसों द्वारा घायल कर रहे थे । राजन् ! हाथों में शस्त्र लिये सैकडों पैदल सैनिक सदा पराक्रम के लिये प्रयत्नशील हो एक दूसरे पर चोट कर रहे थे । आर्य ! नाम, गोत्र और कुलों का परिचय सुनकर ही हम लोग उस समय कौरवों के साथ युद्ध करनेवाले पाण्जालों-को पहचान पाते थे । उस समंरागण में वे समस्त योद्धा निर्भय-से विचरते हुए बाण, शक्ति और फरसों की मार से एक दूसरे को परलोक भेज रहे थे ।‘ राजन् ! सूर्यास्त हो जाने के कारण उन योद्धाओं के छोडे हुए सहस्त्रों बाण दसों दिशाओं में फैलकर अच्छी तरह प्रकाशित नहीं हो पाते थे । भरतवंशी महाराज ! जब इस प्रकार पाण्डव-सैनिक युद्ध कर रहे थे, उस समय दुर्योधन ने उस सेना में प्रवेश किया । वह सिंधुराज के वधसे बहुत दुखी हो गया था। अतः मरने का ही निश्‍चय करके उसने शत्रुओं की सेना में प्रवेश किया ।। अपने रथ की घरघराहट से दिशाओं को प्रतिध्वनित करता और पृथ्वी को कंपाता हुआ सा आपका पुत्र पाण्डवसेना के सम्मुख आया । भारत ! पाण्डव सैनिकों तथा दुर्योधन का वह भंयकर संग्राम समस्त सेनाओं का महान् विनाश करने वाला था । (धृतराष्ट्र उवाच) धृतराष्ट्र ने पूछा- द्रोण, कर्ण, कृप तथा सात्वतवंशी कृतवर्मा-ये तो राजा के चाहनेवालों में से हैं, इन्होंने उसे युद्ध में जाने से रोका क्यों नही ? युद्ध में सभी उपायों से राजा की रक्षा करनी चाहिये। महषिर्यों ने युद्धविषयक इसी सर्वोतम नीतिका साक्षात्कार किया है । संजय ! जब मेरा पुत्र शत्रुओं की विशाल सेना में घुस गया, उस समय मेरे पक्ष के श्रेष्ठ रथियों ने क्या किया ? संजय उवाच संजयने कहा- भरतवंशी नरेश ! आपके पुत्र के आश्‍चर्यजनक एवं अद्रुत संग्राम का, जो एक का बहुत-से योद्धाओं के साथ हुआ था, वर्णन करता हूं, सुनिये । द्रोणाचार्य, कर्ण और कृपाचार्य के मना करने पर भी जैसे मगर समुन्द्र में प्रवेश करता है, उसी प्रकार दुर्योधन पाण्डवसेना में घुस गया था। जहां-तहां और सहस्त्रों बाणों की वर्षा करते हुए उसने तीखे बाणों द्वारा पाण्जालों और पाण्डवों को घायल कर दिया था । जैसे उदयकाल का सूर्य अपनी किरणों द्वारा सर्वत्र फेले हुए अंधकार का नाश कर देता हैं, उसी प्रकार आपके महाबली पुत्र ने शत्रुसेना का विनाश कर दिया । जैसे अपनी किरणों से तपते हुए दोपहर के सूर्य की ओर कोई देख नहीं पाता, उसी प्रकार अपने बाणों की ज्वालाओं-से शत्रुओं को संताप देते हुए सेना के मध्यमभाग में खडे आपके पुत्र एवं अपने भाई दुर्योधन की ओर उस युद्धस्थल में पाण्डव देख नही पाते थे ।



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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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